इस बार क्यों है खास है यूपी का चुनाव

tahalka3_1_2लखनऊ। राम मंदिर आंदोलन की गर्माहट खत्म होने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति इसी वजह से एसपी-बीएसपी के बीच सिमट कर रह गई थी कि बाकी के दो दल बीजेपी और कांग्रेस बिल्कुल हाशिए पर चले गए हैं। वोटरों के दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि बीजेपी और कांग्रेस तो चुनाव जीत ही नहीं सकते। फ्लोटिंग वोटर केवल दो विकल्पों के तौर पर एसपी-बीएसपी में ही अदला-बदली किया करता थे। 2007 और 2012 के चुनाव ऐसे थे, जिसमें मतदान और नतीजे आने से पहले यह साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा था कि लड़ाई किन दो पार्टियों के बीच है और सरकार कौन बना रहा है। संशय इस बात पर था कि किसकों कितनी सीटें मिल रही हैं। लेकिन इस बार यूपी का चुनाव 4 वजहों से खास है :

(1) 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने बीजेपी को नई जान दी है। वह कार्यकर्ताओं और वोटरों के बीच यह मैसेज देने में कामयाब हो रही है कि वह विकल्प बन कर खड़ी हो गई है और राज्य में सरकार भी बना सकती है। यूपी जीतना बीजेपी के लिए अमित शाह और नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा बचाने के लिए जरूरी है। इस बार बीजेपी भी चुनाव जीतने के इरादे से लड़ती हुई नजर आएगी। पार्टी लीडरशिप अपरकास्ट और गैर यादव पिछड़ों को गोलबंद करना चाहती है। इसी नजरिए से बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष पिछड़ी जाति से बनाया है, जबकि सीएम के चेहरे के रूप में वह अपर कास्ट के किसी कैंडिडेट को आगे कर सकती है।

(2) करीब 3 दशकों से कांग्रेस यूपी में सत्ता से दूर है। 90 के दशक के बाद कभी भी यूपी जीतने के लिए इतना तैयार नहीं थी जितना इस बार लग रही है। इस बार पार्टी चुनावों को बिल्कुल फाइनल मानकर चुनाव मैदान में उतरी है। उसके लिए यह चुनाव अभी नहीं, तो कभी नहीं जैसा बन गया है। उसने प्रफेशनल एप्रोच वाले रणनीतिकार प्रशांत किशोर को हायर किया। कांग्रेस सीएम उम्मीदवार शीला दीक्षित के साथ मैदान में उतर रही है। साथ ही पार्टी को प्रियंका वाड्रा के प्रचार से भी काफी उम्मीदें हैं।

(3) यूपी में कांग्रेस युग की समाप्ति के बाद से कभी किसी दल की सरकार अगले चुनाव में रिपीट नहीं हुई। लेकिन एसपी ने अखिलेश यादव से करिश्मे की उम्मीद लगा रखी है। पिछली जीत में अखिलेश के चेहरे का सबसे बड़ा योगदान था, जो वहां की राजनीति में ताजा हवा के झोंके की मानिंद उभरे थे, लेकिन 5 साल सरकार चलाने के बाद सत्ताजनित नाराजगी का जो जोखिम हर मुख्यमंत्री के साथ होता है, वही अखिलेश के साथ भी है। अखिलेश यादव अपनी छवि ऐसे युवा नेता के रूप में स्थापित करने में लगे हैं, जिसके अजेंडे में विकास है और उन्हें कड़े फैसले लेने के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की कोई इजाजत की जरूरत नहीं रह गई।

(4) लोकसभा के नतीजों से पता चलता है कि दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के पाले में शिफ्ट हुआ है। इसके अलावा मायावती की पार्टी में पहली बार बगावत दिख रही है। बीएसपी के साथ आज की तारीख में दलितों में भी एक खास वर्ग के अलावा कोई ऐसी दूसरी जाति खड़ी दिखाई नहीं दे रही, जिसे बीएसपी का वोट बैंक कहा जा सके। कहा जा रहा है कि अगर मायावती इस बार अपने वोट बैंक का विस्तार करते हुए सत्ता पर काबिज नहीं पाईं जो फिर उनके आगे की राजनीतिक लड़ाई काफी मुश्किल भरी हो सकती है। पिछले कुछ दिन मायावती के लिए राजनीतिक फायदे के अच्छे साबित हुए। अगर बीएसपी यूपी के दलितों को फिर से एक कर पाई तो मायावती की सीएम की कुर्सी कोई नहीं छिन सकता।

 

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