जब एक ‘मददगार’ मोबाइल ने ‘कत्ल के सौदागरों’ को दिलाई मौत

संजीव कुमार सिंह चौहान 

ठेके पर बेकसूरों का खून बहाना जिनकी जिंदगी का था मकसद. जिनके निशाने पर थी भारतीय फौज. आखिर वो भी कैसे मारे गए? उसी एक अदद मोबाइल नंबर की बदौलत, जो उनके हमनवाओं ने दिया था बुरे वक्त में उनकी मदद के इरादे से. आखिर कैसे पहुंची उस मोबाइल नंबर से जुड़ी पड़ताल मुकाम तक? ‘पड़ताल’ की तीसरी कड़ी में हम आपको रू-ब-रू करा रहे हैं दिल्ली और पाकिस्तान से जुड़ी ऐसी ही एक सच्ची घटना से.

अंधेरे में लिखा गया संगीनों से काला इतिहास

तारीख 22 दिसंबर, 2000, वक्त रात करीब 9 बजकर 5 मिनट, दिन शुक्रवार, स्थान उत्तरी दिल्ली के थाना कोतवाली क्षेत्र के अंतर्गत स्थित लाल किले के भीतर मौजूद भारतीय सेना की राजपूताना राइफल्स का बेस कैंप. लाल किला परिसर में रोज की तरह आयोजित ‘लाइट एंड साउंड’ प्रोग्राम के समाप्त होते ही, वहां मौजूद सेना के (राजपूताना राइफल्स) बेस कैंप के अंदर गोलियों की तेज आवाजें आने के साथ ही चीख-पुकार और भगदड़ मच गई. यह आतंकवादी हमला था.

हमलावर आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के ‘फिदायीन’ थे. वो सभी पाकिस्तानी थे. इस मामले में भारतीय सेना के कैप्टन एसपी पटवर्धन ने उसी रात थाना कोतवाली में आतंकवादी हमले की एफआईआर नंबर 688/2000 दर्ज कराई. जिसमें सैनिक सहित 3 लोगों की हत्या का जिक्र किया गया था. कई साल तक थाने-कोर्ट-कचहरियों में चले मामले के मुताबिक, हमले में मरने वालों की पहचान अब्दुल्ला ठाकुर, अशोक कुमार और उमाशंकर के रूप में हुई. पड़ताल में जुटी दिल्ली पुलिस को मौके से मिली कागज की एक पर्ची जिस पर लिखा था मोबाइल नंबर, कुछ ए के 56 राइफलें, जिंदा हथगोले और एक रस्सी.

हमले के वक्त छिप गए दिल्ली पुलिस के जवान!

सूत्रों के मुताबिक राजपूताना राइफल्स बेस कैंप में तीनों फिदायीन अंदर ही मौजूद लाल किला संग्रहालय के ऊपर गोलियां बरसाते हुए पीछे की दीवार से कूदकर भाग गए. दिल्ली पुलिस के ही सूत्र बताते हैं कि, हमले के वक्त संग्रहालय की सुरक्षा में दिल्ली आर्म्ड पुलिस फोर्स के हथियारबंद 6-7 जवान मौजूद थे. अचानक गोलियां चलने की आवाज सुनते ही वो सब डरपोक जवान जहां सुरक्षित जगह मिली, जान बचाने के लिए छिप गए.

हालांकि तब से आज तक हवलदार-सिपाहियों की इस कायराना हरकत पर, दिल्ली पुलिस का कोई भी आला-अफसर मुंह खोलने की जुर्रत नहीं कर पा रहा है. बल्कि दिल्ली पुलिस शुरू से ही इस शर्मनाक घटनाक्रम को छिपाने की पुरजोर कोशिशों में ही जुटी रही.

मोबाइल नंबर जो मदद के बजाय ‘मौत’ बन गया

पड़ताल के दौरान दिल्ली पुलिस की टीम को मौके पर सफेद कागज की पर्ची पर लिखा एक मोबाइल नंबर हाथ लगा. मोबाइल नंबर की मदद से दिल्ली पुलिस आतंकवादियों के अड्डों पर पहुंच गई. यह मोबाइल नंबर था लाल किले पर हमले के मास्टरमाइंड लश्कर-ए-तैयबा के पाकिस्तानी आतंकवादी मो. अशफाक उर्फ मोहम्मद आरिफ का.

