कर्नाटक को रोजगार की बजाय नया धर्म देना सिद्धरमैया पर भारी न पड़ जाए

श्रीनिवास प्रसाद 

यह बात तो बिल्कुल जानी-समझी है कि कांग्रेस वोट पाने के लिए अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करती आई है. इसने भारत को कई दशक पीछे धकेल दिया और देश का सामाजिक ताना-बाना तहस-नहस हुआ. सन् 1980 के दशक में हिंदु पुनरुत्थानवाद और बाद के वक्त में हिंदुवादी ताकतों का उभार इसी का नतीजा है. भारत की राजनीति और समाज के बिखराव और टूट से बेखबर अपने चुनावी सफर की बेचैनी में कांग्रेस एक कदम और आगे निकलना चाहती है या कह लें देश को हजार कदम और ज्यादा पीछे ढकेलने में लगी है- वह नए अल्पसंख्यक समुदाय गढ़ना चाहती है.

सोमवार के दिन कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की सूबे की अगड़ी जाति में शुमार लिंगायत को एक अलग धर्म-समुदाय बनाने की पहलकदमी इसी का नमूना है. कर्नाटक में जरुरत बुनियादी ढांचा तैयार करने और रोजगार के अवसर जुटाने की है ना कि वहां कोई नया धर्म बनाने की.

लिंगायत को नया धर्म बनाना कांग्रेस के लिए ही उल्टा न पड़ जाए

लिंगायत समुदाय के कुछ लोगों ने किसी वक्त अलग धर्म-समुदाय बनाने की मांग की थी और इस मांग को ठुकराए और भुलाए आज एक जमाना हुआ. लेकिन मुख्यमंत्री ने आखिरकार केंद्र को यह सिफारिश भेजने की बात मान ली है कि लिंगायत समुदाय को एक अलग अल्पसंख्यक धर्म-समुदाय माना जाए और ऐसा करके उन्होंने विधानसभा चुनाव के ठीक दो महीने पहले ततैया के छत्ते में हाथ डाल दिया है. अब यहां यह कहने की जरा भी जरुरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे उनका असली मकसद क्या है.

सिद्धरमैया के समर्थक मानकर चल रहे हैं कि ऐसा करके उनके नेता ने बीजेपी की बिसात पलटने के लिए तुरुप का पत्ता फेंका है क्योंकि बीजेपी लिंगायत समुदाय को अपना मुख्य जनाधार मानकर चल रही है. लेकिन सिद्धरमैया के समर्थकों का ऐसा सोचना ख्याली पुलाव पकाना साबित हो सकता है. बेशक सिद्धरमैया के इस दांव से बीजेपी थोड़े पसोपेश में आ गई है लेकिन यह दांव कांग्रेस के लिए भी उल्टा पड़ सकता है क्योंकि उसकी छवि एक तो पहले से ही हिंदू-विरोधी पार्टी की है और इस कदम के बाद कांग्रेस के बारे में यह धारणा बन सकती है कि वह हिंदूओं के बीच फूट डालने वाली पार्टी है.

भारत की सांप्रदायिक राजनीति के ताने-बाने बहुत जटिल हैं और इस जटिल सियासत के भीतर किसी एक जाति को खुश करने की कोशिश करो तो बहुत संभव है कि दूसरी जाति आपके मुखालिफ हो जाए. ऐसी राजनीति में सभी समुदायों को खुश करने का मतलब एक तनी हुई रस्सी पर चलने के समान होता है. यह डर हमेशा लगा रहता है कि जरा भी पांव डगमगाए तो गिरना निश्चित है. ध्यान यह भी रखना होगा कि खुद लिंगायत समुदाय के भीतर दो फिरके हैं: कुछ को लिंगायत कहा जाता है तो कुछ को वीरशैव. सरकार की बनाई समिति ने सिर्फ लिंगायत फिरके को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश की थी. लेकिन सरकार ने वीरशैवों को भी अल्पसंख्यक का दर्जा देने की बात इस सिफारिश के भीतर शामिल मान ली. बहुत मुमकिन है कि ऐसा करने से लिंगायत समुदाय के एक तबके की भावनाओं को चोट पहुंची हो.

