गांधी के गुजरात में , मानवता शर्मसार, पढ़कर चौंक उठेंगे आप..!

Kuldeepकुलदीप लहरु

देश आज राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी की 146वीं जयंती मना रहा है और बापू के विचारों की प्रासंगिकता पर चिंतन कर रहा है। लेकिन क्‍या देश यह जानता है है कि उसे गुजरात जैसे राज्‍य से शांति, समानता, अस्‍पृश्‍यता और छुआछूत के खिलाफ एक आवाज देने वाले राष्‍ट्रीय संत महात्‍मा गांधी के राज्‍य के गांवों में आज भी मनुष्‍य महज एक दूसरे को छू लेने भर की दकियानूसीस मानसिकताओं का शिकार है।

आज भी 21वीं सदी का भारत गांधी द्वारा हरिजन कहलाए गए लोगों के प्रति वैमनस्‍यता और छुआछूत की भावना से भरा पड़ा है। गुजरात में आज भी दलितों और सवर्णों के बीच वही सामाजिक बुराई, जाति व्‍यवस्‍था की ऐसी खाई है, जिसे हम सुनकर ही शर्मसार हो उठते हैं। यहां दलितों को पानी दिए जाने को लेकर भेदभाव है, तो वहीं मंदिरों में उनके प्रवेश पर रोक है और वे आज भी सवर्ण जातियों के सामाजिक शोषण का शिकार हो रहे हैं।

आइए आप भी चलिए जरा इस गुजरात में  : गुजरात की राजधानी गांधीनगर से कुछ ही किलोमीटर दूर का गोरज गांव। बाहर से यहां के दूसरे गांवों की तरह और कुछ ज्यादा ही शांत दिखाई देता है लेकिन गोरज के भीतर की जो दुनिया है, उसे जानकर आप न केवल हैरत में पड़ जाएंगे बल्कि आपको इस बात पर यकीन ही नहीं होगा कि यहां जाति का मकड़जाल इस पैमाने पर फैला हुआ है कि आज यदि बापू होते तो शर्म से झुक जाते। बेहद गंदे, बद्दबूदार और कीचड़ से लथपथ एक छोटे से रास्ते से जैसे ही हम गांव के दलितों की बस्तियों के पास पहुंचते हैं, तो देश की राजधानी दिल्ली से किसी पत्रकार के आने की खबर सुनकर कोई हैरत में नहीं पड़ता। पत्रकार अंदर पहुंचता है, तो सामने उन्‍हें कल्‍पेश दाभी नाम का एक युवक मिलता है, मैं  इससे पहले की उससे कुछ कहूं , वह अपनी कंपकपाती आवाज़ में बोलता है और मेरे सामने 2011 की एक भयानक घटना का चित्र सामने आता है।

Kalpesh

कल्‍पेश बताता है कि नवरात्रि का समय था। 1 अक्‍टूबर 2011 की रात कुछ क्षत्रिय जाति के लड़के बुनकर-वासमे गरबा देखने आए। कुछ देर बाद ये लड़के गरबा खेल रही लड़कियों की मोबाल पर वीडियो क्लिपिंग्स बनाते हुए उन्‍हें छेड़ने लगे। मेरे दोस्त, मेहूल मकवाणा ने उन्हें रोकने की कोशिश की, पर उसकी कोशिश उस पर भारी पड़ी। सारे लड़कों ने मिलकर म़ेहुल को बहुत मारा। हम बेहद डर गए कि अब क्या होगा? जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर अगले ही दिन मैं मेहुल को पुलिस स्टेशन ले गया और वहां रिपोर्ट दर्ज करवाई। पर इससे और ज्यादा भड़ककर, दो दिन बाद क्षत्रियों के तक़रीबन एक सौ आदमियों के झुंड ने हम पर सशस्त्र हमला कर दिया। पता नहीं हम कैसे बच गए। हमें अस्पताल में भर्ती करवाया गया। पता चलने पर पुलिस आई पर तब तक हमलावरों को जो करना था वो उन्होंने कर लिया था। उनके सामने केस तो दर्ज हुआ है पर अभी तक हम अपने ही गांव में जाने से घबराते है!

