आंकड़ों की जुबानी: विपक्ष चाहें जितना जोर लगा ले, 2019 में BJP की फिर भी 226 सीटें आनी तय

नई दिल्ली। कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के शपथग्रहण समारोह में 11 विपक्षी दलों के नेताओं ने एकजुटता दिखाकर एक तरह से 2019 के लिए बीजेपी के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजा दिया है. एचडी कुमारस्‍वामी ने जब कर्नाटक के मुख्‍यमंत्री पद की शपथ ली तो इस दौरान मंच पर एक पूर्व पीएम, पांच मुख्‍यमंत्री, पांच पूर्व मुख्‍यमंत्री और चार सांसद मौजूद थे. पीएम मोदी के विजय रथ को रोकने की ख्‍वाहिश इस कदर इस जुटान में दिखी कि 1996 के बाद इस तरह एक सार्वजनिक मंच पर विपक्ष का यह सबसे बड़ा शक्ति प्रदर्शन था.

इसकी बानगी इस रूप में समझी जा सकती है कि हाल तक एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे मायावती और अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और माकपा नेता सीताराम येचुरी सब इस मंच पर मौजूद रहे. अब यहीं से बड़ा सवाल खड़ा होता है कि ये सब दल अगर वाकई एक साथ आ जाएं तो क्‍या 2019 में बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी को हराने की सामर्थ्‍य रखते हैं?

इस संबंध में द टाइम्‍स ऑफ इंडिया ने 2014 के आम चुनावों में राज्‍यों में बीजेपी की जीती हुई सीटें और उन क्षेत्रों में अब विपक्षी दलों की एकजुटता के लिहाज से उस दौरान इनको मिले वोटों को जोड़कर बनने वाली संभावित सीटों का आकलन पेश किया है. इस आधार पर इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यूपी को छोड़कर बीजेपी को बहुत बड़ा नुकसान किसी अन्‍य राज्‍य में होने वाला नहीं है. हालांकि इन आंकड़ों के मुताबिक यूपी में बीजेपी को सपा, बसपा और कांग्रेस के एक साथ आने की स्थिति में अंकगणित के लिहाज से 2019 में 46 सीटों का नुकसान हो सकता है. इसकी तुलना में विपक्षी गठबंधन को 25 सीटें मिल सकती हैं. 2014 में बीजेपी को इस राज्‍य में अपने दम पर 71 और सहयोगी अपना दल के साथ मिलाकर 80 में से कुल 73 सीटें मिली थीं.

रिपोर्ट के मुताबिक यूपी को छोड़कर देश के अन्‍य राज्‍यों से बीजेपी को पिछली बार की तुलना में केवल 12 अन्‍य सीटों का नुकसान हो सकता है. इस तरह कुल 58 सीटों का नुकसान होगा. लेकिन बिहार में जदयू के साथ गठबंधन के कारण बीजेपी को वहां से पिछली बार 22 से दो सीटों अधिक 24 मिलने की संभावना है. इन दो सीटों की बढ़त के कारण कुल नुकसान 56 सीटों का रह जाता है. इस लिहाज से 2014 में अकेले अपने दम पर 282 सीटें जीतने वाली बीजेपी 2019 में इन आंकड़ों के मुताबिक 226 सीटें जीतेगी. इस तरह विपक्षी एकजुटता के बावजूद वह देश में अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी. लिहाजा गठबंधन साथियों के दम पर फिर से सत्‍ता हासिल करने के सबसे करीब होगी.

केवल अंकगणित पर ही नहीं होती निर्भरता
हालांकि यह भी सही है कि चुनाव केवल आंकड़े के आधार पर जीत या हार का खेल नहीं होते. ऐसा इसलिए क्‍योंकि यदि यही सब कुछ होता तो बीजेपी, गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव नहीं हारती. कहने का आशय यह है कि इसके साथ-साथ कैमिस्‍ट्री का होना भी जरूरी है. मसलन 2015 में बिहार में राजद-जदयू ने बेहतर तालमेल का महागठबंधन बनाकर बीजेपी को शिकस्‍त दे दी थी. इसी तरह गोरखपुर और फूलपुर में देखने को मिला.

लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि ऐसा हमेशा संभव नहीं होता कि सपा और बसपा जैसे धुर विरोधी एक साथ आ जाएं तो जमीनी स्‍तर पर वोटों का ट्रांसफर भी आसानी से हो जाएगा क्‍योंकि इन दलों को अपने वोटरों को यह समझना मुश्किल होगा कि आखिर वे इस तरह की साझेदारी क्‍यों कर रहे हैं? केवल बीजेपी या पीएम मोदी को हराने का एजेंडा सफल नहीं हो सकता. इसके लिए जरूरी है कि विपक्ष वैकल्पिक सकारात्‍मक एजेंडा पेश करे और लोग उस पर यकीन कर सकें, तभी विपक्षी एकजुटता की कैमिस्‍ट्री जमीनी धरातल पर फलीभूत होते हुए दिखेगी.

 

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