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हमले के लिए लाल किले के भीतर गए फिदायीनों को मोबाइल नंबर पर्ची पर लिखकर इसलिए दिया गया था, क्योंकि वो पाकिस्तानी थे. उन्हें दिल्ली के भूगोल की जानकारी नहीं थी. जरुरत पड़ने पर वो इस नंबर पर डायल कर के पता कर सकते थे कि, उन्हें कैसे और कहां पहुंचना है? किस्मत ने साथ नहीं दिया. मोबाइल नंबर लिखी वो पर्ची लाल किले की दीवार से कूदते वक्त आतंकवादियों की जेब से मौके पर गिर गई. मोबाइल नंबर की मदद से हाथ आई जानकारी के आधार पर पुलिस ने पूर्वी दिल्ली स्थित गाजीपुर डीडीए जनता फ्लैट पर छापा मारा. वहां से मुख्य साजिशकर्ता मोहम्मद अशफाक उर्फ मोहम्मद आरिफ पुलिस के हाथ लग गया.

फ्लैट में एक औरत रहमाना युसुफ फारुखी भी दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की टीम को मिली. अशफाक उसे अपनी बीबी बता रहा था. अशफाक ने दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल को बताया कि, रहमाना फारुखी से उसका निकाह हो चुका है, लेकिन रुखसती (विदाई) की रस्म अभी बाकी थी. यही बात रहमाना फारुखी भी आज तलक कबूल कर रही है.

षड्यंत्र में एक औरत के कंधे की आड़

मामले की पड़ताल करने वाले और उस वक्त दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल में इंस्पेक्टर रहे सुरेंद्र संड के मुताबिक, योजना भले ही पाकिस्तान में बनी थी, मगर भारत में अंजाम देने के लिए एक अदद औरत की जरुरत इन आतंकवादियों को भी महसूस हुई.

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बकौल दिल्ली पुलिस और अदालत में पेश तमाम दस्तावेजों के, इसके लिए मोटी रकम के दमखम पर तैयार की गई थी, रहमाना युसुफ फारुखी. ताकि लश्कर-ए-तैयबा के इन आतंकवादियों को दिल्ली में छिपने का अड्डा मयस्सर हो सके. हुआ भी वही. मुख्य साजिशकर्ता मोहम्मद अशफाक उर्फ मोहम्मद आरिफ ने बाकायदा भारतीय लड़की से निकाह के लिए भारत के मशहूर अखबार में शादी का विज्ञापन देकर रहमाना युसुफ के साथ निकाह पढ़वा डाला.

देश की आबरू के सौदे में उसकी भी इज्जत लगी दांव पर!

रहमाना कई साल तक तिहाड़ जेल में कैद रही. निचली अदालत ने उसे सजा सुनाई. जेल में बवाल मचाने और अन्य महिला कैदियों से मारपीट का मामला भी रहमाना फारुखी के खिलाफ दर्ज हुआ. आखिर में कई साल तक कोर्ट-कचहरी के धक्के खाने और तिहाड़ जेल की काल-कोठरी की कैद के कलंक का माथे पर बोझ ढोती रही रहमाना फारुखी को दिल्ली हाईकोर्ट ने बा-इज्जत बरी कर दिया. हालांकि पिछले वर्ष (2017) जब मैं रहमाना फारुखी से एक इंटरव्यू के सिलसिले में मिला, तो उसने खुद को बेकसूर-बेदाग बताया.

जेल के जंजाल ने कहीं का नहीं छोड़ा

जो भी हो रहमाना का यह अपना बयान हो सकता है कि, लाल किला हमले से उसका कोई वास्ता नहीं. लेकिन इस मामले में कई साल तक तिहाड़ जेल में रहने के चलते उसकी जिंदगी नरक से बदतर हो गई है. आज उसके पास न रहने के लिए एक अदद छत है. न कोई ऐसा जो उससे उसका दर्द बांट सके.

अदालत से बा-इज्जत बरी होने के बाद भी जेल के दाग ने उससे अपने दूर करा दिए, तो भला अब अपनेपन की उम्मीद किससे और कैसे करे? यहां तक की सगी बड़ी बहन, जिसके गाजीपुर डीडीए फ्लैट में रहमाना का रिश्ता तय हुआ और जहां मुख्य साजिशकर्ता मोहम्मद अशफाक उर्फ आरिफ दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया, वो सगी बहन भी रहमाना से मुंह मोड़ चुकी है.

