आपातकाल की वर्षगांठ: तानाशाही को मिलता रहा है भारत के मध्यम वर्ग का समर्थन

अजाज़ अशरफ

देश में इमरजेंसी लगने के 43 साल पूरे हो गए हैं. 25 जून 1975 के दिन इमरजेंसी की घोषणा हुई थी. इमरजेंसी की 43वीं वर्षगांठ के मौके पर दो सामानांतर कहानियां सामने हैं. ये दोनों कहानियां देश में सत्ता और देश की कमान संभाल रहे प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द ही घूमती रही हैं. इन कहानियों के मुताबिक 1975 में इंदिरा गांधी ने संविधान के नाम पर इमरजेंसी की घोषणा की थी वहीं अभी देश में अघोषित आपातकाल जैसी व्यवस्था कायम है जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना आधिपत्य जमाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं.

ये सच है कि देश में अधिनायकवाद को समय-समय प्रश्रय मिला है लेकिन ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि देश के मध्यम वर्ग ने खामोशी से इसका समर्थन किया है. मध्यम वर्ग का महत्व इसलिए ज्यादा है क्योंकि ये वर्ग देश के गवर्नेंस स्ट्रक्चर से सभी आयामों पर हावी रहा है चाहे वो न्यायपालिका हो मीडिया हो या फिर ब्यूरोक्रेसी. मध्यम वर्ग निरंकुशता की पैरोकारी भी करता रहा है भले ही इसके लिए इसे दासों के समान ही क्यों न रहना पड़ा हो. सही मायनों में ये दोनों एक दूसरे के पूरक जैसे ही हैं.

भारतीय मध्यम वर्ग इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में रहा है

फ्रेंच-मोरक्कन राइटर लीला सिलमणि ने अपने शानदार उपन्यास ‘लूलाबे’ में मध्यम वर्ग के अंदर की विचारधारा बहुत खूबसूरती से उकेरा है. इस उपन्यास में सिलमणि ने काल्पनिक रूप से वर्ग संबंधों के बारे में बहुत शानदार तरीके से वर्णन किया है. इस उपन्यास में अपने नाती पोतों और उनके तौर तरीकों को देखते हुए एक दादी टिप्पणी करती है कि ‘हमें अपने नाती पोतों के ज्ञान की सीमा को विस्तृत करना होगा जिससे कि वो समझदार बन सकें क्योंकि मध्यम वर्ग को लोग दासों जैसे होते हैं और तानाशाही को पंसद करते हैं. ये लोग कायर होने के लिए अभिशप्त हैं.’ यहां विस्तृत करने से तात्पर्य अपने से इतर भी दुनिया से मतलब रखने की है.

सिलमणि के फ्रेंच मिडिल क्लास के बारे में ये कथन भारतीय मध्य वर्ग के लिए भी सही है. भौतिक और आधुनिक सुख सुविधाओं की चाहत ने भारतीय मिडिल क्लास को अधिनायकतावादी विचारों से प्रेरित कर रखा है. ये विचार समाज में विधि और अनुशासन बनाए रखने में कारगर होते हैं. भारतीय मध्य वर्ग की कहानी उसके सदस्यों के चारों तरफ घूमती रहती है फिर चाहे वो घर हो या फिर ऑफिस. इनका मकसद केवल वर्चस्व जमाना होता है और इसके लिए वो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरीकों का सहारा लेते हैं. इसके लिए कई बार उन्हें नियमों की अवहेलना तक करनी पड़ती है.

यही वजह है कि भारतीय मध्यम वर्ग इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी के पक्ष में रहा है. इन दोनों नेताओं के व्यक्तित्व का मिलान करेंगे तो पता चलेगा कि ये दोनों एक दूसरे से मिलते जुलते हैं और इन दोनों का मकसद केवल एक था और है, कि किसी भी तरह से पूरी व्यवस्था पर उनका पूरा वर्चस्व हो. इस तरह के विचार जिसमें व्यवस्था कायम रखने के लिए शक्ति का गैरकानूनी प्रयोग किया जाता है, उसे भी विश्व में मान्यता मिली हुई है. ये एक बुरा विचार है जिसे मिडिल क्लास के विकास के लिए जरूरी बताया जा रहा है खास बात ये है कि इसे राष्ट्रीय अनिवार्यता से भी जोड़ दिया गया है.

