देश में एनकाउंटर की शुरुआत करने वाले अफसर के पहले एनकाउंटर का किस्सा

संजीव कुमार सिंह चौहान 

भारत में पुलिस मुठभेड़ों के ‘जनक’ के रुप में पहचाने जाने वाले पूर्व आईपीएस सीमा सुरक्षा बल के रिटायर्ड महानिदेशक और दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा के मुताबिक आम इंसान वाला दिल ही पुलिसकर्मी के सीने में भी धड़कता है. अगर यह सच न होता, तो 1970 के आसपास चंबल घाटी की खूंखार महिला डकैत ‘गुल्लो’ की हमारे एक दारोगा के सीने में उतरी गोली का खून और घाव अजय राज शर्मा को शायद कभी रुला नहीं पाते.

वक्त जरुर बीत गया है. मैं पुलिस की नौकरी से रिटायर हो चुका हूं. मगर उस बहादुर दारोगा के सीने पर चंबल की महिला डाकू गुल्लो की राइफल से निकली गोली का वो ज़ख्म मेरी आंखों में आज भी जस-का-तस मौजूद है. उस जाबांज दारोगा का नाम था माहबीर सिंह.

अजय राय बताते हैं, ‘उन दिनों नया-नया आईपीएस बना था. सोचता रहता था कि, कुछ ऐसा कर गुजरूं, जिससे काडर सूबा (उत्तर प्रदेश पुलिस) ही नहीं वरन् देश पहचाने. इस ख्वाहिश को पालते-पोसते चार साल का लंबा वक्त गुजर गया. 1966 में यूपी काडर का आईपीएस बना और 1970 में हसरत पूरी करने का मौका हाथ लग पाया. उस निहत्थे मगर जांबाज दारोगा की क्षत-विक्षत लाश देखकर भूल गया कि, मैं एक आईपीएस अफसर हूं. मौके पर मौजूद भीड़ से बेपरवाह होकर, मैं एक  बालक की मानिंद बिलख पड़ा. मन में ठान लिया था… दारोगा की इस शहादत स्थल पर गिरे अपने एक-एक आंसू का बदला इससे भी भयंकर लूंगा.

हर पुलिस वाला गलत नहीं होता

अजय राज शर्मा

अजय राज शर्मा

इसके आगे अजय कहते हैं कि हर पुलिस मुठभेड़ फर्जी ही होती है! ‘फर्जी-मुठभेड़ों’ में हुई हर मौत का ‘कॉन्ट्रैक्ट’ तो ऐसे समझो, जैसे पुलिस ही ‘साइन’ करती है. मैं इन तमाम बातों/ चर्चाओं कतई विश्वास नहीं करता. हां, कहीं कभी-कभार ऐसा हो सकता है. इससे मैं इनकार नहीं करता. मैंने और मेरी शागिर्दी में किसी और ने, मेरी पूरी नौकरी में तो कम से कम ऐसा कोई काम नहीं हुआ या होने दिया, जिसके बाद मुझे कभी खुद पर शर्मिंदा होना पड़ा हो.

निहत्थे जाबांज की नृशंस हत्या ने रुला दिया था

दारोगा महाबीर सिंह उन दिनों आगरा की तहसील खेरागढ़ के थाना खेरागढ़ प्रभारी (थानाध्यक्ष) थे.अजय शर्मा ने आईपीएस सेवा तो 1966 में ही ज्वाइन कर ली थी. उन दिनों मगर मैं आगरा में सहायक पुलिस अधीक्षक (एएसपी अंडर-ट्रेनिंग) के पद पर पुलिसिंग की बारीकियां थाने-थाने- चौकी-चौकी जाकर सीख रहे थे. तभी निहत्थे मगर दिलेर दारोगा महाबीर सिंह की चंबल घाटी के कुख्यात जंगा-फूला गैंग की महिला डकैत गुल्लो द्वारा गोली मारकर हत्या कर दिए जाने से यूपी पुलिस महकमे में कोहराम मच गया.

वाकई में यूपी पुलिस का ‘बीर’ था महाबीर सिंह

बकौल अजय राज शर्मा, मौके पर मौजूद चश्मदीदों ने बताया कि, जंगा-फूला गैंग ने एक स्कूल की पूरी क्लास का ही अपहरण कर लिया. करीब 30-35 बच्चों को अपहरण करके चंबल के डाकू जिस बस में ले जा रहे थे, उसी बस में बा-वर्दी दारोगा महाबीर सिंह भी सफर कर रहे थे. डाकूओं ने निहत्थे दारोगा महाबीर सिंह को बस से उतरकर भाग जाने का मौका दिया. महाबीर सिंह जिद पर अड़े रहे कि, अपहृत स्कूली बच्चों से भरी बस उनकी लाश के ऊपर से ही जाएगी. बात बढ़ती गई. इसी बीच दारोगा महाबीर सिंह को मौका मिला डाकू कुंवरजीत गड़रिया की राइफल छीनने का… और वो 25-30 हथियारबंद डकैतों से निहत्था होते हुए भी अकेले ही भिड़ गए. बात बिगड़ती और गैंग को फंसता हुआ देखकर गैंग लीडर फूला की प्रेमिका महिला डकैत गुल्लो ने राइफल की गोली यूपी पुलिस के ‘बीर’ पुलिस अफसर महाबीर के सीने में उतार दी.