मेहूल का अपना खेत बंजर पड़ा है, क्‍योंकि क्षत्रियों के खेत से जाते हुए उसके खेत पहुंचा जा सकता है, और अनबन के चलते एक दो बार रोके जाने के कारण अब वहां पर जा पाना नामुमकिन सा हो गया है। नव सर्जन ट्रस्ट के कार्यकर सुरेशभाई और लक्ष्मणभाई को पूछने पर उन्होंने बताया कि पहली बार रिपोर्ट दर्ज करवाते वक़्त ही पुलिस प्रोटेक्शन की मांग की गई थी, पर उसे अनसुना कर दिया गया। पुलिस की लापरवाही के कारण गरीब दलितों को भयंकर यातना से गुज़रना पड़ा।

 मंदिर में जाने नहीं दिया जाता:   भावुक हो कर कल्पेश कहता है कि, “हमें मंदिर के अंदर जाने से रोका जाता है। हम भी इंसान है। क्या भगवान हमारे नहीं है?  काफी लम्बे अरसे से हमारे लिए मंदिर प्रवेश पर प्रतिबन्ध है। और अब तो हमने भी इसे स्वीकार कर लिया है। हमें भी अब मंदिर में जाने की कोई इच्छा नहीं होती।” कल्पेश जब ये बोल रहा था तब उसके चहेरे पर स्पष्ट दिख रहा था कि वो नास्तिक नहीं है। पर ईश्वर के प्रति आस्था के कारण ही ये शब्द उसके मुंह से निकल रहे थे।

सरपंच के घर पूछताछ करने गए तब पता चला वे घर पर नहीं थे। उनके पिता देवाजी ठाकुर ने कहा कि सरपंच के सारे कामकाज वे खुद ही देखते हैं। उनका बेटा सरपंच है, पर वो खेत खलिहान को देखता है। उन्होंने बताया कि, वे तो छुआछूत में मानते नहीं हैं। वे सब को आपसमे प्यार से रहने के लिए समझाते हैं। उनके यहां नवरात्रि के उत्सव पर सब को आने की छूट है। उन्होंने कहा, “हमारे यहां कोई भेदभाव नहीं रखा जाता। जहां तक गांव के मंदिर में प्रवेश का प्रश्न है तो वे तो बरसो से चली आ रही परंपरा जैसा ही है। दलित खुद भी अपने आप ही मंदिर में प्रवेश नहीं करते।”

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इस गांव का यह करना चाहती है सरकार  :  गुजरात सरकार साणंद तालुका के इस गांव को भारत का ‘डेट्रॉइट’ बनाना चाहती है। अमेरिका का डेट्रॉइट शहर ऑटोमोबाइल क्षेत्र का हब माना जाता है, वहां अहमदाबाद जिले के साणंद तालुका में गुजरात सरकार ऑटोमोबाइल कंपनियों को आमंत्रित कर इसे भारत का ऑटोमोबाइल हब बना रही है। यहां के निवासी कई दलित परिवारों को सामाजिक भेदभाव, अत्याचार की दहशत के चलते कहीं और जा कर बसेरा ढूंढ़ना ही उचित समझा है।

गुजरात में गांवों के दलितों की स्थिति बेहद खराब :   दलितों को ध्यान में रख कर अगर देखा जाए तो गुजरात के गांवों की परिस्थिति ऐसी बिलकुल नहीं है, जैसा चित्र यहां की सरकार देश के सामने रख रही है। दलितों को आज भी गाव के अन्दर रहते हुए भी उससे अलग ही रहना पड़ता है। आज भी ऐसे अनेक गांव है, जहां दलितों के विस्तार को गांव से अलग ही समझा जाता है। आज भी ऐसे अनेक गांव है, जहां दलितों के विस्तार को गांव में नहीं पर उससे अलग ही समझा जाता है। उन्‍हें जनरल कास्ट के लोगों से दूर रहना पड़ता है। जैसे यह एक पैटर्न ही बन गया है। वाइब्रैंट गुजरात के महानगर भी इससे अछूते नहीं है। यहां तक की अगर कोई पैसेवाला दलित पैसे दे कर कोई आलिशान फ्लैट खरीदना चाहे तो उसे भी कई बिल्डर्स मना कर देते हैं।

