जो मृत्यु के सामने भी ‘अटल’ रहा, जिसकी “मौत से ठन गई”

पवन चौरसिया

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की लम्बी बीमारी के चलते हुई मृत्यु के समाचार से पूरा देश गहरे शोक एवं सदमे में है. देश ने केवल एक उम्दा राजनेता ही नहीं, बल्कि एक निर्भीक पत्रकार, एक ओजस्वी कवि, एक कुशल वक्ता और उसमे से भी सबसे महत्वपूर्ण, एक ऐसे बेहतरीन मनुष्य खोया है जिसका पूरा जीवन भारत माता और उसकी सौ करोड़ संतानों की सेवा में समर्पित रहा, और शायद जिसकी आलोचना करने के लिए आलोचक भी हिचकिचाएं. अटल बिहारी वाजपेयी भारत के उन चुनिन्दा नेताओं में गिने जाते रहेंगे जिनका सम्मान राजनीतिक विचारधारा और दलगत भावनाओं से ऊपर उठ कर होता है. बहुमुखी प्रतिभा के धनी अटल जहाँ अपनी राजनीतिक शालीनता, सभ्यता, शिष्टाचार के कारण एक शिरोमणि हैं, वहीँ उनकी कविताओं में छुपा गहरा दर्शन, भाव, और राष्ट्रवाद कठोर से कठोर व्यक्ति के ह्रदय में भी संवेदना उत्पन्न करने में सक्षम है.

साल 1988 में जब वे किडनी का इलाज कराने अमेरिका गए थे तब हिंदी के लेखक धर्मवीर भारती को लिखे एक पत्र में उन्होंने मौत को अपने सामने देखकर उसे हराने के जज्बे को “मौत से ठन गयी” शीर्षक वाली कविता के रूप में सजाया था. आयु-सम्बंधित समस्याओं और अनेकों बीमारियों से ग्रसित होने के बावजूद वह योद्धा आज भी मौत से लोहा लेता रहा, या यों कहें कि अंतिम समय तक उसकी “मौत से ठनी रही”.

अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के रूप में तीन बार भारत का नेतृत्व किया. 1996 में वह पहली बार 16 मई से 1 जून तक वे देश के प्रधानमंत्री रहे. उसके बाद 19 मार्च 1998 से 26 अप्रैल 1999 तक और फिर 13 अक्टूबर 1999 से 22 मई 2004 तक वह देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक के रूप में अपना सामजिक जीवन शुरू करने वाले वाजपेयी की भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी पूर्वाधिकारी पार्टी भारतीय जनसंघ की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका रही. वे 1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे. एक पत्रकार के रूप में वे लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और वीर अर्जुन आदि पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन का कार्य भी करते रहे. वाजपेयी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के समर्पित प्रचारक रहे और इसी कारण उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया था. अपनी वाक्पटुता और भाषण-शैली के लिए जाने जाने वाले अटल 1957 में जब पहली बार सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की धुर विरोधी पार्टी जनसंघ के टिकट से बलरामपुर से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे तो उनके भाषण को सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु भी उनकी प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं पाए और यहां तक कह दिया कि यह लड़का एक दिन प्रधानमंत्री बनेगा.

पंडित नेहरु के मुखर विरोधी होने के बावजूद भी वाजपेयी उनके सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ते थे. यहां तक की जब वह पहली बार विदेश मंत्री बने तो विदेश मंत्रालय के कुछ अधिकारियों ने उनको खुश करने के लिए मंत्रालय से नेहरु की तस्वीर हटा दी. वाजपेयी का ध्यान जब इसपर पड़ा तो उन्होंने इसको लेकर कड़ी आपत्ति जताते हुए तस्वीर को वापस लगाने का आदेश दिया. नेहरु की नीतियों के सबसे बड़े आलोचक रहे वाजपेयी ने उनकी मृत्यु के उपरान्त श्रद्धांजलि देते हुए उनकी तुलना भगवान राम और महर्षि वाल्मीकि से करते हुए कहा था कि नेहरु की मृतु से भारत माता और मनुष्यता ने एक उपासक को खो दिया है. ऐसे राजनीतिक शिष्टाचार आज की राजनीति में दुर्लभ हो चुके हैं. हर नेता अपने विपक्षी को प्रतिद्वंदी के बजाए शत्रु मानता है. लेकिन अटल जी ने इससे ऊपर उठ कर एक मिसाल पेश की थी.