मजेदार बात ये है कि बिना मध्यम वर्ग की सहमति के तानाशाही व्यवस्था चल ही नहीं सकती. इससे संबंधित एक वाकये का जिक्र ख्याति प्राप्त वकील फली एस नरीमन ने अपने एक नवीनतम लेख में किया है. इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इस लेख में देश में इमरजेंसी के समय की घटना का वर्णन नरीमन ने किया है. बात 1975 की है, एक वकील का बेटा उस समय विशाखपट्नम कॉलेज में अपनी पढ़ाई कर रहा था. उस कॉलेज के एक लेक्चरर ने फरमान जारी किया कि उसके क्लास के विद्यार्थी इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम के समर्थन में मार्च निकालेंगे. लेक्चरर के इस फरमान का वकील के बेटे ने विरोध किया, इसके फलस्वरूप न केवल उसे अपने सहपाठियों का कोपभाजन बनना पड़ा बल्कि उसे राज्य की सुरक्षा के प्रति खतरा बताते हुए गिरफ्तार तक कर लिया गया.

1975 की तरह ही 2014-2018 के दौरान भी सोशल मीडिया पर मोदी के खिलाफ लिखने पर कुछ लोगों को गिरफ्तार तक किया गया. विरोध करने वाले इन लोगों के पास दासता के खिलाफ खड़े होने की ताकत थी. ये ही बात शासन चला रहे मिडिल क्लास अधिकारियों को नागवार गुजरी और उनपर कार्रवाई की गई.

रघु राय की इस तस्वीर में उस दौर की इंदिरा गांधी की ताकत साफ दिखाई पड़ती है.

                                                 रघु राय की इस तस्वीर में उस दौर की इंदिरा गांधी की ताकत साफ दिखाई पड़ती है.

राष्ट्रीय ध्वज के क्या मायने हैं?

2014 के बाद से तिरंगे और राष्ट्रीय गान को लेकर बेवजह की राजनीति की गई. इस तरह की घटनाएं 1970 के दशक में भी मौजूद थी. इमरजेंसी लगने के चार साल पहले तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री नंदिनी सत्पथी ने सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के समय खड़ा नहीं होने वाले व्यक्तियों को सजा देने की बात कही थी. मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने भी कानूनी बाध्यता का जिक्र करते हुए कहा कि तिरंगे के प्रति असम्मान बरतने वालों को पकड़ा जा सकता है.

उग्र विचारधारा वाले दलित पैंथर्स के संस्थापकों में से एक राजा ढाले ने पुणे से निकलने वाले साप्ताहिक ‘साधना’ में एक लेख लिखा. इसमें ढाले ने लिखा कि भारतीय राज्य व्यवस्था तिरंगे के अपमान को लेकर जितना संवेदनशील है उतना दलित महिलाओं पर होने वाली हिंसा के प्रति नहीं. ढाले ने लिखा है कि ‘एक ब्राह्मण महिला को निर्वस्त्र नहीं किया जाता है लेकिन एक बुद्धिस्ट महिला के साथ ऐसा होता है, और क्या है इसके खिलाफ सजा? एक महीने की जेल और 50 रुपए का जुर्माना जबकि तिरंगे के प्रति असम्मान दिखाने के लिए जुर्माना है 300 रुपए, ऐसे में राष्ट्रीय ध्वज के क्या मायने हैं?’

नवंबर 1972 में ढाले को राष्ट्रीय ध्वज के प्रति असम्मान जताने के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है. अब ये स्पष्ट हो चुका है कि हर वो व्यक्ति एंटी नेशनल है जो कि मिडिल क्लास द्वारा निर्धारित किए गए मापदंडों का विरोध करता हो. फिर चाहे कालखंड 70 के दशक का हो या अभी का.

1970 के दशक में महाराष्ट्र में दलितों के खिलाफ कई मामले सामने आए. दलित पैंथर्स नामक किताब में जेवी पवार ईल्लैया पेरुमल रिपोर्ट के संसद में प्रस्तुत करने के वाकिये का जिक्र करते हैं. रिपोर्ट के आंकड़े चौंकाने वाले थे. कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में दलितों के ऊपर अत्याचार के 11,000 से ज्यादा मामलों का जिक्र था. इन ग्यारह हजार मामलों में से 1177 हत्या के मामले थे और वो भी केवल एक साल में दर्ज किए गए थे.