एक नहीं कई हैं दिल दहला देने वाले हादसे  : जूनागढ़ जिले के अंकोलाली गांव का वाकया दिल दहला देनेवाला है। तक़रीबन 1800 की बस्ती वाले इस गांव की प्रमुख जाती कोली है, और सिर्फ एक दलित परिवार है। यहां कालाभाई सरवैया पर जो बीती है वो इतनी दर्द्नाक दास्तां है, जो सिर्फ सुनने पर भी रोंगटे खड़े हो जाते है। वे उनके पांच बेटो से हरे-भरे परिवार के साथ अंकोलाली में एक साथ रहते थे।

1977 में सरकार ने उन्हें 14 बीघा जमीन दी थी। वो जमीन और पंक्चर रिपेयर की दूकान से वे अपना गुजारा चलाते थे। 10 सितम्बर 2012 के आसपास गांव की उन्नीस साल की एक लड़की राजीबेन लापता हो गई। उनके बेटे लालजीभाई ने उसके किडनेपिंग में साथ देने की आशंका के साथ 13 सितम्बर के दिन सुबह 7:30 या 8 बजे के तकरीबन 500 लोगों ने लाठियां, पत्थर, डंडो के साथ उनके घर पर हल्ला बोल दिया। उनमे से कुछ लोग पेट्रोल और केरोसिन ले कर आए थे।

उन्होंने कालाभाई के 27 वर्षीय बेटे लालजीभाई को जिन्दा जला डाला और घर को आग लगा दी। कालाभाई और उनके अन्य दो बेटो पर हमला होने के कारण वे गम्भीर रूप से घायल हो गए। गांव के सरपंच सहित कई लोग के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई गई। बाद में पूरा दलित परिवार ऊना माइग्रेट हो गया। ऊना चले जाने के बाद भी ये परिवार हर पल भयभीत हो कर अपना जीवन व्यतीत कर रहा है, क्‍योंकि उन पर हमला करने वाले लोगो में से कई लोग आज भी पकड़े नहीं गए।

क्‍या गुजरात में वाकई में सब ठीक है?  :  ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट कांतिलाल परमार अपनी बात रखते हुए बताते है कि वे चमार जाति के हैं। इस जाति के लोग भी दलित कहलाते हैं। वे कहते हैं कि, “बचपन से ले कर आज तक ऐसी अनेक घटनाएं बनीं, जिसे कोई अपने पालतू पशु के साथ भी नहीं करता। स्कूल में हम दलितों को आगे बैठने  की छूट नहीं थी। हम को पीछे ही बैठना पड़ता था। पानी पीने का प्याला भी हमारे लिए अलग ही था। जो दलित नहीं है उन बच्चों के साथ क्रिकेट या कोई और खेल खेलना भी मुश्किल ही था। अगर कभी गैर दलित बच्चों को हमारे साथ सिक्कों का आदान-प्रदान करने कि जरूरत होती तो उसे छूने से पहले वे पानी से धो कर पवित्र हुए हैं कि नहीं उसकी पुष्टि करते थे।

वे कहते हैं कि मुझे ये ही समझ नहीं आता था कि आखिर मेरी गलती क्या है? वैकेशन या तो छुट्टी के दिन मैं अपने माता-पिता के साथ खेत पर जाता था। वे लोग वह पर मज़दूरी काम करते थे। अगर हमें पानी पीना हो या खाना हो तो हमें हमारे लिए अलग पात्र घर से ले जाने पड़ते थे। एक बार जब मैं बहुत प्यासा था और पानी पीने गया तब मेरे पास प्याला न होने पर खेत के मालिकने मुझे हथेलियों का उपयोग करके पानी पीने को कहा। अब एक छोटा बच्चा ऐसे कैसे पानी पी सकेगा। तब मुझे उन्होंने कोई पेड़ का एक पत्ता दिया और उससे पानी पीने को कहा। ऐसा जिल्लत भरा जीवन भला किसे पसंद होगा? पर सदियों से दलित ऐसे ही अपना पूरा जीवन व्यतीत करते आए हैं।”

