कर्नाटक चुनाव: पार्टियों का महिला विरोधी चेहरा आया सामने, सिर्फ 3% महिलाएं पहुंचीं सदन

स्वाति अर्जुन 

पल-पल बदलते हुए राजनीतिक घटनाक्रम में आम लोगों तक कई बड़ी बातें पहुंच नहीं पाती हैं. जैसे कर्नाटक में बीजेपी को सत्ता से दूर रखने, कांग्रेस-जेडीएस के बीच समझौता कराने, रातों-रात अपने एक बीएसपी एमएलए को कांग्रेस के साथ होने और कांग्रेस के रणनीतिकारों को एक्जिट पोल के नतीजों का अंदाजा लगने के साथ ही कर्नाटक रवाना करने में किन महिला नेताओं ने अहम रोल निभाए.

पहले हाल के उदाहरण देखिए

जानकारों की मानें तो इसमें उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का बड़ा हाथ है. उन्होंने ही समय रहते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से बातचीत की, उन्हें बिना शर्त जेडीएस को समर्थन देने और बीजेपी से पहले राजभवन जाकर सरकार बनाने का दावा पेश करने जैसा सुझाव दिया. जिसे कांग्रेस अध्यक्ष ने भी न सिर्फ मान लिया बल्कि उसपर अमल भी किया. नतीजा पूरे देश के सामने है.

इन बातों का जिक्र यहां सिर्फ इसलिए नहीं किया जा रहा है कि हम पाठकों को ये बता सके कि कर्नाटक की नई सरकार बनाने में किसने क्या रोल अदा किया, बल्कि हम यहां ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हमारे देश की राजनीति में जो भी गिनी-चुनी महिला नेता हैं वे कितनी सजग और धारदार राजनीति करने का गुण रखती हैं. इसमें हर पार्टी शामिल है.

क्या हम देश या किसी प्रदेश की राजनीति का इतिहास जब लिखेंगे तो क्या उनकी महिला नेताओं के नामों को नजरअंदाज करने की हैसियत रख पाएंगे? क्या जयललिता के बगैर तमिलनाडु, ममता बनर्जी के बगैर पश्चिम बंगाल, राबड़ी देवी के बगैर बिहार, शीला दीक्षित के बगैर दिल्ली, महबूबा मुफ्ती के बगैर जम्मू-कश्मीर, विजया राजे सिंधिया, सुषमा स्वराज, स्मृति ईरानी, उमा भारती, सोनिया और इंदिरा गांधी का नाम लिए इस विशाल और बहुविविधता से भरे देश की राजनीतिक इतिहास को पूरा कर पाएंगे?

84th Plenary Session of INC

कम क्यों होती जा रही है संख्या?

केंद्र में 10 सालों तक दो दर्जन से ज्यादा संख्या वाली यूपीए सरकार के घटक दलों को एक साथ रखने की जिम्मेदारी जिस तरह से सोनिया गांधी ने निभायी या लालू की गैरमौजूदगी में राबड़ी देवी ने जिस तरह से पार्टी और घर चलाया इसकी सभी मिसालें देते हैं तो फिर चुनाव में महिलाओं को टिकट क्यों नहीं. संसद और विधानसभाओं में उनकी संख्या पहले से कम क्यों होती जा रही है?

जब भी विकास, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक व्यवस्था की बात करते हैं तो देश के दक्षिणी राज्यों को प्रगतिशील राज्यों की श्रेणी में रखा जाता है. केरल तो देश का इकलौता राज्य है जहां 100 प्रतिशत साक्षरता पायी जाती है. कर्नाटक की पहचान एक प्रगतिशील राज्य के तौर पर की जाती है, जहां की आबादी का आधा हिस्सा यानि 49.3 प्रतिशत महिलाओं की है, लेकिन अगर इन चुनावों के बाद विधानसभा के भीतर के आंकड़े देखे जाएं तो पाएंगे कि सदन में महिलाओं की मौजूदगी सिर्फ 3.1 प्रतिशत है, जो किसी भी तरह से राज्य में महिलाओं की आबादी के अनुपात में बिल्कुल नहीं है.

जाहिर है- महिलाओं का सदन में न होना उनकी काबिलियत या राजनीतिक योग्यता के आधार तय नहीं किया है, ये तय हुआ है सत्ता के लिए पिछले पांच दिनों से रस्सा-कशी कर रहे तीनों प्रमुख दलों की राजनीतिक अवसरवादिता, उनकी महिला विरोधी नीतियों और देश के संविधान और जनमानस की इच्छा की धज्जियां उड़ाने की नीतियों से. जब टिकट देंगे ही नहीं तो महिलाएं सदन में चुनकर भला कैसे पहुंचेंगी?

