गन्‍ने की फसल की मिठास चाहिए, तो पैदावार कम कीजिए

लखनऊ। केंद्र सरकार ने खरीफ की फसलों के न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (एमएसपी) में बढ़ोतरी की है. इसको किसानों के लिए खुशखबरी के रूप में देखा जा रहा है. लेकिन वास्‍तव में मौजूदा दौर में किसानों की समस्‍याओं का मुख्‍य कारण एक के बाद दूसरी फसलों का अतिशय उत्‍पादन है. इससे कृषि उत्‍पादों की कीमतों में गिरावट दर्ज होती है. हालांकि फिर भी इनकी कीमतें इतनी अधिक हैं कि उनको बाहर भेजने में दिक्‍कतें आती हैं. इसका सीधा सा जवाब देते हुए मशहूर स्‍तंभकार स्‍वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ने द इकोनॉमिक टाइम्‍स के अपने नियमित कॉलम में लिखा है कि कीमतों को तार्किक बनाते हुए उन फसलों की पैदावार को हतोत्‍साहित किया जाना चाहिए जिनको बाहर भेजने की संभावना काफी कम हो. इस कड़ी में उन्‍होंने गन्‍ने की खेती पर टिप्‍पणी करते हुए कहा है कि इस फसल के लिए सबसे खराब कृषि पॉलिसी मौजूद है.

उनके मुताबिक कृषि लागत और मूल्‍य निर्धारण आयोग (सीएसीपी) ने सभी प्रमुख फसलों के लिए मांग, आपूर्ति, अंतरराष्‍ट्रीय कीमतों, भंडारण समेत अन्‍य कारकों के आधार पर इनके लिए बेहतर दाम का निर्धारण किया है. इसके साथ-साथ राज्‍य सरकारों ने गन्‍ने की फसल के लिए मनमाने तरीके से उच्‍चतर राज्‍य परामर्श मूल्‍य (एसएपी) का निर्धारण किया है. ये कदम आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक मुनाफे के लिए किया जाता है. दामों में इस तरह की अतिशय बढ़ोतरी के कारण गन्‍ने का आवश्‍यकता से अधिक उत्‍पादन होता है. नतीजतन शुगर उद्योग संकट के दौर से गुजर रहा है.

उन्‍होंने अपने आर्टिकल में बताया है कि 2017-18 में 32 मिलियन टन शुगर का उत्‍पादन किया गया. तीन मिलियन टन का भंडारण पहले से मौजूद था. चीनी की घरेलू मांग केवल 25 मिलियन टन थी. नतीजतन कीमतों में गिरावट हुई और शुगर मिलों की हालत पहले से भी ज्‍यादा खराब हुई. लिहाजा दिवालिया मिलें किसानों का बकाया देने में असमर्थ हैं. स्‍वाभाविक रूप से इससे किसान नाराज होंगे.

उन्‍होंने अपने आर्टिकल में इसके साथ ही लिखा है कि हाल में ब्रुकलिन इंस्‍टीट्यूशन पेपर ने कहा है कि भारत में हर मिनट में 44 भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर उठ रहे हैं. अर्थशास्‍त्री सुरजीत भल्‍ला ने कहा है कि तकरीबन हर मिनट करीब 100 भारतीय गरीबी रेखा से ऊपर उठ रहे हैं. ये नंबर चाहें भले जो भी हों लेकिन यह साफ है कि कृषि संकट केवल गरीबी से नहीं जुड़ा है, बल्कि यह अतिशय उत्‍पादन से से भी संबंधित है. इसका समाधान यह है कि फसलों की पैदावार कम किंतु प्रतिस्‍पर्द्धी तरीके से की जानी चाहिए.

समाधान
इसका समाधान बताते हुए अय्यर ने लिखा है कि राज्‍य सरकारों को यह बताया जाना चाहिए कि यदि वे सीएसीपी द्वारा निर्धारित मूल्‍यों से ऊपर एसएपी का निर्धारण करते हैं तो ये अतिरिक्‍त भुगतान राज्‍यों को (मिलों को नहीं) किसानों को करना होगा. इसके राजनीतिक समाधान के लिए आरबीआई जैसी किसी स्‍वायत्‍त संस्‍था को इसमें दखल देना चाहिए. आरबीआई को यह कहना चाहिए कि बेहतर बैंकिंग प्रणाली के लिए बैंक ऐसी राज्‍यों की मिलों को कर्ज नहीं देंगे जहां एसएपी की दरें सीएसीपी से अधिक हैं. इससे बैंक से फाइनेंस चाहने वाली मिलों के बंद होने का खतरा उत्‍पन्‍न हो जाएगा. निकटवर्ती बैंक के बंद होने की बात से किसानों की संभावित नाराजगी के डर से संबंधित राज्‍य अपने यहां एसएपी को सीएसीपी की दरों के बराबर लाने को मजबूर हो जाएंगे. या एसएपी की अधिक दरों को खुद अपने खजाने से देने को मजबूर होंगे. इससे मिलें भी बदहाली से बचेंगी. किसानों की फसल की खपत होगी और उनको जायज मूल्‍य मिलेगा.

 

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