लेकिन इससे मिडिल क्लास और अपर कास्ट के लिए कुछ भी नहीं बदला. उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के ईरनगांव के दलित किसान रामदास नरनावरे का गर्दन काटने से पहले उसके नाक और कान को नृशंतापूर्वक काट दिया गया था. महाराष्ट्र के ही अकोला जिले के ढाकली गांव के गवई बंधुओं की आंखें निकाल ली गई. उनका कुसूर केवल इतना था कि उन्होंने गांव के मुखिया के बेटे को अपने भाई की बेटी से बलात्कार करने का विरोध किया था.

जुलाई 1973 के एक मार्च में पुलिस अधिकारियों ने पवार और उनके कॉमरेड्स को ‘अबाउट टर्न, अबाउट टर्न महार बटालियन अबाउट टर्न’ जैसे नारे लगाने से रोक दिया. ये स्लोगन उन दलित सैनिकों के पत्नी और बेटियों के लिए ईजाद किए गए थे जिनके पति तो घर से दूर नौकरी पर थे लेकिन उनके परिजनों पर अत्याचार और शोषण किया जाता था. पुलिस को इन नारों से देशद्रोह की बू आ रही थी.

1970 के दशक की तरह ही 2014 के बाद से दलितों के खिलाफ अत्याचार के कई मामले सामने आए हैं. जिनमें ऊना और रोहित वेमुला जैसे बड़े मामले भी शामिल हैं. ये केवल तानाशाही व्यवस्था में संभव है जिसके अंतर्गत भीम सेना के मुखिया चंद्रशेखर आजाद को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत एक साल से जेल में बंद करके रखा गया है. अभी तक किसी ने ये नहीं समझाया है कि आखिर चंद्रशेखर किस तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है. ऐसा लगता है कि मिडिल क्लास और अपर कास्ट को डर है कि कहीं अत्याचार और शोषण के खिलाफ उनके विरुद्ध बदले की कार्रवाई न शुरू हो जाए.

लेकिन वही भारतीय व्यवस्था संघ परिवार से जुड़े उन लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने से हिचकती है जो कि निगरानी के नाम पर निर्दोषों का खून बहा रहे हैं. वो लोग गायों को मारने का आरोप लगा कर लोगों की हत्या कर रहे हैं, अंतर धार्मिक शादी करने वाले दंपत्तियों को परेशान कर रहे हैं. मोटरसाइकिलों पर सवार होकर ये लोग सांप्रदायिक नारे लगा कर धार्मिक उन्माद पैदा कर रहे हैं. 1970 के दशक में भी सांप्रदायिक हिंसा के मामले काफी तेजी से सामने आए थे.

ये उनलोगों की चाल है जिन्हें लगता है कि भय पैदा करके ही शासन सुचारू रूप से चलाया जा सकता है. आपातकाल के ये ही लक्षण हैं, भले ही इसे घोषित किया गया हो अथवा न किया गया हो. मध्यम वर्ग के एक बड़े हिस्से की इसमें सहभागिता है क्योंकि सिलमणि के अनुसार ‘वो लोग एक समय तानाशाही के समर्थक और दासता से ग्रसित थे.

इंदिरा गांधी ने तो मुख्य न्यायाधीश अपनी मर्जी से नियुक्त कर दिया था

भारतीय मध्यवर्ग की मनोवैज्ञानिक सोच ने देश के संस्थानों को बड़े पैमाने पर कमजोर करने का काम किया है. उदाहरण के लिए न्यायपालिक को लीजिए, इसे निरंकुश शक्ति के प्रदर्शन को नियंत्रित करने की उम्मीद थी लेकिन इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों को नजरंदाज करते हुए चौथे नंबर के जज को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया था. साफ था कि वो ‘समर्पित’ न्यायपालिका चाहती थी.

आज चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व में केसों के बंटवारे को लेकर विरोध के स्वर उठ रहे हैं. सीजेआई के खिलाफ चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इस संबंध में अपनी शिकायत सार्वजनिक की. इसके अलावा मोदी सरकार ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी सदाशिवम को केरल का राज्यपाल नियुक्त किया. सदाशिवम वो ही न्यायाधीश हैं जिन्होंने तुलसीराम प्रजापति फर्जी एनकाउंटर मामले में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ दूसरे एफआईआर को रद्द कर दिया था. उन्होंने ही क्रिश्चियन मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों की हत्या के मामले में अपने फैसले में धर्म परिवर्तन को लेकर हिंदुत्व के बारे में विचार व्यक्त किया था. बाद में उनके इन विचारों को सुप्रीम कोर्ट ने हटा दिया था.