बाजी लगाई जाती है महिला विधायकों पर सत्ता से दूर रखा जाता है

इस बार के कर्नाटक चुनाव मैदान में कुल 2655 महिला उम्मीदवार थीं, लेकिन तीनों प्रमुख दलों में से कांग्रेस ने 15, बीजेपी ने 06 और जेडीएस ने सिर्फ 04 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था, यानी तीनों प्रमुख पार्टियों ने कुल 25 महिलाओं को मैदान में उतारा था जिसमें से 07 उम्मीदवार चुनाव जीत कर सदन पहुंच गईं हैं. इसका मतलब ये भी हुआ कि राज्य में प्रमुख चुनावी दल, जो शर्तिया तौर पर सत्ता के करीब पहुंचते वहां महिला उम्मीदावारों के प्रति एक खास किस्म की उदासीनता साफ तौर पर देखी जा सकती है.

इसके उलट जो छोटी-छोटी, स्वतंत्र और निर्दलीय पार्टियां थीं वे महिलाओं को लेकर ज्यादा उदार नजर आयीं. मतलब, जब तक ये पार्टियां हारी हुई बाज़ी खेलती हैं वे महिलाओं के लेकर ज्यादा उत्साह में रहती हैं; लेकिन जैसे-जैसे वे सत्ता यानी ताकत के नज़दीक जाती हैं वे महिला उम्मीदवारों के लेकर उदासीन होती चली जाती हैं.

ये पूरा विश्लेषण उस तंत्र को उजागर करता है जिसे हम अंग्रेज़ी में पॉवर पॉलिटिक्स कहते हैं यानि महिलाओं और पॉवर के बीच एक निश्चित दूरी बनाकर रखी जानी चाहिए. इसके लिए किसी राजनीतिक दल के भीतर भी पुरुषवादी मानसिकता (मेल पैट्रियार्की) भी ठीक उसी तरह काम करती है, जैसे किसी खाप पंचायत या आम भारतीय संयुक्त परिवारों में.

कर्नाटक में स्थिति हमेशा से बुरी रही है

कर्नाटक के मामले में भी ये एक परंपरा के तौर पर स्थापित हो गया है. राज्य विधानसभा के गठन को साठ से भी ज्यादा साल हो गए हैं, गठन के बाद साल 1962 में यहां सबसे ज्यादा यानि कि 18 महिलाएं सदन में चुन कर आयीं थीं, लेकिन उसके बाद उनकी संख्या लगातार कम ही होती गई. 1972 में तो एक भी महिला सदन पहुंच ही नहीं पायी थीं लेकिन, साल 1989 में ये आंकड़ा दहाई की गिनती में गया भी पर उसके बाद ये लगातार इकाई में ही रहा. हालांकि, साल 2013 में 06 महिलाओं के बनिस्बत इस बार एक महिला उम्मीदवार की संख्या बढ़ी है जो अब 07 हो गई है. पर पिछले 60 साल का इतिहास देखें तो पाएंगे कि साल 1967 यानि कि पिछले 50 सालों से कर्नाटक विधानसभा में पुरुषों को प्रतिनिधित्व 95 प्रतिशत और महिलाओं का सिर्फ़ 05 रहा है.

Photo Source: News-18

ऐसे में सवाल ये उठता है कि महिलाओं से चुनाव में बढ़चढ़ कर वोट डालने की अपील करने वाले ये राजनीतिक दल उन्हें चुनकर सदन में आने क्यों नहीं देना चाहते हैं? आखिर क्यों पिछले कई सालों से महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो पा रहा है, क्यों ये पार्टियां उसे कानून बनाए जाने से रोक रही है? सबसे अहम बात- जिन पार्टियों के नेता बिल के पास न होने का ठीकरा दूसरे दलों पर फोड़ते हैं, वे खुद अपनी पार्टी में जब टिकट बंटवारे का समय आता है तो अपनी महिला कैंडिडेट के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं.

ये सोचा जाना चाहिए कि राज्य के जिस चुनाव में 8% टिकट महिलाओं को दिया गया उसमें भी 3% चुनाव जीत कर सदन पहुंचती है तो ये पुरुष कैंडीडेट के मुकाबले कितना बेहतर प्रदर्शन है. सच्चाई ये है कि इन सभी राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार के दौरान पिंक पोलिंग बूथ और महिला सशक्तिकरण जैसी बड़ी-बड़ी और खोखली बातें करने के बजाय महिलाओं के लिए कुछ ठोस काम करना चाहिए. ताकि, तमिलनाडु और देश के अन्य राज्यों की तरह जो प्रगतिशीलता में भले ही कर्नाटक के बाद आते हों लेकिन अपनी महिलाओं को राज्य की सत्ता का कमान थमाने में उनसे आगे निकले. यूपी, बंगाल और बिहार इसकी जीती-जागती मिसाल है.

 

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