अपनी दास्तां बताते हुए कांतिभाई कहते है कि, “लोग मुझे मेरे नाम से नहीं बुलाते थे। वे मुझे ‘ढेढ़’ कह कर बुलाते थे। गुजरात में गैरदलित लोग दलितों इस उपनाम से बुलाते है, जो कि बड़ा अपमानजनक शब्द है। दलितों में भी वाल्मिकी समाज के लोग सब से निम्न गिने जाते हैं। उन्‍हें लोग ‘भंगी’ कह कर बुलाते हैं। ये भी जाति के साथ जुड़ा हुआ एक अपमानजनक शब्द है।

पढ़ाई में मैं अच्छा था। लड़कियों को अनसूया बहेन नामक एक शिक्षिका इंग्लिश सिखाती थी। बिना भेदभाव किए उन्होंने मुझे दो साल तक इंग्लिश की एक्स्ट्रा क्लासिस में बुला कर इंग्लिश सिखाई। मैं उनके घर पर जाता था और वो भी हमारे घर आती थी। 1986 में मैं 66 प्रतिशत नंबरों के साथ स्कूल में प्रथम आया था। उस वक़्त इतने मार्क्स भी बहुत मुश्किल से आते थे। अख़बार में मेरा फ़ोटो छपा था। मैं बहुत खुश था। पर ये ख़ुशी कुछ समय तक सीमित थी।

आगे पढ़ने के लिए पैसे न होने के कारण मैंने फिर से काम पर जाना शुरू कर दिया। अगर कोई बच्चा स्कूल में अव्वल नंबर पर आता है, तो उसे 251 रुपये दिए जाते थे। पर मैं दलित था इसलिए मैं वो इनाम कि रकम पाने से वंचित रहा। उस वक़्त मेरे चाचा सरकारी कर्मचारी थे। उन्होंने मेरे पिता को कहा कि मेरी पढ़ाई की जिम्मेवारी वो उठा लेंगे। भाई पर मेरी पढ़ाई का बोझ न आए इसलिए मेरे पिता ने मना कर दिया। पर कैसे भी कर के मेरे चाचा ने मेरे पिता को मना ही लिया और उनकी बदौलत मैं आगे पढ़ पाया और इलेक्ट्रिकल इंजीनियर बन पाया। वैसे कॉलेज में भी छुआछूत कि बीमारी ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा था। गैर दलित लड़के दलित लड़कों को बिना कोई कारण मारते थे। वहां पर भी हमे नौकर की तरह काम करना पड़ता था।”

दलित महिलाओं की स्थिति बहुत खराब:  दलित महिलाओं की स्थिति तो और भी गंभीर है। घर के बहार वे त्रस्त हैं क्‍योंकि वे दलित हैं। खुद के घर आ कर भी उनके लिए आराम की सांस लेना दुष्‍वार है क्‍योंकि यहां उनके साथ लिंग आधारित भेद होता है। ईश्वर तो किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। उनके लिए सब सभी समान हैं, पर वर्ण व्यवस्था के कारण ऊपर वाले ने सब पर बरसाए आशीर्वाद भी दलितों के लिए आशीर्वाद नहीं रहते हैं। भरपूर बारिश के बाद भी दलित परिवारों के लिए पानी की समस्या जैसी कि तैसी ही रहती है।

सर्वे के मुताबिक अहमदाबाद के बावळा तालुका के बगोदरा गांव में दलित बाहुल्‍य इलाकों में पानी पहुंचता ही नहीं है। ग्राम पंचायत का पानी दलितों को नहीं दिया जाता। जब दलित महिलाएं कोई गैरदलित के घर पानी भरने जाती है तो उन्हें छुआछूत की समस्या का सामना करना पड़ता है।

