…….तो क्या होता है जेहन में

pankaj-mishraपंकज मिश्रा
जब आप रिसेप्शन पर किसी को बैठाते है , तो क्या होता है जेहन में , जब आप एयरहोस्टेस के लिए कुंवारी होना , लंबी और सुंदर होना एलिजिबिलिटी क्राईटेरिया बनाते है तो क्या होता है जेहन में जबकि होस्पिटैलिटी का इन से कोई सम्बन्ध नही होता , बॉस की सेक्रेटरी ही मुहावरा क्यों बनता है जेहन में , रेज़र या आफ्टर शेव या मेंस वियर , अंडर वियर के विज्ञापन में औरत क्यों होती है  , क्या होता हैं तब जेहन में …..
तब जेहन में हो चाहे जो , लेकिन इस जेहनियत को रोज रोज पूरी समाजी स्वीकृति से परोस कर क्या इस खुराक की आदत नही डॉली जाती …….. पर्दा , घूंघट , दुपट्टा तो अपने आप रिजेक्ट होते जा रहे है कम या तेज़ गति से , छोटे  टाइट फिटिंग के कपड़े , अंतः वस्त्रों को लेकर शर्म , पीरियड्स को लेकर संकोच  , मेल डॉक्टर्स के सामने तन और मन को खोल देने चीज़ें अब उतनी वर्जित नही रह गयी है , लड़कियों को पढ़ाना सहज स्वीकार्य है , उनकी नौकरी भी नॉर्म्स की तरह एक्सेप्टेड है , स्त्री पुरुष सम्बन्ध को लेकर बाते जरूर होती है लेकिन दबे छुपे स्वरों में …
तो देखा जाए तो सामन्ती पितृसत्ता की जकड़ तो समाज की गतिकी से स्वतः कमजोर हो रही है लेकिन उसके बरक्स औरत का कमोडी फिकेशन ज्यादा तीव्र गति से बढ़ रहा है | जो चीज़ कमोडिफाई होगी वह तो बिकेगी ही , बाजार में है तो उसे सुलभ होना पड़ेगा ही  , कीमत कम हो ज्यादा हो , कोई खरीदेगा , कोई लूटेगा और कोई इस कुंठा में जीयेगा , जैसे हम आप सब , अपनी पहुँच से दूर अन्य उपभोता वस्तुओं के लिए अक्सर होते ही रहते है , हमारी लार क्या महंगे साजो सामान के लिए नही टपकती,  तो फिर स्त्री यदि माल है , और सुलभ नही है तो उसके लिए क्यों न टपके “| कुंठा निर्माण के इस केंद्रीय तत्व को पहचानने की जरूरत है क्योंकि मैं तो तंदूरी मुर्गी हूँ गटका ले मुझे अल्कोहल से , शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुई , जैसी संस्कृति तो लगातार पोसी और परोसी जा रही है , उसे सिस्टम भी एक कारक के तौर पर महत्व नही देता | रही बात पितृसत्ता , सेक्स को लेकर तमाम वर्जनाएं , स्त्री के असूर्यमपश्या होने की ठोस अवधारणाएं  , स्त्री पुरुष परस्पर आकर्षण , उद्दीपन के आलम्बनों को सायास अदृश्य और अगम्य बनाये रखने से उसके दर्शन आतुर , स्पर्श कातर समाज का , तो इसका निर्माण सदियों से होता आया है | यह धीरे धीरे ही सही नष्ट होगा ही , लेकिन इसे भोगवाद के खाद पानी से इसी तरह  लगातार सींचा जाता रहेगा तो राह मुश्किल से मुश्किलतर होती जाएगी | यह अवैध और अश्लील गठबंधन दोनों के लिए मुफीद है | इसीलिये मीडिया केंद्रीय कारक को जानबूझ कर ओझल करता रहता है और बहस का सारा केंद्र कुंठित दिल और दिमाग पर टिका देता है , कभी सोचिये कि क्या यह सायास नही है | ” यह हम बदलेंगे जग बदलेगा ” जैसी भाववादी अवधरणा पर तो नही टिका है | विचार हवा में नही जमीन पर बनते है , बीज हवा में नही जमीन में अंकुरित होता है …. जमीन पहचानना जरूरी है , हवा में लाठी भांजने से कुछ नही होगा |
इस समाजी मनोरचना को जब उपभोक्तावाद की वैधता से लैस करदिया जाएगा तो इस दुरभिसंधि को सिर्फ , अश्लील नज़र , अश्लील सोच , कुंठित मन जैसे भाववादी तर्कों से परास्त नही किया जा सकता …. इसकी जड़ें इसी समाज में है , किसी के मन में कम या किसी के जेहन में ज्यादा …
 

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