नागरिक नहीं, निशाने पर थे सेना-लाल किला

मामले के पड़ताली इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड के मुताबिक, फिदायीनों के इस ग्रुप के निशाने पर आम नागरिक नहीं थे. टारगेट पर थी भारतीय सेना और भारत का स्वर्णिम इतिहास. इसके बतौर सबूत, संड बताते हैं कि, लश्कर-ए-तैयबा के इन आतंकवादियों ने घटना वाले दिन और उससे पहले भी परिसर में आयोजित होने वाले लाइट एंड साउंड प्रोग्राम को देखा था. पब्लिक के बीच में बैठकर आम-आदमी की तरह.

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घटना वाली रात ये सब अत्याधुनिक घातक हथियारों से लैस थे. इन्हें अगर आम-नागरिकों को निशाना बनाना होता तो, यह फिदायीन ‘लाइट एंड साउंड’ प्रोग्राम की निहत्थी भीड़ पर भी अंधाधुंध गोलियां बरसा सकते थे. जिसमें कई बेकसूर जानें जा सकतीं थीं. इन लोगों के निशाने पर तो भारतीय फौज थी. इसीलिए इन्होंने राजपूताना राइफल्स के जवानों और बेस कैंप को निशाना बनाया. आतंकवादियों का मकसद यह भी था कि, लाल किले के भीतर मौजूद सेना कैंप पर हमला करेंगे तो उसकी आवाज दुनिया भर में जाएगी.

ये थी लाल किला शूटआउट की ‘पड़ताल’

दिल्ली पुलिस, भारत का तमाम खुफिया तंत्र इस हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विफल साबित हो गया था. हमले की भरपाई कैसे की जाए? इसका तोड़ निकाला गया हमले के दोषियों को नेस्तनाबूद कर देना. इसी भरपाई के क्रम में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 26 दिसंबर, 2000 की रात को मुख्य आरोपी मोहम्मद अशफाक उर्फ मोहम्मद आरिफ पाकिस्तान के एबटाबाद का निवासी, उसकी पत्नी रहमाना युसुफ फारुखी, निवासी गाजीपुर डेयरी फार्म दिल्ली, को गिरफ्तार कर लिया.

पाकिस्तान का रहने वाला और लश्कर का श्रीनगर का जिला कमांडर अबू सूफियान कश्मीर में मुठभेड़ में ढेर कर दिया गया. जबकि उसी रात दिल्ली पुलिस स्पेशल टीम के एसीपी राजवीर सिंह और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा ने दक्षिणी दिल्ली के ओखला इलाके में छिपे अबू श्यामल को मुठभेड़ में मार डाला.

अबू लाल किले में 3 लोगों की जान लेने वाले फिदायिनों में से एक था. वो पाकिस्तानी मूल का था. जबकि हमले के आरोपी तीसरे फिदायीन अबू बिलाल (पाकिस्तानी) को दिल्ली पुलिस ने 10 मई, 2005 को दक्षिणी दिल्ली के ही निजामुद्दीन इलाके में एक एनकाउंटर में मार गिराया.

मामले के पड़ताली अफसर और दिल्ली पुलिस के पूर्व इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड के मुताबिक, 20 फरवरी, 2001 को दाखिल चार्जशीट में कुल 22 आरोपी बनाए गए. 22 आरोपियों में से 12 गिरफ्तार हुए थे, जबकि 3 आतंकवादी मुठभेड़ में मारे गए. 29 अक्टूबर, 2004 तक अदालत में 235 गवाहों की गवाहियां हुईं. जबकि आतंकवादियों की ओर से उनके बचाव में महज एक गवाह की ही गवाही हुई.

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एक आतंकी, 2 फांसी और पांच लाख जुर्माना

मामले के विशेष जज और तीस हजारी अदालत के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज ओपी सैनी ने 31 अक्टूबर, 2005 को मुख्य षड्यंत्रकारी पाकिस्तानी आतंकवादी मोहम्मद अश्फाक को 2 सजा-ए-मौत (फांसी), कुल 51 साल की सजा, 5 लाख 35 हजार 500 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई. 10 अगस्त, 2011 को सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच (जस्टिस वी एस सिरपुरकर और टी एस ठाकुर, ठाकुर बाद में भारत के चीफ जस्टिस भी बने) ने मोहम्मद अशफाक की फांसी की दया याचिका खारिज करके सजा बरकरार रखी.