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होता है पानी का भेदभाव  :  इसी तालुका के भामसरा गांव में दलितों को पानी के लिए प्रति माह 100 रुपये चुकाने पड़ते है। धोळका तालुका के धोळी, अरनेज, भुरखी, सरगवाड़ा, कोठ इत्यादि गांवो में छुआछूत के कारण दलित महिलाओं को पीने का पानी तो दूर कपड़े धोने या बर्तन मांजने में भी परेशानी उठानी पड़ती है।

जवारज और भुरखी में तो जाति के आधार पर कुएं ही अलग-अलग है। ऐसे अनेक गांव हैं, जहां दलित महिलाओं को पानी के लिए कई किलोमीटर दूर चलके जाना पड़ता है। फिर चाहे शरीर जला देने वाली धूप हो या ठण्ड हो। साणंद तालुका के लोदरीयाळ गांव में 15 वाल्मिकी परिवारों के बीच में पानी का सिर्फ एक कनेक्शन दिया गया है। अहमदाबाद से महज 25 किलोमीटर दूरी पर बसे सरी, मटोडा ऐसे गांव हैं, जहां दलित महिलाएं अपने आप पानी नहीं भर सकती। कुएं या नल में से कोई गैरदलित जब पानी देगा तब जा कर ही दलितों को पानी मिलेगा। जब तक कोई पानी नहीं देगा तब तक उन्हें राह तकते रहना पड़ेगा।

जाति के आधार पर बंटता है पानी  :  चौंकाने वाली बात तो अब आती है जब अहमदाबाद से महज 45 किलोमीटर दूर धनवाडा गांव बसा हुआ है। यहां जहां से पानी का वितरण किया जाता है वहां पंचायत के बोर की दीवार पर स्पष्ट शब्दों में एक सूची लिखी गई थी और इस सूची के हिसाब से ही गांव वालों को पानी भरना पडता है। जाति के आधार पर बनी इस सूची में पानी भरने की समयावधि भी लिखी हुई है। इसके अनुसार उच्च वर्ण के, यानी राजपूत और पटेल जाति के लोगों के लिए सुबह सबसे पहले 8 बजे से 10 बजे तक पानी वितरित किया जाएगा। 10 से 12 बजे तक भरवाड़ और वाघरी जाति के लोगों को पानी मिलेगा। 12 से 2 बजे तक हरिजन और भंगी जाति के लोगों को पानी दिया जाएगा और 2 से 4 बजे तक धनवाड़ा गांव के आसपास के दलित लोगों को पानी दिया जाएगा।

पानी का वितरण जाति के आधार पर किया जाए ऐसा कोई कानून तो है नहीं, फिर किस आधार पर ये निर्णय लिया गया ये एक सोचने पर मजबूर कर देने वाली बात है। ये बात कुछ समझदार लोगों के ध्यान में आने पर उन्होंने सोचा कि ये बात सब के सामने आनी चाहिए। और जैसे ही शहर से थोड़ा विरोध उठा, मकान के ऊपर लिखी गई वो सूची के ऊपर कलर लगवा दिया गया। आज जब हम वाइब्रंट गुजरात कि बात कर रहे हैं, तब उस माहौल में जाति के आधार पर होता यह बंटवारा कितना उचित है, यह एक सोचनेवाली बात है।

नवसर्जन ट्रस्ट के द्वारा अहमदाबाद जिले के 36 गांवों किए गए सर्वे के मुताबिक 35 गांवो में दलित परिवार के सदस्यों के साथ मंदिर में छुआछूत रखी जाती है। उन्‍हें या तो मंदिर के अंदर दर्शन करने की छूट नहीं दी जाती या तो गर्भगृह में जाने नहीं दिया जाता। 21 गांव में नाई कि दूकान पर दलित बाल कटवाने जाए तो उसे मना कर दिया जाता है। 36 में से चार गांव ऐसे हैं, जहां चाय कि दूकान पर भी दलितों के साथ छुआछूत की समस्या साफ़ दिखती है। गैर दलितों के लिए चाय के बर्तन रखे जाते हैं, पर दलितों को प्लास्टिक के (यूज एंड थ्रो) कप में ही चाय दी जाती है। दलित व्यक्ति वहां रखी गई चारपाई पर बैठ नहीं सकता।

