क्या लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में बन पाएगा विपक्षी महागठबंधन

लखनऊ । नरेंद्र मोदी सरकार ने अपना आखिरी बजट पेश कर दिया है और देश एक मायने में चुनावी तेवर में आ चुका है. इस बीच में देश में कुछ उपचुनाव होने हैं और कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं.

इस बात की चर्चा थी कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो सकते हैं और विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव के साथ कराया जा सकता है. लेकिन इसके लिए जिस राष्ट्रीय सहमति की जरूरत है, उसे बनाने की इस समय तक कोई औपचारिक कोशिश शुरू नहीं हुई है. इतने कम समय में ऐसे पेचीदा सवाल पर राष्ट्रीय सहमति बन पाने की संभावना कम ही है. इसलिए फिलहाल की स्थिति में यह मानकर चला जा सकता है कि लोकसभा चुनाव तय समय यानी मई, 2019 के आसपास ही होंगे.

2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सभी दलों ने तैयारियां शुरू कर दी हैं

इस लिहाज से लोकसभा चुनाव के लिए अभी एक साल से कुछ ज्यादा समय बाकी है. लेकिन तमाम दलों ने चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं. बीजेपी 2014 के अपने घोषणापत्र के पूरे किए हुए वादों की लिस्ट बना रही है. बूथ लेवल पर संगठन को दुरुस्त करने का काम चल रहा है.

वहीं कांग्रेस बीजेपी के उन वादों की लिस्ट बना रही है, जो पूरे नहीं हुए. कांग्रेस को नया अध्यक्ष मिल गया है और पार्टी संगठन को नया रूप दिया जा रहा है. दोनों प्रमुख दल चुनाव से पहले गठबंधनों को शक्ल दे रहे हैं. विभिन्न जातियों और समूहों को प्रमुख लोगों को पार्टी में जोड़ा जा रहा है. वामपंथी दलों में प्रमुख सीपीएम ने गठबंधन की अपनी रणनीति बना ली है. इसके अलावा जो तीसरी धारा के दल हैं, या क्षेत्रीय दल हैं, वो चूंकि इतनी लंबी तैयारी नहीं करते, इसलिए वो जैसा चलते हैं, वैसा चल रहे हैं.

इस बीच हर किसी की नजर उत्तर प्रदेश पर जरूर है. यहां लोकसभा की 543 में से 80 सीटें हैं. यहां की एकमुश्त सीटें जब किसी दल को मिलती हैं, तो उसका असर लोकसभा की संरचना पर पड़ता है. पिछले लोकसभा चुनाव को ही देखें तो बीजेपी को यहां 71 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. सहयोगी पार्टी अपना दल के साथ एनडीए का यूपी का आंकड़ा 73 का था. लोकसभा में बीजेपी को बहुमत मिलने की सबसे बड़ी वजह यूपी ही रहा.

यूपी में जब तक कांग्रेस-बीजेपी कमजोर रही देश में गठबंधन की सरकारें बनती रही

यूपी में जब तक कांग्रेस और बीजेपी कमजोर रही, तब तक लोकसभा में इनमें से किसी को बहुमत हासिल नहीं हुआ और देश में गठबंधन सरकारें बनती रहीं. 1984 के बाद अब जाकर देश में किसी एक पार्टी की बहुमत की सरकार बन पाई है.

यूपी की राजनीति पिछले तीन दशकों से दो दलों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के प्रभाव में रही है. इस दौर में यूपी राम जन्मभूमि आंदोलन के दौर से भी गुजरा और प्रदेश में बीजेपी की सरकारें भी बनीं. लेकिन एसपी और बीएसपी अपना असर बनाए रखने में कामयाब रहीं. एक लंबा समय तो ऐसा भी गुजरा जब एसपी और बीएसपी ने एक के बाद एक कर यूपी में अपनी सरकारें बनाईं.

Akhilesh Mayawati

लेकिन वह स्थिति अब बदल गई है. बीजेपी अब उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है. एसपी और बीएसपी को मिलाकर 40 फीसदी से कुछ अधिक वोट मिल रहे हैं. एसपी और बीएसपी का सम्मिलित वोट ही बीजेपी को उसकी जगह से हटा सकता है. इनमें से किसी एक पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन से बीजेपी को हरा पाना शायद संभव नहीं है. 2017 के विधानसभा चुनाव में एसपी और कांग्रेस का गठबंधन कोई असर नहीं दिखा पाया. कांग्रेस और बीएसपी गठबंधन का कोई नया प्रयोग नहीं हुआ है. लेकिन उसके असरदार होने को लेकर पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता.