कांग्रेस-विरोधी राजनीति के प्रमुख स्तम्भ के रूप में उनका योगदान अतुल्यनीय रहा है. देश के पहले विशुद्ध गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन तमाम राजनीतिक पंडितों के ज्ञान को गलत साबित कर दिया था जिन्होंने यह भविष्यवाणी की थी कि अपनी हिंदुत्व की विचारधारा के कारण भाजपा कभी केंद्र में सरकार नहीं बना पाएगी. वाजपेयी ने अपनी उदार छवि, बेदाग़ राजनीतिक कैरियर और कुशल व्यक्तित्व के दम पर 30 से भी अधिक दलों के साथ मिल कर सफलतापूर्वक सरकार चलाई और भाजपा की तथाकथित राजनीतिक ‘अछूत’ पार्टी होने वाली धारणा को बदला. वाजपेयी ने कश्मीर समस्या को सुलझाने और कश्मीरियों के दिलों को जीतने को लिए अनेकों प्रयास किये जिसकी वजह से घाटी में शांति आ सकी. उनका मानना था कि कश्मीर को आज “इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत” के दम पर ही जीता जा सकता है. उनकी उदारवादी नीतियों की वजह से कई बार उनकी पार्टी/सरकार और आरएसएस के बीच तनाव भी हुआ लेकिन उसको भी अटल जी ने अपने बड़प्पन और समझदारी से कम किया.

अटल जी दिल से जितने कोमल थे, अपने इरादों में उतने ही द्रण. अपने साहस से वह देश के समक्ष आई हर चुनौती को भेदने में सफल रहे. 1998 में पूरी दुनिया, विशेष रूप से अमरीका के भारी दबाव के बावजूद भी वह भारत को परमाणु बम के सफल परीक्षण लिए प्रतिबद्ध रहे जिसके चलते भारत आज उन चुनिंदा मुल्कों कि फ़ेहरिस्त में शामिल है जिनके पास अपने शत्रु का सर्वनाश करने की शक्ति रखने वाले परमाणु बम हैं. उसके बाद 1999 में कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठियों के आक्रमण को समाप्त करने के लिए उन्होंने भारतीय सेना को ‘ऑपरेशन पराक्रम’ चलाने का आदेश दिया जिससे भारतीय सेना पाकिस्तान को सबका सिखा सकी. कई सैन्य अधिकारियों और नीतीकारों के भड़काने के बावजूद भी उन्होंने भारतीय सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करने की स्वीकृति नहीं दी क्योंकी वह समझते थे कि ऐसा कर के भारत कारगिल युद्ध के समय वैश्विक स्तर पर बनी अपनी गुडविल और सहानुभूति को खो देगा जो कश्मीर मुद्दे पर उसके पक्ष की कमज़ोर कर सकता है. उनकी इसी कूटनीति का प्रभाव यह पड़ा कि परमाणु परीक्षण के बाद अमरीका द्वारा लगाए अनेकों प्रतिबंधों को अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने स्वयं ही हटा दिया जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में बड़ी सहायता मिली.

उनकी सरकार के खिलाफ लाया गया अविश्वास प्रस्ताव, जिसको वह केवल एक वोट से हार गए थे और जिसके कारण उनकी सरकार गिर गई थी, उनकी नीतिगत और आदर्शवादी राजनीति का एक अद्भुत नज़ारा था. वे चाहते तो सांसदों की ख़रीद-फिरोखत करके (भारतीय राजनीति के मानकों के हिसाब से ये कोई बड़े बात नहीं है) बड़े ही आसानी से अपनी सरकार को गिरने से बचा सकते थे लेकिन उन्होंने अपने आदर्शों को सत्ता-मोह से ऊपर रखा और नैतिकता से कोई समझौता किये बिना अपनी सरकार की बलि दे दी.

ऐसा बड़े दिल वाला व्यक्ति अजातशत्रु होता है क्योंकि उसके दुश्मन भी उसके गुणों से प्रभावित हो जाते हैं. और वही व्यक्ति महान ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के ‘philosopher king’ का जीवित उदाहरण बन कर दुनिया को एक नया मार्ग दिखाता है. ऐसे में अटल जी के जन्म-दिवस को भारत सरकार द्वारा ‘गुड गवर्नेंस डे’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा करके उनके व्यक्तित्व साथ पूर्ण न्याय किया है. भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेई दरअसल ‘विश्व-रत्न’ हैं जिन्होंने समस्त विश्व को अपने आदर्शों से प्रभावित किया

है. अटल जी महज़ एक व्यक्ति नहीं है, वह एक क्रांतिकारी-राष्ट्रवादी विचार हैं. और व्यक्ति मरते हैं, विचार नहीं मरा करते. वे जीते हैं हर उस भारतीय के मन में जो भारत के उत्थान और पुनर्निर्माण के लिए समर्पित है. उनकी कविता के यह शब्द ही उनको श्रधांजलि देने में सक्षम हैं.

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज़्र बनाने

नव दधीचि हड्डियां गलाएं…

आओ फिर से दिया जलाएं…

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.)

 

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