अपने हक़ के लिए लड़ने वाले दलित लोगों के सामने कम परेशानियां नहीं आती। ऐसे अनेक परिवार है जिसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया है। सामाजिक बहिष्कार का मतलब है पूरे गांव के साथ उनका नाता तोड़ दिया जाता है। रुपए देकर कुछ खरीदना चाहे तब भी उन्‍हें रोज़मर्रा की चीज़े गांव से नहीं दी जाती। उसके लिए उनको दूसरे गांव तक जाना पड़ता है।

लड़ाई और संघर्ष की कहानियां : ऐसे भी कुछ लोग मौजूद हैं, जो समाज में फैली हुई बुराइओं के सामने आवाज़ उठाते झिझकते नहीं। सुरेशभाई को जब मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया तब उन्होंने अपनी वाजिब दलील सामने रखी। वे कहते है,”मंदिर बनाते वक्त मजदूरों को उनकी जाती पूछी नहीं जाती। मजदूरी का काम दलित और समाज के पिछड़े वर्ग के पास करवा लेने के बाद जब उस स्थापत्य का लाभ लेने कि बारी आती है, तब समाज का उच्च वर्ग आगे आ जाता है, और वह ही स्थापत्य बनाने वाले छोटे लोगों को दूर कर दिया जाता है। भला ये कहां का न्याय है?” उनके सामने जब ये परिस्थिति आई तब उन्होंने बिना डरे उसका डट कर सामना करने की ठान ली। उनके गांव के पहुंचे हुए आदमी ने उनको मंदिर में प्रवेश करने से रोका। वे आदमी कि पहुंच और खौफ इतना था कि पुलिस ने भी सुरेशभाई कि कम्प्लेन दर्ज करने से साफ़ मना कर दिया।

सुरेशभाई ने हार न मानी और वे एसपी तक पहुंचे। एसपी ने उन्हें एसआरपी के जवानों की सुरक्षा के साथ मंदिर में प्रवेश करवाया। उनका कहना है कि अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने मंदिर प्रवेश के लिए इतना सब कुछ अपने अहम् की जीत के लिए नहीं किया था, बल्कि वे अपने आप को एक उदहारण बनाना चाहते थे। वे चाहते थे की एक एक दलित खुद हिम्मत जुटाए और अपने उत्थान के लिए प्रयत्नशील बनें।

चंपा बहन की कहानी : ऐसी ही कहानी है चंपा बहन की। चंपा बहन दलित की सीट पर पंचायत की सदस्या तो बनीं पर उन्हें पंचायत के कामकाज में हिस्सा लेने से रोका गया। पंचायत की ऑफिस में भी उनके साथ छुआछूत होती थी। एक दिन एक घड़े में से चंपा बहन ने पानी पिया। दूसरे दिन जब पानी पीने गई तब घड़ा वहां से गायब हो गया था। चंपा बहन को मालूम था कि घड़ा गायब होने का कारण और कुछ नहीं पर छुआछूत है। उनको पता था कि लोगों की मानसिकता क्या है। उस घड़े में से वे अगर पानी पी लेगी, तो वह पानी और लोगों के पीने के लायक नहीं रहेगा।

एक जज्‍बे के साथ चंपा बहन कहती है, “मुझे बोला गया कि पंचायत में सदस्या भले बनी पर मुझे वहां आने कि कोई जरूरत नहीं। फिर भी मैंने वहां जाना नहीं छोड़ा। वहां मेरे साथ छुआछूत का भेदभाव रखा जाता था, पर मैं कायदे कानून को साथ लेकर अपना काम करना चाहती थी।

Champa-ben

अगर आप सच्चे हैं तो बड़े से बड़ी ताकत आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मुझे पता चला कि उप सरपंच जेनुभा वाघेला को 6 संतान है। कानून के मुताबिक़ अगर आपकी दो से ज्यादा संतान हैं, तो आप चुनाव में बरौर उम्मीदवार खड़े नहीं रह सकते। मैं दलित हूं और महिला हूं, इसलिए मुझे पंचायत जाने से रोका जा रहा है, पर जो कायदे से विपरीत हो कर उपसरपंच बन बैठे हैं उनके खिलाफ बोलनेवाला कोई नहीं है। मेरे ध्यान में ये बात आने से मैंने तुरंत ही कम्प्लेन की। और आज उपसरपंच वाघेला सस्पेंड हो चुके है।”

