याद करो कुर्बानी: गर्दन में गोली लगने के बावजूद 40 दुश्मनों को सुलाया मौत की नींद

अनूप कुमार मिश्र
नई दिल्ली। याद करो कुर्बानी की 20वीं कड़ी में हम आपको गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह की वीर गाथा बनाते जा रहे हैं. कैप्टन गुरबचन सिंह संयुक्त राष्ट्र मिशन के तहत परमवीर चक्र पाने वाले पहले भारतीय सैन्य अधिकारी हैं. आइये जानते हैं गुरबचन सिंह की पूरी वीर गाथा…
कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का जन्म 29 नवम्बर 1935 को पंजाब के गुरुदासपुर में हुआ था. उनके सैन्य जीवन की शुरुआत 9 जून 1957 को 1 गोरखा राइफल्स के साथ शुरू हुई थी. कांगो में गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होने के बाद यूनाइटेड नेशन्स ने हालात को नियंत्रण में लाने के लिए सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लिया.
जिसके तहत, भारत से 3000 जवानों और अधिकारियों वाली एक बिग्रेड को यूनाइटेड नेशन के इस मिशन के लिए रवाना किया गया था. इस मिशन में भाग लेने वाले सैन्य बल में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया भी शामिल थे. 24 नवम्बर 1961 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव से नाराज शोम्बे के विद्रोहियो ने संयुक्त राष्ट्र संघ के दो अधिकारियों को अपहरण कर लिया और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी.
विद्रोहियों द्वारा बंधक बनाए गए संयुक्त राष्ट्र संघ के दो अधिकारियों में गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह भी शामिल थे. षड़यंत्र के तहत, 5 दिसम्बर 1961 को विद्रोहियों ने संयुक्त राष्ट्र की सेना को रोकने के लिए एलिजाबेथ विला की तरफ जाने वाले सभी रास्तों को अवरुद्ध कर दिया. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए गोरखा राइफल्स को इन रास्तों को खुलवाने का निर्देश दिया गया.
वहीं, विद्रोहियों को इस तरह की सैन्य कार्रवाई की आशंका पहले से थी, लिहाजा संयुक्त राष्ट्र की सेना से मोर्चा लेने के लिए इन सड़कों पर सैकड़ो हथियार बंद विद्रोही पहले से एकत्रित हो गए थे. विद्रोहियों के मंसूबों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र की सेना ने अपनी रणनीति को तैयार किया. रणनीति के तहत गोरखा राइफल्स की चार्ली कंपनी को आयरिश टैंक से हमला करने के निर्देश दिए गए.
निर्देशों के तहत तय हुआ कि गोरखा राइफल्स के कैप्टन गोविंद शर्मा विद्रोहियों पर एक तरफ से हमला करेंगे, जबकि कैप्टन गुरबचन सिंह एयरपोर्ट की तरफ से आयरिश टैंक से कार्रवाई करेंगे. रणनीति कुछ इस तरह तैयार की गई थी कि विद्रोहियों को न ही मौके से भागने का मौका मिले और न ही वह हमले की वारदात को अंजाम दे सकें.

5 दिसंबर 1961 की दोपहर कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया अपनी तय योजना के तहत एयरपोर्ट रोड पर स्थित पूर्व निर्धारित स्थान तक पहुंचने में कामयाब रहे. वह अपनी टीम के साथ विद्रोहियों पर कार्रवाई के लिए सही समय का इंतजा रहे थे. इसी बीच उन्हें अवरोधक के तौर पर लगाई गई दो शस्त्र कारें नजर आईं. कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया को जिस मौके का इंजतार था, वह घड़ी अब आ चुकी थी. कैप्टन सलारिया ने बिना समय गंवाए राकेट लांचर से दोनों कारों को नेस्तनाबूद कर दिया.
कैप्टन गुरबचन सलारिया के इस एक्शन से विद्रोहियों में खलबली मच गई. कैप्टन सलारिया को समझ में आ चुका था कि सशस्त्र विद्रोहियों को काबू करने का यही मौका है. सही समय रहते कार्रवाई हुई तो दुश्मन को हराना मुश्किल नहीं होगा.
इसी योजना के तहत, कैप्टन सालारिया ने 16 जवानों के साथ विद्रोहियों पर हमला बोल दिया. कैप्टन सालारिया ने अकेले 100 में से 40 विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया. इसी दौरान, विद्रोहियों द्वारा आटोमैटिक मशीनगन से किया गया फायर से कैप्टन सालारिया की गर्दन गंभीर रूप से जख्मी हो गई.
कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया अपनी जख्म की परवाह न करते हुए लगातार दुश्मन से लड़ते रहे. कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की बहादुरी से यह युद्ध तो जीत लिया गया, लेकिन जिंदगी की जंग वह उनके काबू से बाहर हो गई. वह रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए.
कैप्टन सालारिया के युत्र कौशल और बहादुरी का ही नतीजा है कि गोरखा राइफल्स इस मिशन पर कामयाब रही. कैप्टन के अभूतपूर्व युद्ध कौशल, बहादुरी और कर्यव्य के प्रति निष्ठा को ध्यान में रखते हुए उन्हें सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
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