औरंगजेब बनाम अब्दुल कलाम, बेवजह का विवाद

k-vikram-rao-journalistके. विक्रम राव, 
वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार

एक बेतुका बखेड़ा उठा है आलमगीर औरंगजेब बनाम अब्दुल कलाम के नाम से। दोनों के पैरोकार कम से कम एक पहलू पर गौर तो कर लें। बहुसंख्यकों की आस्था और अभिव्यक्ति की आजादी का औरंगजेब ने निर्ममता से दमन किया था। दूसरे व्यक्ति (अब्दुल कलाम) का विरोध अल्पसंख्यकों ने किया था क्योंकि वह शाकाहारी था। स्वामी शिवानन्द का प्रषंसक था। वीणा उसका प्रिय वाद्ययंत्र था। रामेष्वर मंदिर से उसके पिता जुड़े थे।

इसी परिवेश में जांच ले कि इस्लामी पाकिस्तान में मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर के नाम पर क्या कोई महत्वपूर्ण स्मारक हैं, जबकि लाहौर को उसने फतह किया था। उस पर शासन किया था। इसका गम्भीर कारण है। पाकिस्तान के नामी इतिहासकार इष्तियाक हुसैन कुरेशी ने नवस्थापित मजहबी गणराज्य के इतिहास में लिखा है कि बादशाह अकबर ने इस्लाम का विरोध किया था। मुगल साम्राज्य को कमजोर किया था। औरंगजेब ने इसके विपरीत इस्लाम को फैलाया है। काफिरों का नाष किया था। डाॅ. कुरेशी एटा (उत्तर प्रदेश) में जन्मे और अलीगढ़ मुस्लिम विष्वविद्यालय में पढ़े तथा पाकिस्तान संसद के सदस्य थे। विचारार्थ एक और तथ्य पेश है। कलकत्ता से नई दिल्ली ब्रिटिश राजधानी (1911) लाई गई तो वायसराय ने सड़कों को मुगल बादषाहों के नाम दिये, रखें, पहले अंग्रेजों के नाम रखने के बाद। यही मकसद था कि हिन्दू-मुस्लिम नफरत को गहराना। दो राष्ट्रों को पनपाना। इसमें इतिहास सबसे सरल माध्यम है। गनीमत है कि गोरे शासकों ने दिल्ली को तबाह करने वाले तथा एक लाख लोंगों को मार डालने वाले तैमूरलंग अथवा लुटेरे नादिरषाह और अहमदशाह अब्दाली के नाम सड़कों को नहीं दिये। आज पाकिस्तान इन डाकुओं के नाम से घातक प्रक्षेपास्त्र बना रहा है। विभाजन के बाद कराची और लाहौर में हिन्दुओं के नाम पट्ट बदल दिये गये। स्वाधीनता सेनानी पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का नाम मिटा दिया गया। कई उदाहरण ऐसे मिलेंगे।

मान भी लें कि पाकिस्तान की दकियानूसी और हठधर्मी सोच से भारत मुक्त है, अलग है। पर ऐसी ब्रिटिश साम्राज्यवादी हरकतों का अन्त करने के उपाय भी तो खोजे जा सकते हैं। मांग उठी है कि औरंगजेब ने कष्मीरी ब्राह्मणों के रक्षक गुरू तेग बहादुर का सर कलम कर चांदनी चैक में गड़वा दिया था, अतः इस हत्यारे के नाम की जगह शहीद गुरू तेग बहादुर मार्ग कर दिया जाय। यदि यह बात कथित प्रगतिवादी सेक्युलर चोगा ओढ़नेवाले और साझी विरासत के दावेदार जन न भी मानें, तो भारतीय, खासकर मुगल युग के त्रासद पात्र बादशाहजादा-ए-बुजुर्ग मर्तबा, जलालुद्दीन कादिर, सुल्तान मोहम्मद दारा शिकोह, शाहे बुलन्द इकबाल के नाम ‘वली अहद दारा षिकोह मार्ग’ रखा जा सकता है। विष्व के सर्वाधिक महंगे तख्ते-ताउस का यह असली हकदार अपने कट्टर, पितृहन्ता अबुल मुजफ्फर मोहिउद्दीन मोहम्मद औरंगजेब द्वारा मार डाला गया था। दारा का सर कलम कर आगरा किले में कैद वृद्ध बादशाह शाहजहां को एक तष्तरी में औरंगजेब ने पेष किया था। धड़ को हाथी से रौंदवा कर परदादा के पिता हुमायूं की कब्र में दफना दिया। अपने सगे भतीजे की भी हत्या कर दी ताकि गद्दी का कोई दावेदार न रहे।

