जरा सोचिये! दाती व आसा राम से ज्यादा क्या हम दोषी नहीं

राजेश श्रीवास्तव

पिछले दिनों एक बार फिर जाने-माने शनि गुरू के नाम से ख्यात दाती महाराज चर्चा में आए। बच्चियों से दुष्कर्म की लंबी श्रृंखला में उनका मामला भी जुड़ गया। दाती महाराज से पहले भी इस क्रम में आसाराम, रामपाल, राम रहीम और वीरेन्द्र देव दीक्षित जैसे बाबाओं की एक लम्बी सूची हमारे सामने आ चुकी है। उधर बहुचर्चित आध्यात्मिक गुरु भय्यूजी महाराज के अचानक आत्महत्या कर लेने की खबर भी बाबाओं के व्यवहार पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। हम इस पर चर्चा तो करते हैं कि इन बाबाओं का कोई जमीर नहीं रह गया है। लेकिन जरा एक बार विचार कर देखिये कि क्या इन बाबाओं की करोड़ों की प्रापर्टी, उनकी ऊंची दुकान और बड़ा रुतबा बनाने में हम दोषी नहीं हैं। इन बाबाओं को इस दुष्कर्म का हौसला देने वाले हम नहीं है। आखिर किस डर से हम तमाम आधुनिक होने का दावा करने के बावजूद अपने परिवार की मासूम लड़कियों को बाबाओं के डेरे पर लेकर जाते हैं। आखिर किस पाप का पुण्य इन बाबाओं के पास है। दरअसल हम सब अंदर से इतना डरे हुए हैं कि हमें लगता है कि अगर हम बाबाओं के पास जाएंगे या फिर उन्हंे धन दान में देंगे तो शायद हमारे पाप कम हो जाएंगे। इसी फेर में हमंे पता ही नहीं चलता कि कब हम अपने पुण्य पाने के चक्कर में बाबाओं के पाप के भागीदार हो जाते हैं।

आप किसी भी बाबा के आश्रम में जाइये तो श्रद्धालुओं की लंबी कतार देखने को मिल जाएगी। खास कर महिला श्रद्धालुओं की। तो फिर दोषी आखिर क्या हम नहीं। सवाल यह है कि इस दौर में भी हमारा समाज ढोंगी बाबाओं की गिरफ्त में क्यों है? हमारे देश में प्रभावी लोगों, राजनेताओं और बाबाओं का गठजोड़ अन्तत: समाज में बिखराव पैदा कर रहा है। इस दौर में धार्मिक आश्रमों के अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसीलिए सभी राजनीतिक दल इन आश्रमों को अपने पाले में करना चाहते हैं। इस चाहत में ये दल धार्मिक आश्रमों के अनुचित क्रियाकलापों को भी नजरअंदाज करते रहते हैं। दूसरी ओर आश्रमों के प्रमुख अपने अनुयायियों को मनोवैज्ञानिक रूप से इस तरह जकड़ लेते हैं कि वे अपने प्रमुख के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहते। दरअसल बाजारवाद के इस दौर में अध्यात्म का जिस तरह से बाजारीकरण किया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूणã है। धर्म के इस बाजारीकरण से लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। आज धर्म को जिस तरह से स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। धर्म के नाम पर आज अधिकांश बाबाओं द्बारा जिस तरह के क्रियाकलाप किए जा रहे हैं वे किसी भी लिहाज से धर्म की परिधि में नहीं आते हैं। बाबाओं द्बारा सुशोभित मंचों से मोह एवं माया को त्यागने के प्रवचन देना तथा अपने निजी जीवन में मोह एवं माया में लिप्त रहना आज एक सामान्य-सी बात हो गई है। धीरे-धीरे एक ऐसा तंत्र विकसित हो रहा है जो अपनी सम्पूर्ण ताकत झोंककर धर्म का व्यवसायीकरण करना चाहता है।

यह तंत्र काफी हद तक अपने उद्देश्य में सफल भी हो रहा है और इसी कारण आज धर्म पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है। ऐसा नहीं है कि अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग केवल इसी काल में ही किया जा रहा है। दरअसल धर्म के नाम पर जनमानस को मूर्ख बनाने की प्रक्रिया प्राचीनकाल से ही शुरू हो गई थी जो आज भी जारी है। आज हालात यह हैं कि धर्म के सहारे ही विभिन्न धर्माचायã एवं मठाधीश अपार धन-दौलत बटोर रहे हैं। हर किसी को धर्म एक ऐसा साधन दिखाई दे रहा है जहां शत-प्रतिशत सफलता की गारंटी है। आज राजनीतिक दल भी इस विचारधारा से अछूते नहीं रहे हैं। वे भी धर्म के नाम पर जनता की भावनाओं को बखूबी भुना रहे हैं। धर्म के इस परिवर्तित स्वरूप ने हमें एक ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां हम यह ही तय नहीं कर पा रहे हैं कि हमें किस रास्ते पर आगे बढऩा है? प्रश्न यह है कि हमारे आध्यात्मिक आका कब तक जनता की भावनाओं को भुनाते रहेंगे और कब तक हम इनके संदिग्ध क्रियाकलापों को नजरअंदाज करते रहेंगे? अगर धर्म का व्यवसायीकरण इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इस समाज से बची-खुची नैतिकता भी समाप्त हो जाएगी और शेष रह जाएंगे इंसान के रूप में आत्माविहीन ठूंठ। उस समय इस समाज की हालत क्या होगी? यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आज देश में कुछ आध्यात्मिक आश्रमों एवं मठों में विभिन्न प्रकार के घिनौने कुकृत्य हो रहे हैं। दरअसल आज बाबाओं का एक वर्ग सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण जिस वातावरण में जी रहा है, वहां वासना के अंकुर का प्रस्फुटन कोई बड़ी बात नहीं है। यदि आज बाबा और साधु-संत ही काम पिपासु बनकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगेंगे तो हम आने वाली पीढ़ी को किस मुंह से नैतिकता की शिक्षा देंगे?

 

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