कर्नाटक के बाद अब MP, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में दिखेगा बीजेपी का ‘ग्राउंड गेम’

नई दिल्ली। कर्नाटक विधानसभा के नतीजे बहुतों के लिए दिल तोड़ने वाले साबित हुए. सोचा तो यही जा रहा था कि कम से कम कर्नाटक में कांग्रेस इस हालत में है कि कोई उसे डिगा नहीं सकता. ऐसा सोचने वाले में कुछ वो भी थे जो कांग्रेस समर्थक वोटर तो नहीं लेकिन जो बीजेपी की विचारधारा से परहेज रखते हैं या फिर डरते हैं.  कुछ गैर-कन्नड़भाषियों का दिल भी चुनाव के नतीजों की तरफ लगा हुआ था और उन्हें भी निराशा हुई है.

दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि देश नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सही दिशा में बढ़ रहा है और ऐसे लोग खुशी मनाएंगे कि एक और सूबे की जनता ने उनकी राय पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी है.

शुरुआती तौर पर तो यही लगता है कि चुनाव के नतीजे वैसे ही हैं जैसा कि उम्मीद की जा रही थी. साल 2014 के चुनावों में बीजेपी ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया था और 28 में से 17 सीटें उसकी झोली में गई थीं. साल 2018 में बीजेपी ने कमोबेश वही प्रदर्शन दोहराया है और इससे जाहिर होता है कि जिस सूबे में कांग्रेस बढ़त पर थी वहां भी बीजेपी ने अपनी लोकप्रियता बरकरार रखने में कामयाबी पायी और इस चुनाव ने इस बात को साबित किया है.

जज्बातों को एक किनारे करते हुए हमारा काम पूरी निष्पक्षता से यह देखने का है कि दरअसल ऐसा हुआ क्योंकर हो सका. आखिर ऐसा क्यों हुआ कि कांग्रेस का वोट शेयर तकरीबन बीजेपी के बराबर ही है तो भी कांग्रेस चुनाव हार गई? इस बात की व्याख्या में कई बातों का ध्यान रखना होगा और इनमें से ज्यादातर बातें अनुमान के दायरे में आती हैं.

मिसाल के लिए अब हम सत्ता-विरोधी लहर यानि एंटी-इन्कंबेसी जैसे मुहावरे का इस्तेमाल पहले की तरह बाआसानी नहीं कर सकते क्योंकि इसका असर ना तो पश्चिम बंगाल में दिखा ना ही ओडिशा या फिर उत्तर और पश्चिम भारत के बहुत से उन राज्यों में जहां बीजेपी सत्ता में है.

मैं यहां सिर्फ इसके एक पहलू पर जोर देना चाहूंगा जिसे अमेरिकी लोग अपनी खास शैली में ग्राउंड गेम का नाम देते हैं.

कर्नाटक चुनाव के अंतिम नतीजों के आने में इतनी देरी(आधुनिक ईवीएम मशीन के एतबार से देखें तो) लग रही है तो इसलिए कि बहुत से विधानसभाई निर्वाचन-क्षेत्रों में मुकाबला कांटे का था. ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में जीत-हार में अंतर मात्र कुछ हजार वोटों का है. ऐसा अन्तर ग्राउंड गेम से पैदा होता है.

कोई दल, मिसाल के लिए कर्नाटक में कांग्रेस, होड़ में आगे दिखने के बावजूद बाआसानी चुनाव हार सकती है क्योंकि उसके पास हासिल समर्थन को वोट में तब्दील करने के लिए जरुरी ढांचा नहीं होता. पार्टी जहां ऐसा कर पाने में सक्षम है, मिसाल के लिए पंजाब में, वहां उसे जीत हासिल होगी लेकिन बाकी जगहों पर उसके पैर रपट जायेंगे, जमीनी स्तर पर मौजूदगी ना होने के कारण उसे मुंह की खानी पड़ेगी.

siddharamaih

सिद्धारमैया ने चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के वक्त में आत्मविश्वास दिखाया और यह कोई दिखावे की वीरता नहीं थी. अपनी उपलब्धियों और पार्टी की रैली में लगायी गई ऊर्जा को देखते हुए उन्हें सचमुच यकीन था कि वे दौड़ में आगे चल रहे हैं. लेकिन मसलों का फैसला किस जगह पर होता है ?

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जमीनी स्तर के कार्यकर्ता सेवादल के तहत संगठित हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी और आरएसएस के बनने के कुछ महीने पहले ही सेवादल बन चुका था.

कांग्रेस पार्टी की वेबसाइट पर सेवादल को युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस, इनटक(श्रमसंगठन) तथा छात्र-संगठन एनएसयूआई के साथ पार्टी के अग्रणी संगठन में शुमार किया गया है.