बीर’ की शहादत ने ‘जिद्दी’ और ‘जज्बाती’ बनाया

उस दिन ऐसे यूपी पुलिस के ‘बीर’ दारोगा महाबीर सिंह की बहादुरी के अजय राज शर्मा कायल तो हुए ही. मगर 30 हथियारबंद डाकूओं से निहत्थे भिड़ने के बाद ऐसी शहादत हासिल करने वाले महाबीर की मौत का बदला और अपने एक-एक आंसू का हिसाब पूरा करने की कसम भी घटनास्थल से खाकर लौट आये चुपचाप. आईपीएस की नौकरी में यह पहला ऐसा मौका और घटना थी, जिसने उन्हें जिद्दी और जज्बाती बना डाला था.

चंबल की सफाई का जिम्मा मिला तो सर्किट हाउस में दफ्तर जमा लिया

सन् 1970 के मई-जून महीने में एएसपी से प्रमोट होकर पुलिस अधीक्षक बना दिए गए. अजय राज शर्मा के इरादों के मद्देनजर यूपी पुलिस ने प्लान किया ‘ऑपरेशन चंबल घाटी’… और इस ऑपरेशन की कमान दे दी अजय राज शर्मा के हाथो में. पोस्ट, हथियार-गोला-बारुद और मनमर्जी के जाबांज, पीएसी की एक स्पेशल कंपनी फोर्स आदि-आदि तो मिल गए, मगर बैठने के वास्ते कोई दफ्तर नसीब नहीं हुआ. लिहाजा आगरा सर्किट हाउस के एक कोने में डेरा जमा दिया.

जिद पूरी करने का मौका मिला तो सीमा तोड़ कर घुस गए

एसपी ऑपरेशन चंबल बनते ही शिकार की तलाश में जुट गए. शिकार था वही जंगा-फूला गैंग, जिसकी महिला डाकू गुल्लो ने, निहत्थे ‘बीर’ दारोगा महाबीर सिंह का सीना गोलियों से छलनी करके, अजय राज शर्मा को उसके शहादत स्थल पर बच्चों की मानिंद बिलख बिलख कर रोने पर मजबूर करने के साथ ही जिद्दी भी बना डाला था.

हुनर’ जिसने जल्दी ही वो ‘जानलेवा जिद’ पूरी करा दी

Encounter in Srinagar

मेरे पास अपना एक हुनर था. जिस बदमाश या गैंग को टारगेट कर लेता, उसमें फूट डलवाना और उसकी मुखबिरी किसी भी कीमत पर करा लेना. जैसे ही  पता चला कि, जंगा-फूला गैंग रात के वक्त थाना धौलपुर (धौलपुर उस वक्त राजस्थान राज्य का सब-डिवीजन था, जिला बाद में बना) के गांव ‘तोर’ में आकर रुकेगा. मामला जरुर यूपी पुलिस की सीमा से बाहर था, मगर हिम्मत और हथियारों के दमखम पर दूसरे राज्य की सीमा में जाकर ‘तोर’ गांव को घेर लिया. मामले संभावित खूनी मुठभेड़ का था, सो कानूनी पचड़े में फंसने से बचने के लिए इलाके के एडिश्नल एसपी धौलपुर (राजस्थान पुलिस) के घर पर ही जा पहुंचा. दिन के तीन बजे ‘तोर’ गांव में दुश्मन गैंग घेर लिया. कई घंटे दोनो ओर से गोलीबारी हुई. छिपते-छिपाते गोलियों की बरसात इस कदर होने लगी कि, कौन सी और किसकी गोली किसके सीने में जाकर सो जाएगी…? इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल होने लगा.

दिन के उजाले में ही ढेर कर दिए थे तीन डाकू

रात का अंधेरा घिरने का इंतजार भला कौन करता? बेताबी थी यूपी पुलिस के ‘बीर’ सब-इंस्पेक्टर महाबीर सिंह की शहादत और उस शहादत स्थल पर गिरे अपने एक एक आंसू का हिसाब चुकता करने की. सो दिन में ही गैंग के डाकू लज्जाराम पंडित, कुंवरजी गड़रिया (जिसकी राइफल छीनने की कोशिश निहत्थे सब-इंस्पेक्टर महाबीर सिंह ने की थी और शहीद हो गए) और एक और डाकू को गोलियों से भून डाला. इसके बाद रात का अंधेरा छाने लगा. तो उस अंधेरे में भी हमने और डाकूओं ने अपने अपने हथियारों की गोलियों की चमक और हथगोलों की रोशनी से ‘उजाले’ का इंतजाम कर लिया था.

