कर्नाटक चुनाव: लिंगायत मुद्दे पर कब्जा कर येदियुरप्पा का गढ़ ढहा रहे हैं सिद्धारमैया

कर्नाटक में लिंगायत को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने के लिए चल रहे आंदोलन में स्थापित सियासी समीकरणों को बदलने, पुराने बंधनों को तोड़ने और नई वफादारियों को कायम करने की कूवत है. इस आंदोलन ने सियासी-समाजी तौर पर जो हलचल पैदा किया है उससे कांग्रेस को बीजेपी के वोट को बांटने में मदद में मिल सकती है और ऐसे में भगवा पार्टी का दक्षिण भारत में अपनी पहुंच कायम रखना मुश्किल हो सकता है.

लिंगायत को मठ की मंजूरी और अमित शाह का असमंजस

मंगलवार के रोज अमित शाह के चित्रदुर्गा के एक मठ के दौरे से यह जाहिर हो गया कि लिंगायत को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने का आंदोलन बीजेपी के लिए गले की फांस साबित हो रहा है. मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की सरकार ने लिंगायत को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने का वादा किया है और अमित शाह ने लिंगायत के बीच पैठ बनाने के मकसद से मठ का दौरा किया था लेकिन उन्हें बड़ी विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा- मुरुगा मठ के संत ने उन्हें एक मेमोरंडम थमा दिया कि लिंगायत को अल्पसंख्य समुदाय का दर्जा दिया जाए.

मेमोरंडम में कहा गया है कि ‘कर्नाटक में लिंगायत का एक आंदोलन जारी है. इसमें लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने के लिए जोर डाला रहा है. हालांकि, अभी ऐसा लग रहा है मानो वीरशैवों और लिंगायत के बीच अपने हितों को लेकर टकराव की हालत है, दोनों तरफ से लोग जज्बाती बयान जारी कर रहे हैं लेकिन यह अस्थायी है. कर्नाटक की सरकार ने लिंगायत को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश कर ठीक किया है. यह समुदायों को बांटने का नहीं बल्कि उन्हें जोड़ने वाला कदम है.’

कांग्रेस के इस कदम को कर्नाटक में समर्थन मिल रहा है और इस समर्थन से नाराज बीजेपी के अध्यक्ष गुस्से में मठ से जल्दी ही कूच कर गए, तर्क दिया कि आगे बहुत से कार्यक्रमों में भागीदारी करनी है सो समय बहुत कम है.

पहचान के मुद्दे पर हुए हैं कई आंदोलन

पहचान को मुद्दा बनाकर चले आंदोलनों का इतिहास रहा है कि वे सियासी हलचल पैदा करते हैं और चुनाव पर असर डालते हैं. चुनाव से पहले जब भी किसी समुदाय का एकजुट उभार होता है, आमतौर पर ऐसा उभार मौजूद जाति-समीकरण में उलट-फेर करता है, कुछ नई वफादारियों को जन्म देता है. अब इस बात को बीजेपी से बेहतर भला कौन जानता होगा.

बीते वक्त में भगवा पार्टी ने पहचान को मुद्दा बनाकर चली राजनीति यानि अयोध्या-आंदोलन का फायदा उठाया है और गुजरात में पाटीदार तथा हरियाणा में गुर्जर समुदाय के लोगों के विरोध में उठ खड़े होने के कारण उसे चुनावों में नुकसान भी उठाना पड़ा है. लेकिन कर्नाटक में जारी आंदोलन से बहुत कुछ मिलती-जुलती अगर कोई बात जान पड़ती है तो वह है राजस्थान का जाट आंदोलन. बीजेपी को राजस्थान के जाट-आंदोलन का चुनावों में फायदा हुआ था. जाट आंदोलन और लिंगायत समुदाय की जोर पकड़ती मांग के बीच समानता और अन्तर को समझना हमारे लिए कर्नाटक की सियासत को समझने की राह खोल सकता है.

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राजस्थान में जाट समुदाय के मतदाताओं की तादाद 10 से 12 प्रतिशत है. जाट समुदाय के मतदाता परंपरागत रुप से कांग्रेस के समर्थक रहे हैं. सन 1990 के दशक तक माना जाता था कि कांग्रेस जाट समुदाय के वोट को अपने पाले में लेकर ही चुनावी अखाड़े में उतरती है सो विपक्ष के लिए कांग्रेस को मात दे पाना मुश्किल साबित होता था. यही वजह रही कि अयोध्या आंदोलन यानी अपनी लोकप्रियता के शिखर के दिनों में भी बीजेपी को राजस्थान की 200 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा कभी हासिल नहीं हो सका.

