कठुआ का कठोर सच, सियासत और मीडिया !

उर्मिलेश

उत्तर प्रदेश में उन्नाव के बलात्कार-कांड और दरिंदगी की शिकार बताई जा रही लड़की के पिता की नृशंस हत्या को लेकर जब हमारी सियासत और मीडिया में कुछ ‘तूफान’ उठा तब जाकर जम्मू के कठुआ का बलात्कार-हत्याकांड भी राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया। गुरुवार को दिल्ली में छात्र-युवाओं और कुछ नागरिक अधिकाार संगठनों ने इस पर प्रदर्शन किया। उधर, जम्मू में वकीलों के एक कथित राष्ट्रवादी समूह ने आरोपपत्र दाखिल करने अदालत की तरफ जा रहे पुलिसकर्मियों को जबरन रोकने की कोशिश की। यह सब अप्रैल के दूसरे सप्ताह की बात है, जबकि कठुआ की घटना अब से चार महीने पहले जनवरी के दूसरे सप्ताह की है। जनवरी से मार्च के बीच इस घटना को लेकर राष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा चर्चा नहीं थी। द ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस और द वायर जैसे कुछेक मीडिया संस्थानों ने ही इस घटना को लेकर समय-समय प्रमुखता से खबर छापी। पर अब देश के प्रमुख निजी टीवी चैनल भी इस पर खबरें दे रहे हैं। कठुआ का सच वाकई बेहद कठोर और क्रूर है।

विडम्बना है कि अब भी कुछ लोग इस आपराधिक घटना को धर्म-संप्रदाय के चश्मे से देखने में लगे हैं। शायद कुछ लोगों की ऐसी आदत हो गई है! जम्मू से दिल्ली तक एक हलके में अब भी कठुआ गैंग और हत्याकांड के संदर्भ में यही प्रवृत्ति देखने को मिल रही है! यह आपराधिक घटना किसी जाति या मजहब के बीच टकराव से नहीं जुड़ती। यह अलग बात है कि कुछ सांप्रदायिक तत्व इसे अब भी सांप्रदायिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। तक जो बात सामने आई है कि बलात्कारी और हत्यारों को जम्मू क्षेत्र के कुछ ‘हिंदुत्वा-मनुवादी संगठनों’ द्वारा संरक्षण दिया जा रहा है, जो बेहद अफसोसनाक और खौफनाक है। पर मेरा मानना है कि इसके बावजूद अभियुक्तों की पहचान ‘अपराधी और उपद्रवी तत्वों’ के रूप में ही होनी चाहिए न कि ‘हिंदू’ रूप में! सोशल मीडिया पर कुछ ‘नासमझ किस्म के सेक्युलर’ लोगों की टिप्पणियों में बार-बार अपराधियों की ‘हिंदू’ पहचान बताई जा रही है। यह मूर्खतापूर्ण और खतरनाक प्रवृत्ति है, जिसका फायदा ‘हिंदुत्वा-मनुवादी संगठन’ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में कर सकते हैं! अपराधी घृणित-किस्म के खुराफ़ाती और समाज विरोधी तत्व थे। उन्हें किसी जाति या धर्म की पहचान नहीं दी जानी चाहिए। हां, उनके संरक्षक ‘हिंदुत्वा मनुवादी’ जरुर हैं!

दूसरी बात कि वह आठ साल की बच्ची इलाके में रहने वाले बक्करवाल परिवार से थी। संयोगवश, जम्मू-कश्मीर में गूजर और बक्करवाल सौ फीसदी मुस्लिम समुदाय के हैं। गूजर और बक्करवाल में एक बारीक सा फर्क है, जो लोग अपने मवेशियों, बकरी और भेड़ आदि के साथ घूमंतू जीवन बिताते हैं, उन्हें बक्करवाल कहा जाता है और जो सरहदी या अन्य पहाड़ी इलाकों स्थायी तौर पर बसे हैं, वे गूजर कहे जाते हैं। पर दोनों बिरादरियां काफी हद तक एक सी हैं।

इस बात को रेखांकित करना भी जरूरी है कि कुछ खास निहित स्वार्थी तत्वों की इस घटना के पीछे साज़िश जान पड़ती है, जो घुमंतू बकरवाल लोगों को वहां की जमीन से बेदखल करने की लंबे समय से कोशिश करते आ रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं किन्हीं लैंड माफिया गिरोह के इशारे पर बलात्कारी-हत्यारों ने एक मासूम बच्ची का पहले अपहरण किया। उसे एक धार्मिक परिसर में कैद करके रखा गया। बच्ची के साथ लगातार बलात्कार किया जाता रहा और अंत में मार डाला गया। धर्म की छाया में आपराधिक क्रूरता का तांडव!

इस नृशंस आपराधिक घटना के पीछे आर्थिक और जमीन कब्जा का भी एक पहलू नजर आता है। मुझे लगता है अपराध के पीछे की तमाम वजहों की ठीक से पड़ताल होनी चाहिए। जम्मू कश्मीर में फारेस्ट एक्ट लागू नहीं है। राज्य सरकार ने भी अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की। इससे जंगलात की जमीन पर बड़े व्यवसायियों, खासकर जमीन-जायदाद के धंधेबाजों के लिए कब्जा जमाना आसान हो गया है। संभव है, पड़ताल में ऐसा कोई तात्कालिक कारण या पहलू उजागर नहीं हो पर जम्मू इलाके में यह एक समस्या जरूर है। भविष्य में ऐसी किसी भी घृणित घटना को रोकने के लिए शासन, उच्च जांच एजेंसियों, न्यायालय और मानवाधिकार आयोग को अपराध के इस खास आर्थिक-व्यवसायिक कोण और वन्य इलाके में भूमि हड़प के खास पहलू पर भी ध्यान देना चाहिए।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के ब्लॉग से )

 

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