आज भी याद आते हैं एसपी नारायण सिंह

Lucknow Encounter 1

(फोटो: रॉयटर्स)

अपने इलाके के ‘तोर’ गांव में चंबल घाटी के सबसे खूंखार डाकू जंगा-फूला गैंग की कई घंटे से चल रही मुठभेड़ की खबर एडिश्नल एसपी कल्याण सिंह से सुनकर उस समय भरतपुर (राजस्थान) के पुलिस अधीक्षक नारायण सिंह भी दल-बल के साथ मौके पर पहुंच गए. मुठभेड़ वाले दिन नारायण सिंह जयपुर में थे. जो भरतपुर से बहुत दूर था. एसपी साहब कई घंटे से खूनी मुठभेड़ में जुटी हमारी टीम को खाने के लिए बहुत सारी रोटियां और सब्जी बड़े-बड़े टिफिन में भर कर ले गए थे. यह देखकर उनके सम्मान में मेरी नजरें झुक गयीं. उन्हें सैल्यूट किया इस बात के लिए कि उनके इलाके में आकर दूसरे राज्य की जो पुलिस टीम एक के बाद एक डकैतों की लाशें बिछा रही है, वे उस पुलिस टीम को भर पेट खाना लेकर पहुंचे थे. रात के वक्त डाकूओं ने गांव के तबेलों में बंधे जानवर खोल दिए, ताकि उनकी आड़ लेकर वे सुरक्षित निकल जाएं.

डाकूओं की यह जुगत अनुभवी एसपी नारायण सिंह ने भांप ली. उन्होंने तुरंत ही गांव के तमाम तबेलों (जहां जानवर बंधते हैं) आग लगवा दी. इससे डाकूओं में भगदड़ मच गई. रात भर और अगले दिन तक मिलाकर कुल 22 घंटे गोलियां चलीं. बाद में पता चला की आईपीएस करियर की मेरी उस पुलिस मुठभेड़ में जंगा फूला का आधा गैंग (13 डाकू मारे गए) साफ हो चुका था. डाकूओं की लाशों की गिनती करते वक्त मुझे लगा कि मेरी जिद, और दारोगा महाबीर सिंह की शहादत पर गिरे मेरी आंख के एक एक आंसू का हिसाब-किताब बराबर हो गया.

मुठभेड़ के लिए गोलियों के साथ दिल-दिमाग भी जरुरी

दबंग पुलिस अफसर नारायण सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं. मगर अपने आईपीएस करियर की ‘तोर’ गांव की उस पहली पुलिस मुठभेड़ की उनके साथ तमाम यादें आज भी ताजा करके अजयराज शर्मा खुद को ‘तन्हा’ महसूस करते हैं. बकौल अजयराज शर्मा, पुलिस अधीक्षक होते हुए भी, नारायण सिंह ने गोली चलाने में गुरेज नहीं की. उन्होंने खुद भी उस मुठभेड़ में तीन डाकू गोलियों से भून डाले थे. पुलिस की असली मुठभेड़ों में अमूमन ऐसा कम ही देखने को मिलता है, जिसमें आला-पुलिस अधिकारी मौके पर वक्त रहते पहुंच जाए. अगर पहुंच भी जाए तो उससे इस बात की उम्मीद कम ही की जाती है, कि जनाब गोली भी चला पाएंगे या नहीं! मुठभेड़ के लिए गोलियों के साथ, दिल और दिमाग दोनो की जरुरत होती है. क्योंकि असली मुठभेड़ में कौन मरेगा ? इसका पता पुलिस-बदमाश के किसी भी ज्योतिषी को नहीं मालूम होता है.

जब मैं राजस्थान पुलिस को ‘उधार’ दिया गया

पहली मुठभेड़ की बातें याद करते हुए अजय राज शर्मा बताते हैं कि, ‘तोर’ गांव की वो मुठभेड़, जिसने चंबल घाटी और वहां मौजूद गैंगों में कोहराम मचा दिया था, अजय शर्मा को निजी तौर पर और एक आईपीएस अधिकारी के बतौर काफी लाभ मिला. उस मुठभेड़ के बाद का एक बाकया सुनाते हुए वो बताते हैं कि, कुछ समय बाद भरतपुर के एसपी और उस मुठभेड़ में तीन डाकूओं को मार गिराने वाले नारायण सिंह ने एक बार उत्तर प्रदेश पुलिस के उप-महानिरीक्षक (डीआईजी डकैती निरोधक) राधेश्याम शर्मा (अब स्वर्गवासी) से पूछा, ‘शर्मा जी यह तो बताओ..इस पंडित आईपीएस (अजय राज शर्मा) लड़के को कहां से छांटकर/ ढ़ूंढ़कर लाये हो? बहुत तेज है. इसे कुछ समय के लिए मुझे (राजस्थान पुलिस को) दे दो.’ बाद में नारायण सिंह सर की दरखास पर अजय शर्मा को कुछ दिनो के लिए राजस्थान पुलिस को ‘मुठभेड़’ की ट्रेनिंग देने के लिए भी ‘उधार’ दिया गया था.

(लेखक अपराध मामलों से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार हैं)

 

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