लेकिन गांव छोड़ने को मजबूर हैं लोग  : पिछले कुछ दिनों दलित लोगों को गांवों को छोडने के किस्‍से भी सामने आ रहे हैं। दलित लोग डर के मारे अपना मकान, खेत-खलिहान, गांव सब छोड़छाड़ कर दूसरी जगह रैन बसेरा ढूंढ रहे हैं। पोरबंदर जिले के भोडदर गांव के मारखीभाई और उनके परिवार का मकान और खेतीबाड़ी को स्‍थानीय ग्राम पंचायत ने तहस-नहस कर दिए जाने पर पिछले दो साल से रोघडा गांव में रह रहे है।

जाफराबाद तालुका के सामत भाई महीडा को गांव के लोगो ने इतना मारा कि उन्होने दूसरे गांव में जाकर अपना पेट पालना ही मुनासिब समझा। आंकोलाळी गांव के लालजीभाई सरवैया नाम के दलित युवान को 2012 में जिंदा जला देने के कारण उनके परिवार के 14 सदस्य फ़िलहाल पलायन कर गए हैं। अहमदाबाद जिले के अळाव गांव के धनजीभाई सोलंकी का मकान गांव के लोगों ने जला कर राख कर दिया। डर के मारे वह जूनागढ़ जिले में जाकर रह रहे हैं। 2009 के एक केस में डीसा तालुका के एक गांव के एक दलित युवान की ट्रेक्टर से ठोकर मार कर हत्या कर दी गई। बाद में भयभीत हो कर इसी गांव के 27 दलित परिवार अपना घर, खेती सब छोड़कर तीन साल से भी ज्यादा साल तक मामलतदार कचहरी के सामने तंबू में रहे।

इसी तरह नवंबर 2014 में खेड़ा जिले के मालावाडा गांव के दलितोने कलेक्टर के पास पीने के पानी की मांग के साथ गए। कहते हैं, इसी बात का गुस्सा निकालने के लिए ठाकुर समुदाय के लोगों ने दलितों की बस्ती में सामुहिक हमला कर दिया। इतना ही नहीं, कुएं में क्रूड ऑइल डालकर पानी बिगाड़ दिया, मकानों और वाहनों में तोड़-फोड़ की। दलितों के पुलिस फरियाद करने पर ठाकुर लोगों ने उनका सामुहिक बहिष्‍कार किया।

इसी साल की एक घटना में हिंमतनगर में राजपूतो द्वारा दलितों के ऊपर हमला किया गया। इस हमले का कारण था दूल्हे की बारात गांव में से निकालना। इस बात की फरियाद करने पर राजपूतों ने दलितो का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। ऐसे कंई किस्से है, जिसमें या तो लोगों ने पलायन किया या तो डर-डर कर जैसे-तैसे कर के अपना जीवन व्‍यतीत कर रहे हैं।

हमारे यहां कानून का उल्लंघन जरूर होता है, पर अगर पता चलने पर उसका पालन भी करवाया जाता है। भारत के सभी व्यक्ति का एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, न कि एक पशु की तरह। सुरेश भाई और चंपा बहन जैसे लोगो ने यह साबित कर दिखाया है कि अन्याय के सामने आवाज़ उठाने पर थोड़ी तकलीफ हो सकती है पर एक न एक दिन आपको आपका हक़ जरूर मिलेगा।

(इस लेख के विचार पूर्णत: निजी हैं , एवं तहलका एक्सप्रेस  डॉट कॉम इसमें उल्‍लेखित बातों का न तो समर्थन करता है और न ही इसके पक्ष या विपक्ष में अपनी सहमति जाहिर करता है। इस लेख को लेकर अथवा इससे असहमति के विचारों का भी तहलका एक्सप्रेस  डॉट कॉम स्‍वागत करता है । आप लेख पर अपनी प्रतिक्रिया  भेज सकते हैं। )

 

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