आशुतोष: कांशीराम के थप्पड़ से केजरीवाल की बेरुखी तक

नई दिल्ली। आशुतोष पत्रकारिता से इस्तीफा देकर आप (AAP) में गए थे और अब ‘आप’ से इस्तीफा देकर एकांत में जा रहे हैं. उनका पहला फैसला क्रांति की संभावनाओं से पैदा हुआ था तो दूसरा फैसला क्रांति का पटाखा फुस्स हो जाने से निकला. जब उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा गया था, तभी से इस बात का अंदेशा था कि वे देर-सबेर उसी तरह की राजनैतिक वीरगति को प्राप्त होंगे, जैसे कि आम आदमी के बाकी संस्थापक सदस्यों को प्राप्त हुई.

पिछले कुछ दिन से वे जो ट्वीट कर रहे थे, उनमें एक किस्म की निराश या वैराग्य सा दिख रहा था. कभी वे शंकराचार्य की पुस्तक की चर्चा करते तो कभी दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद की चर्चा करते तो कभी हिटलर की मीन कैम्फ का जिक्र कर रहे थे.

किसी जमाने में नौजवान टीवी पत्रकार के तौर पर बसपा के संस्थापक कांशीराम से थप्पड़ खाने वाले आशुतोष की साख एक संवेदनशील और जुझारू पत्रकार की रही है. उनकी यही गंभीरता और पढ़ा-लिखापन उन्हें आम आदमी पार्टी तक ले गया और अंत में वहां से निकलने की वजह बना.

अगर गौर से देखें तो हर वह आदमी जिसका अपना वजूद था और जिसके पास अपना दिमाग था, आम आदमी पार्टी से या तो निकाल दिया गया या छोड़कर चला गया.

अन्ना हजारे को पार्टी से निकालने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि वह कभी पार्टी में आए ही नहीं. लेकिन पार्टी बनते ही केजरीवाल ने खुद को उनकी छाया से दूर किया. जैसे-जैसे आम आदमी पार्टी के पास ज्यादा वोटर आते गए, उसके संस्थापक सदस्य छंटते गए.

सबसे पहले पार्टी छोड़ने वालों में कैप्टन गोपीनाथ शामिल हैं. गोपीनाथ भारत में लो कॉस्ट एयरलाइन्स की शुरुआत करने वाले लोगों में से थे. इसके अलावा सुरजीत दासगुप्ता, सामाजिक कार्यकर्ता मुध भादुड़ी, हरियाणा में आप के स्तंभ रहे अश्वनी उपाध्याय, प्रोफेसर आनंद कुमार, प्रोफेसर अजीत झा, सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि दमानिया, दिल्ली हाइकोर्ट के वकील और स्कूलों के मुद्दे उठाने वाले अशोक अग्रवाल, संगीतकार विशाल डडलानी ने पार्टी छोड़ी.

योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का पार्टी छोड़ना तो सबने देखा ही है. वहीं कवि कुमार विश्वास पार्टी में होते हुए भी न होने जैसी स्थिति में बने हैं.

इन सब लोगों में एक बात कॉमन है कि ये सब लोग मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि के थे. यह आंदोलन की शुरुआत से आप में थे और नीति निर्धारण में अपनी बराबरी की भूमिका समझते थे. ये उन विचारों से चिपके हुए थे कि पार्टी में लोकतंत्र होगा और कोई आला कमान नहीं होगा. आखिर यही सब भाषण देकर तो अरविंद केजरीवाल दो बार दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे.

लेकिन कुर्सी पर पहुंचने के बाद उन्होंने वे सारी चीजें शुरू कीं, जिनका वे आंदोलनकारी के रूप में विरोध करते थे. ऐसे में ये सोचने समझने वाले चेहरे उनके यस मैन नहीं बन पाए. मजे की बात यह है कि इनमें से कई चेहरे एक-दूसरे को पार्टी से निकालने की वजह बने.

अगर याद करें तो प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को पार्टी से अपमानित कर निकालने की कमान एक तरह से कुमार विश्वास और आशुतोष के हाथों में ही सौंपी गई थी.

आशुतोष की विदाई के साथ आप का बौद्धिक सफाई अभियान पूरा हुआ दिखता है. अब आम आदमी पार्टी भारत की खांटी राजनैतिक पार्टी बन गई है. उसके ऊपर अब आंदोलनकारी होने की ‘तोहमत’ नहीं लगाई जा सकती. पार्टी के पास अब अपना एक आला कमान है और उसके इर्द-गिर्द चारण भाटों की टोली है. अब वह ठीक वैसी ही पार्टी है, जैसी पार्टियां भारत में चलती हैं. बेहतर होगा कि आशुतोष अब कुछ निजी रचनात्मक काम से जुड़ें, जो उनकी ऊर्जा को बचाए रखे.

 

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