इसमें कोई शक नहीं कि अल्पसंख्यक धर्म-समुदाय का दर्जा देने की बात से इस तबके के कुछ नेताओं और उनके पिछलग्गुओं को बेहद खुशी होगी क्योंकि ये लोग कैपिटेशन फीस के नाम पर मोटी रकम वसूलने वाले कई शिक्षा-संस्थान चलाते हैं. अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने से ये लोग ईसाइयों और मुसलमानों की तरह फायदे और विशेषाधिकार की फसल काटेंगे. लेकिन पिछले चुनावों से यह बात साबित हुई है कि शिक्षा की दुकान चलाने वाले इन बड़े खिलाड़ियों का अपने समुदाय के चुनावी बरताव पर कोई असर नहीं है. साथ ही, यह कदम मौजूदा अल्पसंख्यकों के भीतर असुरक्षा और बेचैनी के भाव पैदा कर सकता है. कुछ मुस्लिम नेताओं के बयानों से यह बात जाहिर भी हुई है.

बेवकूफी भरा कदम…

कांग्रेस के इस कदम से चार्ली चैप्लिन का कहा याद आया. चार्ली चैप्लिन ने कहा था: ‘नाकामी की कोई अहमियत नहीं. साहस की जरुरत तो खुद को बेवकूफ बनाने में होती है…’ कहावत है कि जहां जाने से पहले बड़े-बड़े सूरमा के पसीने छूट जाए वहां मूर्ख बेखटके दौड़ पड़ते हैं. या फिर इसे विनाश काले विपरीत बुद्धि का नमूना माना जाए?

सिद्धरमैया इस बेतुके विचार पर कुछ दिनों से सोच-विचार कर रहे थे लेकिन इसी बीच तीन माह पहले हुए गुजरात विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन में अच्छा-खासा सुधार आया और शायद इसी वजह से पार्टी ने इस विचार को औपचारिक रुप देने की बेवकूफाना हरकत की.

गुजरात में कांग्रेस ने वादा किया था कि वह अगड़ी जाति में शुमार पाटीदारों को पिछड़ी जाति में शामिल करेगी. पाटीदारों को इस वादे का खोखलापन समझ में आ गया. वे जान गये कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की जो अधिकतम सीमा निर्धारित की है, यह उसके विरुद्ध है और न्याय की तुला पर कांग्रेस के इस वादे का टिकना मुश्किल है. हां, कांग्रेस को इस वादे के सहारे कुछ सीटें जीतने में मदद जरुर मिली लेकिन पार्टी आखिरकार चुनाव हार गई.

क्या लिंगायत कर्नाटक के पाटीदार हैं?

कांग्रेस कर्नाटक के लिंगायत के साथ वही पुराना खेल आजमा रही है. पाटीदारों की तरह लिंगायत के बारे में भी आम धारणा है कि ये लोग अगड़ी जाति के हैं. लेकिन पाटीदारों के विपरीत, लिंगायतों को पांच फीसद का आरक्षण हासिल है. इसलिए कांग्रेस ने उन्हें सीधे-सीधे अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने का खेल रचा है.

जैसा कि पाटीदारों के साथ हुआ था, इस मामले में भी वादे को सिफारिश की शक्ल में पेश किया गया है और केंद्र को उस पर विचार करना है. अगर केंद्र सरकार प्रस्ताव को मान लेती है तो कांग्रेस इसका श्रेय लेगी. अगर केंद्र सरकार सिफारिश को नामंजूर करती है तो कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा लिंगायत समुदाय से आने वाले कर्नाटक बीजेपी के अध्यक्ष बीएस येद्दुरप्पा को दोष देगी. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या लिंगायत या कह लें इस समुदाय के ज्यादातर लोग सिद्धरमैया के प्रस्ताव से अभी मारे खुशी के नाच रहे हैं और क्या वे अपने ऊपर किए गये इस उपकार का बदला चुकाने के लिए आने वाले विधानसभाई चुनाव में कांग्रेस को एकमुश्त वोट डालेंगे? इस सवाल का कोई साफ उत्तर अभी नहीं दिया जा सकता.

लिंगायत कौन हैं?