वेबसाइट पर सेवादल का लिंक खोलें तो एक पन्ना खुलता है जिसपर इसके मौजूदा नेता लालजी देसाई का नाम लिखा है. इसके अलावा पन्ने पर सदस्यता, संख्या या गतिविधि के बारे में और कोई ब्यौरा नहीं लिखा. मीडिया में ढूंढ़ो तो वहां भी कुछ ऐसा नहीं मिलता जिससे पता चले कि सेवादल इन दिनों क्या करता रहा है? किसी भी तरह से देखें तो निकलकर यही आता है कि सेवादल बस नाम भर को चल रहा है. इसका मतलब हुआ कि कांग्रेस के नेता को, चाहे वह विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लड़ रहा हो या फिर नगरनिगम का, अपने बूते कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों की टोली तैयार करनी होगी. इन लोगों को वो सारे सहायक काम करने होंगे जो किसी राजनेता को करने होते हैं साथ ही उन्हें  चुनाव से जुड़ी जिम्मेदारी भी निभानी होगी. इन कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों को बनाये रखने का जिम्मा पार्टी को नहीं बल्कि नेता को उठाना पड़ता है. आजादी के बाद के वक्त में सेवादल बिखरता चला गया. इसका मतलब हुआ कि कांग्रेस को वह कस-बस हासिल ही नहीं जो कभी उसको ताकत दिया करता था.

दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देखें जो दुनिया का सबसे बड़ा गैर सरकारी संगठन है. इसके पांच लाख से ज्यादा सक्रिय सदस्य हैं और इस तादाद की एक बड़ी संख्या संघ के कामों या फिर संघ के समर्थन वाली गतिविधियों को अंजाम देने में लगी है. ऐसे कामों में एक है सामुदायिक स्तर पर लोगों को लामबंद और संगठित करने का काम. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह बेशकीमती दौलत की तरह है. कार्यकर्ता दौड़ के आखिर के लम्हे में निर्णायक साबित होते हैं, वे अपनी मेहनत से सुनिश्चित करते हैं कि काम पूरा हो ही जाय. किसी चुनाव-अभियान में भाषणों के हो जाने और घोषणापत्रों(जो अनपढ़े ही रह जाते हैं) के लिखे और जारी किए जाने के बाद भी बहुत सारा काम बचा रहता है.

अमेरिकी राजनीति में इसे ग्राउंड गेम कहा जाता है. इसमें आपको उन लोगों की पहचान करनी होती है जो आपको वोट दे सकते हैं, उनसे जुड़ना और संवाद करना होता है, उन्हें मतदान केंद्र तक लाना होता है.

देश की ज्यादातर पार्टियां इस काम में फिसड्डी हैं. हां, अपवाद के तौर पर एक बीजेपी ही है जिसे इस काम में महारत हासिल है और इसकी वजह हैं बीजेपी के कार्यकर्ता जो दुनिया के किसी भी लोकतंत्र के लिहाज से बेजोड़ कहे जायेंगे. स्वयंसेवा का भाव मध्यवर्ग/अगड़े तबके के समर्थकों में भी मौजूद है. इस तबके के बहुत से लोगों ने 2014 के चुनाव-अभियान में भाग लिया (और इस तबके के बहुत से लोग 2019 के चुनाव में भी शिरकत करेंगे)

आप चाहे उनकी विचारधारा के बारे में जो भी सोचें लेकिन एक बात पक्की है- इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दुत्व की राजनीति के समर्थक चाहे वे जिस भी वर्ग के हों, अपने उद्देश्यों को लेकर समर्पित होते हों, उनमें अपने अपने मकसद को लेकर एक निष्ठा होती है. और अन्तर इसी बात से पैदा होता है.

narendra modi

चुनाव में कई चीजें अपना जोर दिखाती और असर डालती हैं- प्रधानमंत्री की छवि का जादू अपना काम करता है, आर्थिक मोर्चे के हालात, समाचारों के सहारे बनने वाली सियासी कहानी, उम्मीदवार के पैसे खर्च करने की ताकत और इच्छा और जातियों का वह समीकरण जो पार्टी को परंपरागत रूप से समर्थन देता रहा है—इन सारी ही बातों का असर होता है.

लेकिन निष्ठावान कार्यकर्ता तैयार करना और उनके भीतर राजनीति के लिए जरूरी आदर्शवाद जगाना-एक ऐसी बात है जिसपर चर्चा नहीं होती, उसे चुनावी जंग की जरूरी चीज नहीं माना जाता. पार्टी की अंदरूनी चीज होना भी इसकी एक वजह हो सकती है, शायद इसलिए मानकर चला जाता है कि कार्यकर्ता तो होंगे ही.

जैसा कि लेख में पहले जिक्र आ चुका है, बीजेपी के पास उन राज्यों में भी सरकार बनाने की कूवत है जहां उसका पिछले पंद्रह सालों से शासन चला आ रहा है. पश्चिम और उत्तर भारत के एक बड़े इलाके में पार्टी ने इस बात को साबित कर दिखाया है. इनमें से दो राज्यों, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान में पार्टी अगले कुछ महीनों में चुनावी मुकाबले में उतरेगी. अगले लोकसभा चुनावों को लेकर चलने वाली चर्चा और ‘ऐसा होगा-वैसा ना होगा’ जैसी अटकलबाजी का केंद्र अब कर्नाटक से हटकर जल्दी ही इन राज्यों में कायम होने जा रहा है.

 

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