दारूल कज़ा न अदालतें हैं, न इनका फैसला मानना जरूरी: प्रो फ़ैज़ान मुस्तफा

नई दिल्ली। हर जिले में एक दारूल कज़ा खोलने पर विचार करने संबंधी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बयान के बाद विवाद खड़ा हो गया है. बोर्ड के इस बयान से यह धारणा बनी कि मुस्लिम समाज को एक अलग न्यायिक व्यवस्था की जरूरत है. इस मसले पर पेश हैं संविधान विशेषज्ञ और हैदराबाद में स्थित देश के प्रमुख लॉ यूनिवर्सिटी ‘एनएएलएसएआर’ नेशनल अकादमी लीगल स्टडिज एंड रिसर्च के वीसी प्रोफेसर फ़ैज़ान मुस्तफा से पांच सवाल.

प्रश्न 1- मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि दारूल कज़ा देश भर में खोले जाएंगे. इसे आप किस तरह से देखते हैं?

उत्तर – देश में पहले से ही लगभग 100 दारूल कज़ा हैं. अब 100 और खुल जाएंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर्सनल लॉ बोर्ड को इसमें सुधार करना चाहिए. मेरी राय यह है कि दारूल कज़ा में फैसला देने वालों में एक महिला को जरूर शामिल किया जाए. इसके अलावा अगर सामाजिक कार्यकर्ता, रिटायर्ड जज, वकील या देश के कानून के बारे में जानकारी रखने वाले व्यक्तियों को भी इसमें शामिल किया जाए, तो इससे फैसले बेहतर हो सकते हैं.

प्रश्न 2 – जब देश में अदालतें हैं तो मुसलमानों के लिए अलग से दारूल कज़ा की क्या जरूरत?

उत्तर – सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दारूल कज़ा समानांतर न्यायिक व्यवस्था नहीं है. कोई अलग अदालत बनाए, वो मना है. कोर्ट ने कहा है कि यह निजी अनौपचारिक विवाद निपटान तंत्र है. कानून इस बात की इजाजत देता है कि कोई अपने मसलों को अदालत के बाहर मध्यस्थता से हल कर ले. ऐसा नहीं है कि जो लोग इनमें जाते हैं कि उनका देश के संविधान में यकीन नहीं है, या देश की विधि व्यवस्था में भरोसा नहीं है. देश की विधि व्यवस्था खुद इस बात की इजाजत देती है कि आप अपने दीवानी मामले, अगर चाहें तो अदालत के बाहर आपसी सलाह-मशविरे से या किसी के बीच-बचाव से हल करा सकते हैं.

प्रश्न 3 – दारूल कज़ा की कानूनी स्थिति क्या है?

उत्तर – सुप्रीम कोर्ट ने सात जुलाई 2014 को विश्वलोचन मदन मामले में फैसला दिया था कि दारूल कज़ा अदालत नहीं है. यह समानांतर न्यायपालिका नहीं हैं. यह मध्यस्थता काउंसलिंग केंद्र हैं. यह वैध हैं, असंवैधानिक नहीं है, लेकिन इनके आदेश की कोई कानूनी वैधता नहीं है. जो मानना चाहे मान ले, नहीं मानना चाहे तो अदालत चला जाए. यह ऐसा है जैसे आपकी गली में झगड़ा हो जाए और आप मौहल्ले के किसी बड़े बुजुर्ग के पास झगड़ा सुलझाने के लिए जाएं. यह वही मामले सुनते हैं जो पर्सनल कानून से संबंधित हों, यानी परिवार जैसे शादी, तलाक, उत्तराधिकार, विरासत आदि से संबंधित हों. मुस्लिम पर्सनल लॉ चार-पांच मामलों पर ही लागू होता है.

प्रश्न 4 – क्या दारूल कज़ा खाप पंचायतों का ही दूसरा रूप हैं?

उत्तर – दोनों में फर्क है. खाप पंचायतें अक्सर आपराधिक मामले में फैसला सुना देती हैं. देश का आपराधिक कानून सारे समुदायों के लिए एक है. आपराधिक मामलों में एक पक्ष सरकार होती है. अभियोजन सरकार करती है. खाप पंचायतों ने अक्सर फैसले आपराधिक मामले में दिए हैं जो बिल्कुल गलत हैं. खाप पंचायतों के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल अपने फैसले में कहा है कि खाप पंचायतों को आपराधिक मामले देखने का कोई अधिकार नहीं है. दारूल कज़ा आपराधिक मामले पर सुनवाई नहीं करते हैं. खाप पंचायतें अपने फैसले जबर्दस्ती लागू करती हैं. अगर आप उनके फैसले नहीं मानेंगे तो आपको गांव में घुसने नहीं दिया जाएगा. आपको मारा पीटा जाएगा. दारूल कज़ा अपने फैसले को जबर्दस्ती लागू करने के लिए कोई कदम नहीं उठाते हैं. लोग दारूल कज़ा के पास रजामंदी से जाते है कि उनके मामले का फैसला कर दे.

प्रश्न 5 – यह पहले से चले आ रहे हैं तो इन पर अब विवाद क्यों हो रहा है?

उत्तर – दारूल कज़ा बहुत पहले से हैं. 100 से ज्यादा दारूल कज़ा काम कर रहे हैं. 74 पर मैंने अध्ययन किया है. यह विवाद इसलिए हुआ है कि किसी आदमी ने यह कह दिया कि हम हर जिले में दारूल कज़ा खोलना चाहते हैं. उन्हें यह बयान नहीं देना चाहिए था. इसके बाद कुछ लोग ध्रुवीकरण की कोशिश में लग गए. उन्होंने इस पर विवाद कर दिया. ऐसा नहीं है कि मुसलमानों को देश की अदालतों पर यकीन नहीं है. वे औपचारिक और अनौपचारिक दोनों व्यवस्थाओं का इस्तेमाल करते हैं. इस पर हुई बहस प्रेरित, ध्रुवीकरण करने वाली और मुसलमानों को खराब दिखाने के लिए की गईं.

 

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