अपनी सीमाओं को जान बीजेपी ने 1998 में चुनावी गणित में कुछ गुणा-भाग किया और जोर लगाया कि जाट समुदाय के मतदाता कांग्रेस के पाले से छिटक जायें. इस सिलसिले में बीजेपी का पहला कदम रहा जाट समुदाय को ओबीसी का दर्जा देने के आंदोलन को अपना समर्थन देना. फिर, 1999 के लोकसभा चुनावों से तुरंत पहले पार्टी ने केंद्र में इस समुदाय को ओबीसी का दर्जा देने की घोषणा कर दी. नतीजा ये हुआ कि चुनावों में उसे 16 सीटें हासिल हुईं जबकि एक साल पहले 1998 के चुनावों में महज पांच सीटें हासिल हुई थीं.

कांग्रेस यही करने की कोशिश कर रही है

कर्नाटक में कांग्रेस भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश में है. कांग्रेस जानती है कि लिंगायत बीजेपी के परंपरागत समर्थक रहे हैं और इसकी वजह हैं पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री के रुप में पेश किए जा रहे बीएस येदियुरप्पा जो लिंगायत समुदाय के ताकतवर नेता हैं. इंडियन एक्सप्रेस में लिंगायत समुदाय के एक विद्वान एसएम जामदार ने कहा है कि येदियुरप्पा को लिंगायत अपना नेता मानते हैं क्योंकि इस समुदाय के मन में यह भावना घर कर गई है कि 2007 में एचडी देवगौड़ा के जेडीएस ने येदियुरप्पा के साथ दगा किया. दोनों पार्टियों के बीच में समझौता हुआ था कि उनके नेता बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन जेडीएस ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनने का मौका नहीं दिया. इसके बाद से ही येदियुरप्पा बीजेपी के पाले में लिंगायत वोट खींच लाने वाले करिश्माई नेता बनकर उभरे.

सिद्धरमैया लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने का वादा करके इस समुदाय से येदियुरप्पा की पकड़ कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं. कर्नाटक में चुनावी लड़ाई कांटे की है और ऐसी लड़ाई में सिद्धरमैया बीजेपी के जो भी वोट अपने पाले में खींच ले जायेंगे उससे चुनावी नतीजों का फैसला होना है. इस बात को 2013 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के सहारे समझा जा सकता है. तब लिंगायत मतदाताओं का समर्थन ना हासिल होने से बीजेपी की हार हो गई थी, लिंगायत मतदाताओं ने येदियुरप्पा का समर्थन किया था, बीजेपी से बाहर निकाले जाने के बाद येदियुरप्पा ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी.

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यह बात दावे से कोई नहीं कह सकता कि कांग्रेस बीजेपी के वोट-बैंक में सेंधमारी कर पायेगी या नहीं. राजस्थान के जाट समुदाय की तरह लिंगायत भी कर्नाटक में सबसे बड़ा समुदाय है. सूबे की आबादी में इस समुदाय के लोगों की तादाद तकरीबन 17 फीसदी है. अगर इस समुदाय के एक फीसद मतदाता भी बीजेपी से दूर छिटकते हैं तो अमित शाह इसकी काट में वोक्कालिंगा (सूबे की आबादी में तकरीबन 12 फीसद की तादाद में मौजूद) समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश करेंगे और इसके लिए जेडीएस से हाथ मिला सकते हैं जो वोक्कालिंगा समुदाय की नुमाइंदगी का दावा करता है. सिद्धरमैया इस रणनीति को पहले से भांपकर जेडीएस में फूट डालकर उसकी ताकत को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं. सिद्धरमैया की कोशिश है कि चुनावी अखाड़े में मुकाबला सीधे-सीधे कांग्रेस और बीजेपी के बीच हो.

तैयार रहिए, नया वोट बैंक बनाने के लिए चल रहे इस दांव-पेंच के बीच कर्नाटक के चुनाव में कुछ ऐसा मंजर सामने आ सकता है जिसकी जरा भी उम्मीद नहीं लगाई गई होगी.

 

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