सदाशिवम कि राज्यपाल के रूप में नियुक्ति जजों के लिए एक संदेश की तरह था कि अगर वो बीजेपी की विचारधारा के अनुरूप अपने फैसले देते हैं तो उन्हें पुरस्कृत किया जा सकता है. क्या यही वजह थी कि दिल्ली हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस जी रोहिणी को रिटायरमेंट के बाद ओबीसी के मामलों से जुड़ी एक कमेटी का हेड बनाया गया क्योंकि उन्होंने 2016 में दिल्ली सरकार से जुड़े एक मामले में ये निर्णय दिया था कि दिल्ली का उपराज्यपाल वहां के मुख्यमंत्री की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है.

कुछ उसी तरह का मामला जस्टिस के.एम जोसेफ से जुड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की अनुशंसा के बावजूद मोदी सरकार जोसफ को सुप्रीम कोर्ट भेजने को तैयार नहीं है. जोसफ ने 2016 के अपने एक फैसले में उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार बनाने के उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. इस प्रकरण से साफ है कि मोदी सरकार न्यायपालिक को अपने पक्ष में आने का संकेत दे रही है.

मीडिया को ही लीजिए, इमरजेंसी के दौरान बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था ‘उन्हें तो बस झुकने को कहा गया लेकिन वो तो रेंगने लगे’. आज भी स्थिति उस समय से अलग नहीं है. सरकार के अगर आप विरोध में हैं तो उससे मिलने वाले लाभों को आप भूल जाइए. मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उन खबरों को दिखाने से बचता है जिससे बीजेपी की साख को बट्टा लगता हो. हाल ही के कोबरापोस्ट के स्टिंग में ये सामने आया है कि किस तरह से रूपए लेकर कई मीडिया घराने हिंदुत्व को महिमा मंडित करने के लिए तैयार बैठे हैं.

FILE PHOTO 15JULY97 - President of the Hindu nationalist Bharatiya Janata Party L. K. Advani receives garlands in New Delhi in this file photo. INDIA MOSQUE - RTR6KZA

केजरीवाल, मोदी के घोर विरोधी हैं

इमरजेंसी के दौरान नौकरशाही का भी हाल बुरा था. आपातकाल के दौरान नौकरशाहों ने लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया और जबरन बंध्याकरण कराने को मजबूर किया. आज के दौर में संघ परिवार के आगे नौकरशाही बेबस दिख रही है. समाज में वैमनस्यता फैला रहे उनके समर्थकों के खिलाफ तो वो आंखें मूंदे रहती है वहीं दूसरी तरफ उल्टे उनके द्वारा सताए लोगों के खिलाफ ही मामला दर्ज कर ले रही है. आश्चर्य की बात नहीं है कि उनका हौंसला अब इतना बढ़ गया है कि वो कानून को अपने हाथ में लेने से हिचक तक नहीं रहे हैं.

कुछ ब्यूरोक्रैट्स ने हिंदुत्व के नाम पर फैलाई जा रही नफरत की राजनीति के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की है लेकिन इसके लिए उन्हें अपने राजनीतिक आकाओं के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है. ये लोग दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के खिलाफ मोर्चा खोलने में जरा भी नहीं झिझकते क्योंकि उन्हें मालूम है कि वो मोदी के घोर विरोधी हैं. उन्हें पता है कि दिल्ली के सीएम के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए उन्हें उकसाया जाएगा न कि इसकी सजा दी जाएगी.

हां, ये भी सच है कि मिडिल क्लास से भी तानाशाही रवैये के खिलाफ विरोध के स्वर उठ रहे हैं लेकिन अभी भी मध्यम वर्ग को इन जंजीरों से आजाद होने में समय लगेगा. मध्यम वर्ग को इन बदलावों के लिए आपस में ही सहमति बनानी होगी तभी हमारे प्रजातांत्रिक मूल्यों और संस्कृति की रक्षा हो सकेगी और देश में सर उठा रही तानाशाही ध्वस्त हो सकेगी.

 

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