उत्तर प्रदेश में अगर एसपी, बीएसपी और कांग्रेस का महागठबंधन बनता है, तो कागज पर वह अजेय नजर आता है. तीनों दलों के सम्मिलित वोट को जोड़ने के बाद जो स्थिति बनती है, उसकी काट बीजेपी के पास शायद ही हो. लेकिन क्या ऐसा कोई गठबंधन संभव है?

यूपी में एसपी, बीएसपी और कांग्रेस के बीच महागठबंधन में 3 बड़े पेंच हैं

महागठबंधन के रास्ते में तीन बड़े पेंच हैं. पहला, क्या कांग्रेस ऐसा कोई गठबंधन करना चाहेगी? आजादी के बाद 30 साल तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज रहने के पीछे उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा योगदान है. राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की दुर्गति उसके उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ने की कहानी है. कांग्रेस का कोर वोट ब्राह्मण, मुसलमान और दलित थे. एसपी और बीएसपी के उभार की वजह से उसके वोट का एक बड़ा हिस्सा खिसक गया है. जहां एसपी उसका मुसलमान वोट ले गई, वहीं बीएसपी ने उसका दलित वोट छीन लिया. इन दोनों के चले जाने के बाद ब्राह्मणों ने भी विकल्प ढूंढ लिए. कभी वह बीएसपी के साथ गई तो अब वो बीजेपी के साथ हैं.

Akhilesh-Rahul road show

क्या कांग्रेस कमजोर पड़ती बीएसपी और आपस में झगड़ती एसपी के साथ गठबंधन कर के इन दलों मे जान फूंकना चाहेगी? क्या बीजेपी को रोकना उसके लिए इतना महत्वपूर्ण है कि वह इन दलों को बर्दाश्त कर लेगी. कार्ति चिदंबरम की गिरफ्तारी के बाद कांग्रेस के लिए इसकी जरूरत आ पड़ी है. लेकिन वह क्या करेगी, यह तय होना बाकी है.

दूसरा, क्या एसपी और बीएसपी आपसी मतभेद भुलाकर एक साथ आएंगी? एसपी और बीएसपी जब तक यूपी में पक्ष और विपक्ष थे, तब तक तो यह बिल्कुल मुमकिन नहीं था. लेकिन अब हालात बदल गए हैं. एक तरफ बीजेपी ने इन्हें पीछे छोड़ दिया है, वहीं कांग्रेस भी फिर से उभरने की कोशिश में है. 2014 और 2017 में बुरी हार के बाद यह दोनों ही पार्टियां और किसी हार के लिए तैयार नहीं हैं. बीएसपी ने तो 2007 के बाद से कोई बड़ी जीत नहीं देखी है. इन पार्टियों के नेता और उनका जनाधार सत्ता का स्वाद चख चुके हैं और लंबे समय तक विपक्ष में रहना उनके लिए आसान नहीं है.

तीसरा, क्या बीजेपी एसपी और बीएसपी को साथ आने देगी? एसपी और बीएसपी के प्रमुख नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों ने जांच बिठा रखी है. क्या ये दल उसकी अनदेखी कर पाएंगे? अगर दोनों दल साथ आने की कोशिश करेंगे, तो केंद्रीय एजेंसियां केंद्र सरकार की शह पर जांच तेज कर सकती हैं. कार्ति चिदंबरम और उससे पहले लालू यादव को लेकर केंद्र सरकार यह कर चुकी है. इसका भय दोनों दलों के नेताओं में हो सकता है. लेकिन उन्हें यह चुनना होगा कि वो भय की वजह से राजनीतिक फैसलों को किस हद तक टालेंगी.

अगर वो साहस दिखाते हैं तो उनके नेता बेशक जेल चले जाएं, लेकिन उनकी राजनीति जिंदा रहेगी

अगर बीएसपी और एसपी अपनी राजनीति को स्थगित करते हैं, तो उनके नेता बेशक जेल जाने से बच जाएंगे, लेकिन इस तरह उनके राजनीतिक जीवन का अंत भी हो जाएगा. और अगर वो साहस दिखाते हैं तो लालू यादव की तरह उनके नेता बेशक जेल चले जाएं, लेकिन उनकी राजनीति जिंदा रहेगी.

इन तीन सवालों से यूपी की राजनीति काफी हद तक तय होगी. पूरे देश को इस पर नजर रखनी चाहिए, क्योंकि दिल्ली की राजनीति का रास्ता अक्सर लखनऊ से होकर गुजरता है.

 

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