ओडिशा की ये पारंपरिक डिश न खाई तो क्या खाया?

ओडिशा में पखाल भात तैयार करने का एक अनूठा  पारंपरिक उपाय है. रात के भात को परात में रख पानी से डुबा दिया जाता है. दूसरे दिन जब इस बासी भात में हल्का-सा खमीर चढ़ता है, तो बन जाता है ओडिशा का विशेष व्यंजन ‘पखाल भात’. इसे गर्मी  उमस के मौसम में सुपाच्य  पौष्टिक माना जाता था.
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डिशा का नाम सुनते ही जिस भोजन की याद आती है वह पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रसाद के रूप में तैयार किए जाने वाला छप्पण भोग है. बहुत कम लोगों को इस ऐतिहासिक प्रदेश के खानपान की विविधता की जानकारी है.

कभी कलिंग नामक महान साम्राज्य का एरिया रह चुका यह तटवर्ती एरिया दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ हिंदुस्तान में संपर्क स्थापित करने वाला द्वार रह चुका है  राष्ट्र के मर्मस्थल से जुड़े पड़ोसी प्रांतों के खानपान का असर भी यहां दिखाई देता है.

बहरहाल, बात यहां रियासतों-रजवाड़ों के दस्तरखान की नहीं हो रही  न ही आदिवासी विरासत की.हाल के दिनों में ओडिशा का ‘पखाल भोज’ सुर्खियों में छाया रहा है, जो एक दिलचस्प बात उजागर करता है- कैसे एडवरटाईजमेंट  सामाजिक मीडिया के दौर में गरीबों का मजबूरी का खाना संपन्न लोगों के मुंह में लार चुआने लगता है.

तब इसका बंगाली नाम था ‘पांथा भात’

कुछ साल पहले तक रात में भात को परात में रख पानी से डुबा दिया जाता था. दूसरे दिन इस बासी भात में हल्का-सा खमीर चढ़ जाता था. इसे गर्मी  उमस के मौसम में सुपाच्य  पौष्टिक माना जाता था. निगलने के लिए चुटकी भर नमक या अचार की जरा-सी फांक बहुत ज्यादा रहती थी. तब इसका बंगाली नाम था ‘पांथा भात’.

अभावग्रस्त पथिक-यात्री की भूख मिटाने का यह सबसे सहज सर्वत्र सुलभ साधन था. ओडिशा में इसे ही पखाल बोला  जाता है. कुछ दिन पहले जब एक मित्र ने रविवार के दिन अपने घर (दिल्ली में) ‘पखाल भोज’ की दावत दी, तो जरा अचरज हुआ.

मेजबान ने बहुत सारी मशहूर राजधानी के प्रवासी हस्तियों को भी बुलाया था. सभी इस बात को जानने को उतावले लग रहे थे कि उनकी पसंद के साथी उप-व्यंजन पखाल की संगत के लिए चुने गए थे या नहीं.

मेजबान का तामझाम बड़ा था- सामिष तथा निरामिष जोड़ीदारों में तली मछली, झींगे, बैंगन तथा आलू का भाजा, पटोल (परवल), प्याजी पकौड़े, कीमे के ‘चॉप’ तथा तरह-तरह के अचार छोटी-छोटी कटोरियों में सजे थे. संक्षेप में पखाल, तो बहाना था- वास्तविक मकसद  ओडिशी व्यंजनों की नुमाइश सजाना था.

हां, परंपरा के निर्वाह के लिए चुटकी भर नमक  कागजी नींबू के अचार की एक फांक अलग रखी गई थी. मेहमानों ने पखाल पर कम, इन दूसरी चीजों पर ज्यादा हाथ साफ किया. मिठाइयों में खाजा, छेना पोड़ा  गुड़ के रसगुल्ले थे. थोड़ा-थोड़ा चखने में ही पेट भर गया. एक मित्र ने फरमाया बस यही दोष है पखाल का. इसे खाने के बाद नींद आने लगती है.

दोष बेचारे पखाल का नहीं, अपनी नीयत का समझना चाहिए. कभी बंगाल, बिहार, ओडिशा एक ही प्रांत थे. तत्कालीन अविभाजित बंगाल में असम भी शामिल था  असम का ही भाग वह पूरा एरियाथा, जो आज सात अलग राज्यों में पुनर्गठित किया जा चुका है. किसी-न-किसी रूप में पानी भरे पात्र में रात भर रखे बासी चावल को बंगाल, असम तथा बिहार के कुछ देहाती इलाकों में भी खाया जाता है, पर अन्यत्र जगहों पर इसका महिमा मंडन पखाल की तरह नहीं किया जाता.

-पखाल भात को फ्राइड प्याज, जीरा, पुदीना पत्ते डालकर भी बनाया जाता है.
-इसे बंगाल, झारखंड में भी चाव से खाया जाता है. बंगाल में इसे ‘पांथा भात’ कहते हैं.
-‘पखाल भोज’ में भुनी हुईं सब्जियां जैसे आलू, बैंगन, साग भाजा या तली हुई मछली शामिल होती है.

 

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