अर्थात मसला दारा बनाम औरंगजेब हो जाता तो फिर किसी भी सेक्युलर भारतीय को गिला शिकवा न रहता। हां, औरंगजेब के कुछ सहधर्मी सुन्नी मुसलमान अवष्य नाराज हो जाते। लेकिन एक ऐतिहासिक नाइंसाफी का अन्त तो हो जाता। इतिहास केवल विजयी व्यक्ति की कारगुजारियों का लेखा-जोखा रहा है। पराजित के लिए एक ही विस्मायाधिबोधक शब्द होता हैः ‘‘आह!’’ यदि हार कभी जीत में बदल जाती है तो यही शब्द‘‘वाह’’ हो जाता है। दारा षिकोह के लिए बादशाहत कोई मायने नहीं रखती थी, क्योंकि मानव चिन्तन में जिस ऊंचाई पर वे पहुंच गये थे, ढुनियावी मामले अपने अर्थ और उपादेयता खो चुके थे। उनका नाम ही पिता षाहजहां ने ईरान के सम्राट डेरियस पर रखा था। सिकन्दर को भारत के उस पार रोकने वाले डेरियस महान थे। किन्तु एक पराजित शासक के रूप में इतिहास में दर्ज है। दारा भी वैसा ही रहा। उसे राजयोग ने अन्ततः छोड दिया। वह मुल्तान से अहमदाबाद तक के इलाकों का सूबेदार रहा। आष्चर्य कि एक ही मां के कोख से जन्मे दो बेटे कितने जुदा थे। औरंगजेब द्वारा तीन भाइयों की हत्या, सगी बहन रोषनारा को जहर देना, पिता को कैद करना और मौत देना, यह किसी अल्लाह के नेक बन्दे का काम नहीं हो सकता। तुलना कीजिए दोनों भाइयों में। मथुरा के केषवराय मंदिर (श्रीकृश्ण जन्म स्थान) में युवराज दारा शिकोह ने तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा के लिए लोहे की छड़ और जाली की रेलिंग बनवाई थी। मगर औरंगजेब ने अपने सैनिकों को भेजकर मंदिर ढहा दिया। ईदगाह बनवा दिया। हिन्दुओं को उनकी आस्था और पूजा से वंचित कर दिया। दारा शिकोह काशी में संस्कृत पढ़ने और धर्मग्रंथों का मनन करने गया। उसके शिक्षक थे वे विप्र जिनके वंषज थे स्वाधीनता सेनानी और कांग्रेसी पुरोधा पंडित कमलापति त्रिपाठी। औरंगजेब ने भी काशी में रुचि ली कुछ अलग तरीके से। उसने मुगल फौज द्वारा धावा बोलकर बाबा विश्वनाथ के मंदिर को तोड़ डाला। ज्ञानवापी मस्जिद बना डाली। एक बार भारत सरकार के अधिकारी देश के श्रमजीवी पत्रकारों को काषी ले गये। लक्ष्य था राष्ट्रीय एकीकरण का प्रचार करना। लौटकर उन लोगों ने लिखा कि काशी का नजारा देखकर कौन एकता की कल्पना कर पायेगा।

दारा के निजी जीवन पर दृष्टि डालें। एक ही पत्नी थी। उनका नाम था नादिरा। बेटे हुए पर औरंगजेब के सिपाहियों ने कत्ल कर डाला। धर्म और महजब पर सामंजस्य के लिए दारा मषहूर रहे। मियां हजरत पीर के शिष्य मुल्ला षाह से इस्लाम पढ़ा। यही मीर थे जिनसे अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की नींव डलवाई गई थी। दारा जब उपनिशदों की फारसी में अनुवाद करते तो पहले बिस्मिल्लाह जपते थे। खुदा के प्रति समर्पित भाव था। अपने परदादा मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर द्वारा चलाये सुलह कुल (सबसे शांति) के आन्दोलन को दारा ने आगे बढ़ाया। वहीं सर्व धर्म सम भाव की भावना थी। इसे औरंगजेब ने इस्लाम विरोधी करार देकर अपने अग्रज पर काफिर होने का इल्जाम आयद किया। जिसकी सजा मौत होती है। दारा भारतीय अदीबों के प्रिय विषय रहे। महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी ने एक काव्य नाटिका दारा पर लिखी। फिल्म निदेशक एम.एस. सत्यू ने 2008 में अपना लोकप्रिय नाटक दारा पर मंचित किया। पाकिस्तानी नाटककार शाहिद महमूद नदीम ने अजोबा रंगमंच से दारा की त्रासदी पेष की थी।

एक प्रासंगिक तथ्य का उल्लेख कर दूं। दिल्ली के औरंगजेब मार्ग का नाम बदलकर दारा षिकोह के नाम करने की मांग पाकिस्तान के बुद्धिकर्मियों ने उठाई थी। कराची में जन्मे, आजकल कनाडा में बसे तारेक फतेह ने कई वर्षों से औरंगजेब के नाम पर सड़क को मिटाने की मांग उठायी थी। वे चाहते थे कि दारा षिकोह के नाम पर राजधानी में कोई स्मारक हो। यह होना भी चाहिए था क्योंकि शाहजहां के समय प्रयाग के गवर्नर रह कर दारा शिकोह ने गंगा-जमुनी तहजीब को बढ़ाया था। तारेक ने इंटरनेट पर संदेश भेेजा कि ज्यों ही उन्होंने सुना कि औरंगजेब का नाम मिटा दिया जायेगा और अब्दुल कलाम के नाम सड़क हो जायेगी तो वे अपने कनाडाई घर में रात को ही लुंगी पहने ही भांगड़ा नाचने लगे।

अब मोदी सरकार से अपेक्षा है कि यदि वह बहुलतावादी समाज में यकीन करते हों। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना के दर्षन को मानते हों, तो इस महान दार्शनिक दारा षिकोह का स्मारक दिल्ली में बनवायें।

 

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