कर्नाटक में लिंगायत की तादाद कितनी है, इसे लेकर कोई एक राय नहीं मिलती. जातिवार जनगणना को हुए अब 87 साल बीत चुके हैं. यह कर्नाटक राज्य के निर्माण और देश की आजादी के पहले की बात है. नई जाति जनगणना के अभाव में यह मानकर चला जाता है कि सूबे की आबादी में लिंगायत की तादाद तकरीबन 17 फीसद के आसपास है. राजनीति के विश्लेषकों को यही आंकड़ा सालों से घनचक्कर में डालता रहा है.

लेकिन अगर तथाकथित ‘सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना’के तथ्यों को मानें तो लिंगायत की तादाद सूबे की आबादी में महज 9.8 प्रतिशत है. सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के लिए सिद्धरमैया ने 2015 के अप्रैल में आदेश जारी किए थे. इस जनगणना पर तकरीबन 150 करोड़ रुपए का खर्च आया और इस जनगणना के लिए 1.3 लाख कर्मचारी कर्नाटक के 1.4 करोड़ परिवारों के घर तक पहुंचे. कर्नाटक में राजनीतिक रुप से ताकतवर दूसरा बड़ा समुदाय वोक्कालिंगा है. लेकिन नई गणना में इस समुदाय की तादाद भी सूबे की आबादी में 8.2 फीसद बतायी गई है ना कि 12 प्रतिशत जैसा कि अबतक माना जाता रहा है.

सिद्धरमैया पिछड़ी जाति कुरुबा से आते हैं और अगर उनका विचार दलितों को कर्नाटक का एकमात्र सबसे बड़ा जाति-समूह साबित करते हुए उसके लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने का था तो फिर इसमें उन्हें निराशा हाथ लगी है. सिद्धरमैया अपने को बेमिसाल ‘अहिन्दा’ नेता के तौर पर पेश करने में लगे थे. अहिन्दा शब्द कन्नड़ भाषा में आने वाले अल्पा-संख्यातारा (अल्पसंख्यक), हिन्दूलिदा (पिछड़ी जाति) और दलित शब्द का संक्षेपाक्षर है. कांग्रेस समेत हर दल के वोक्कालिंगा तथा लिंगायत समुदाय के विधायकों ने आबादी में अपने समुदाय के कम अनुपात के सवाल पर खूब बवाल मचाया. इस कारण सिद्धरमैया को सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के निष्कर्ष सार्वजनिक करने के फैसले से मजबूरन अपने कदम पीछे खिंचने पड़े.

लिंगायत चाहे कर्नाटक की आबादी में 17 फीसद हों या फिर 9.8 प्रतिशत लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देने से चुनाव में जीत की गारंटी नहीं हो जाती.

सत्ताविरोधी जन-भावना पर सब कुछ निर्भर

कर्नाटक में होने जा रहा चुनाव मुख्य रुप से नरेंद्र मोदी और एक हद तक खुद सिद्धरमैया की छवि से बावस्ता है. आप राहुल गांधी या फिर किसी और नेता की बात मन से निकाल दीजिए. अगर एक व्यापक फलक पर देखें तो चुनाव के नतीजे इस बात पर निर्भर करते हैं कि सत्ताविरोधी जन-भावना क्या रुप लेती है. कर्नाटक में फिलहाल केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और सूबे की सिद्धरमैया सरकार को लेकर ‘एंटी- इन्कम्बेंसी’ की भावना है और सूबे की कांग्रेस की सरकार ने लोगों को लुभाने के लिए सामाजिक कल्याण की योजनाओं का पिटारा एकदम से खोल दिया है.

सिद्धरमैया के हक में होगा कि वे जातिवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति पर निर्भर ना रहते हुए पूरे भरोसे के साथ लोगों को यह बताना शुरु करें कि उन्होंने कर्नाटक के विकास के लिए क्या-क्या किया है. सिद्धरमैया के विरोधी कहते हैं कि उन्होंने कर्नाटक के विकास के लिए बहुत कम काम किए और बेंगलुरु समेत सूबे की बाकी जगहों पर खस्ताहाल होता बुनियादी ढांचा इस बात की मिसाल है कि सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है. विकल्प के तौर पर सिद्धरमैया दूसरा तरीका चुन सकते हैं और लोगों को बता सकते हैं कि फिर से चुनकर सत्ता में आये तो लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लिए क्या-क्या करेंगे.

 

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