चाहें कुछ भी कर लें नीतीश कुमार, BJP का दामन छूटना मुश्किल है

अतुल चतुर्वेदी

बिहार में जदयू के अगले लोकसभा चुनावों में 25 सीटों पर लड़ने और बाकी 15 सीटें सहयोगी बीजेपी के लिए छोड़ने की घोषणा के बाद पटना में गर्मी की तपिश के साथ सियासी पारे का तापमान भी अचानक कई गुना बढ़ गया है. ऐसा इसलिए क्‍योंकि सूत्रों के हवाले से माना जा रहा है कि बीजेपी को भरोसे में लिए बिना मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी ने इस तरह की एकतरफा घोषणा कर दी है, जबकि सात जून को एनडीए के सभी घटक दलों की बैठक पटना में होने वाली है. राजनीतिक विश्‍लेषक नीतीश कुमार के इस कदम को बीजेपी के साथ उनकी बढ़ती दूरी के रूप में देख रहे हैं.

दांव और पेंच
सियासी जानकार यह भी कह रहे हैं कि हाल में अररिया लोकसभा और उसके बाद जोकीहाट विधानसभा सीट हारने के बावजूद अचानक जदयू ने अपनी तरफ से बीजेपी के लिए इस तरह की सीट-शेयरिंग फॉर्मूले के दांव को क्‍यों चल दिया? इसका कारण यह बताया जा रहा है कि जदयू यह कतई नहीं चाहती कि 2019 के आम चुनावों में बीजेपी की सहयोगी के रूप में दिखे. इसलिए उसने पहले ही बिहार में ‘बड़े भाई’ बनने का दावा करते हुए ऐसा ऐलान कर दिया.

उसकी एक बड़ी वजह यह भी बताई जाती है कि बीजेपी के नेतृत्‍व में एनडीए को 2014 में बिहार की 40 में से 31 सीटें मिली थीं. जदयू को केवल दो सीटें मिली थीं. इसलिए जदयू के अंदर पहले से ही इस बात की बेचैनी थी कि आखिर इस बार सीट-शेयरिंग फॉर्मूला क्‍या होगा? हालिया उपचुनावों में हार के बाद जदयू खेमे में यह चिंता और भी बढ़ गई थी क्‍योंकि इस बार उनकी सीटों की सौदेबाजी बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह के साथ होनी है. लिहाजा दबाव की रणनीति के तहत जदयू ने ‘बड़े भाई’ की भूमिका वाला दांव चला है. इसी से बात निकली है कि यदि जदयू अपने रुख पर सख्‍त हुई तो क्‍या बीजेपी का दामन छोड़ सकती है?

nitish kumar
2015 में नीतीश कुमार ने महागठबंधन का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन एक बार फिर थामा.(फाइल फोटो)

इस पर राजनीतिक विश्‍लेषकों का स्‍पष्‍ट रुख है कि फिलहाल नीतीश कुमार के पास बीजेपी के अलावा कोई ठोस विकल्‍प नहीं है. 2015 में उन्‍होंने जब राजद के साथ वाले महागठबंधन का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था, तभी यह कहा गया था कि उन्‍होंने बिहार का मुख्‍यमंत्री बने रहने के लिए प्रधानमंत्री बनने की इच्‍छा का त्‍याग कर दिया है. ऐसा इसलिए भी क्‍योंकि तब विपक्ष आज की तुलना में ज्‍यादा कमजोर था और बिखरा हुआ था. ऐसे में उनकी दावेदारी का भी बहुम मजबूत आधार नहीं था.

विपक्षी महागठबंधन
हालिया उपचुनावों में विपक्षी महागठबंधन की सफलता के बाद माना जा रहा है कि 2019 में अलग-अलग राज्‍यों में कांग्रेस जैसे दल बीजेपी के खिलाफ वहां की क्षेत्रीय शक्ति के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ेंगे. इस लिहाज से बिहार में कांग्रेस और राजद मिलकर विधानसभा की तर्ज पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे. लिहाजा यदि नीतीश कुमार, बीजेपी से अलग भी होते हैं तो इस बार राजद की वजह से उनकी महागठबंधन में राह आसान नहीं होगी. ऐसा इसलिए क्‍योंकि अब तेजस्‍वी यादव पूरी तरह से राजद के नेता के तौर पर उभरे हैं और लगातार नीतीश कुमार पर हमले कर रहे हैं.

ऐसे में राजनीतिक विश्‍लेषकों के मुताबिक नीतीश कुमार के पास फिलहाल बीजेपी से अलग होने का कोई विकल्‍प नहीं है. जदयू बस इस तरह की पैंतरेबाजी के जरिये बीजेपी के साथ सम्‍मानजनक सीट-शेयरिंग की चाहत रखती है क्‍योंकि वह जानती है कि इस बार बीजेपी के साथ इस तरह की सियासी सौदेबाजी बेहद मुश्किल होने वाली है.

बीजेपी की मुश्किल
बीजेपी की बिहार में दो सबसे बड़ी मुश्किलें हैं- पहला, पिछली बार बीजेपी को 22, सहयोगी रामविलास पासवान की लोजपा को छह और रालोसपा को तीन सीटें मिली थीं. इस तरह बिहार की 40 में से 31 सीटें एनडीए को मिली थीं. ऐसे में जदयू के साथ इस बार सीट-शेयरिंग से पहले उसको अपने पुराने सहयोगियों का ख्‍याल रखना होगा. दूसरा- बिहार में नीतीश कुमार से बड़ा चेहरा फिलहाल एनडीए के पास नहीं है. उनकी बेदाग और सुशासन बाबू की छवि को बीजेपी चुनावों में भुनाना चाहेगी. लिहाजा जेडीयू की नाराजगी उसके लिए भारी पड़ सकती है. इसलिए सीट-शेयरिंग के उलझाऊ गणित को साधने और उसे कामयाबी की मंजिल तक पहुंचाने के लिए उसको जेडीयू की उतनी ही दरकार है जितनी जरूरत इस वक्‍त जदयू को बीजेपी की है. लिहाजा सूत्रों के मुताबिक दांव-पेंच का ये सियासी खेल केवल एक-दूसरे पर दबाव की रणनीति के तहत खेला जा रहा है.

 

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