‘पड़ताली’ जिसने लिखी ‘नजीर’ और जिक्र हुआ फांसी के फैसले में

अपराध, पड़ताल और फैसले होने हैं. सो होते रहते हैं. होते रहेंगे. लाल किला शूटआउट की पड़ताल और पड़ताली मगर हर मायने में बाकी भीड़ में अलग साबित हुए. इस मामले में फांसी की सजा लिखने वाले विशेष जज और दिल्ली की तीस हजारी अदालत के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज ओपी सैनी ने पूरी पड़ताल की तारीफ फैसले में की है. साथ ही पड़ताली अफसर दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के पूर्व इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड की काबिलियत भी फांसी के इस फैसले में दर्ज की है.

इस मामले की पड़ताल के दौरान इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड के खिलाफ बलात्कार सहित अन्य तमाम संगीन धाराओं में भी आपराधिक मामले दर्ज कराए गए थे. ताकि पड़ताल को प्रभावित किया जा सके. अदालत ने हर मामले में पड़ताली को बे-दाग करार दिया.

दुश्मनों की धमकियां जिन्होंने जिद्दी बना दिया

मामले के पड़ताली इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड और उनके परिवार को आतंकवादियों ने जान से मारने की तमाम धमकियां दीं. इन धमकियों का नतीजा यह निकला कि, जाबांज इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड ने देश के इन दुश्मनों को सजा-ए-मौत कराने के लिए वकालत की पढ़ाई की. ताकि लाल किला के हमलावरों को सजा दिलाने में जाने-अंजाने कहीं कोई कोर-कसर बाकी न रह जाए. संड के मुताबिक ऐसी गलती, गलती भर नहीं बल्कि देश के प्रति गद्दारी साबित होगी. छोटे बेटे को वकालत पढ़ाई और बड़े बेटे को दिल्ली पुलिस में ही सब-इंस्पेक्टर बनवा दिया. ताकि उनके परिवार में आने वाली पीढ़ियों पर भी ‘कायर’ का दाग न लग सके.

मिलिए इस ‘पड़ताल’ के ‘पड़ताली’ से

15 जुलाई, 1950 को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के मोहल्ला संकटा देवी में जन्मे सुरेंद्र संड ने यहीं के सरकारी स्कूल से 1967 में दसवीं पास की. 1968 की अपनी हड़ताल से निपटने के लिए दिल्ली पुलिस ने नैनीताल (तब यूपी का एक जिला, अब उत्तराखंड में शामिल) में भर्ती कैंप लगाया. हाई स्कूल पास सुरेंद्र संड ने भी किस्मत आजमाई और 16 जून, 1970 को दिल्ली पुलिस के सिपाही बन गए.

पहली पोस्टिंग राजपुर रोड स्थित ओल्ड पुलिस लाइन में मिली. 1976 में हवलदार बनकर दिल्ली आर्म्ड पुलिस की चौथी बटालियन में पहुंचे. दिल्ली पुलिस की नौकरी करते-करते ही पंतनगर से सन् 1970-1971 में इंटर की परीक्षा पास की. कानपुर वि.वि के अधीन संचालित लखीमपुर खीरी के वाईडी कॉलेज से सन् 1976 में स्नातक किया.

Surendra Sand

हवलदार के बाद बनना सहायक उप-निरीक्षक (एएसआई) था. मगर सर्विस सलेक्शन कमीशन द्वारा आयोजित परीक्षा पास कर के सन् 1981 में डायरेक्ट सब-इंस्पेक्टर बन गए. वर्ष 1994 आते-आते दिल्ली पुलिस के सबसे ज्यादा भगोड़ा घोषित अपराधियों को दबोचने का रिकार्ड अपने नाम लिखवा कर सब-इंस्पेक्टर सुरेंद्र संड को, उस समय दिल्ली के पुलिस आयुक्त एमबी कौशल ने आउट-ऑफ-टर्न प्रमोशन देकर दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर बना दिया.

सन् 1994 से 1997 तक में मध्य दिल्ली जिले में चांदनी चौक थाने के एडिशनल एसएसओ और फिर 1998-1999 में पहाड़गंज थाने और उसके बाद सिविल लाइंस, मुखर्जी नगर, अलीपुर थाने के एसएचओ बने. 26 जनवरी, 1998 को सुरेंद्र संड को राष्ट्रपति पुलिस मेडल मिला. 15 जुलाई, 2010 को अलीपुर थाने के एसएचओ रहते हुए दिल्ली पुलिस से रिटायर हुए.

(लेखक अपराध मामलों से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार हैं)

 

 

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