नोटबंदी : अब कालेधन के खिलाफ ये कदम उठाएंगे मोदी? बदल सकती है भारतीय राजनीति..!

modi-and-oppostion_geसौरभ द्विवेदी

नई दिल्‍ली। कालेधन के खिलाफ केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले के बाद राजनीतिक पार्टियों को अज्ञात स्रोतों से मिलने वाले चंदे की राशि आमजन के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। जनता को लगने लगा है कि अब राजनीति पार्टियों को भी अपने चंदे का हिसाब-किताब सार्वजनिक करना चाहिए। यही वजह है कि चुनाव आयोग ने ऐसी पार्टियों पर नकेल कसने की कमर कस ली है, जिन्होंने रजिस्ट्रेशन तो सालों पहले करा रखा है, लेकिन 2005 के बाद से बीते दस वर्षों मे एक भी चुनाव नहीं लड़ा है।

आपको बता दें कि भारत एक लोकतांत्रिक बहुदलीय प्रणाली का राष्ट्र है, जिसमें लोकतंत्र द्वारा जनता की आवाज मजबूती से उठाने के लिए कुछ नियमों और शर्त के दायरे मे रखकर पार्टियों को अनुमति प्रदान हो जाती है, किंतु मुख्य राजनीतिक धारा मे अब तक कुल 7 राष्ट्रीय दल ही उभरकर सामने आए हैं, वहीं तमाम क्षेत्रीय दल हैं, जिनमें 200 दलों ने पिछले दस वर्षों मे कोई चुनाव नहीं लड़ा है।

अहम बात यह है कि ऐसी पार्टियां सीधे तौर पर चुनाव के समय विपक्षी पार्टी के सामने एक ही प्रकार के नाम के व्यक्ति को चुनाव मे खड़ा कर लेन-देन का काम करती है। परोक्ष रूप से सहयोग करने का काम भी करती है। ऐसी तमाम पार्टियां संदेह के घेरे मे हैं, जो सिर्फ और सिर्फ मनी लांड्रिंग का काम करने मे मशगूल पाई जाती हैं।

दरअसल, ऐसी पार्टियों पर नकेल केवल चुनाव आयोग कस सकता है, क्‍योंकि वर्तमान केंद्र सरकार हो या पूर्ववर्ती कांग्रेस की मनमोहन सरकार, किसी ने भी राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने मे दिलचस्‍पी नहीं दिखाई है। हालांकि कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर चुके हैं। संभव है कि शीघ्र ही राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे मे लाने हेतु सुप्रीम कोर्ट का कोई बड़ा निर्णय आ सकता है, लेकिन अभी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नोटबंदी के बाद से नगदी के रूप मे तमाम पार्टियां 8 नवंबर से पहले लिए गए 1000 और 500 के नोट को दिखाकर काले को सफेद करने का भरपूर प्रयास कर सकतीं, या फिर कर रही हैं। केन्द्र सरकार ने इस दिशा मे कछ नियम जरूर बनाए हैं, किंतु काले को सफेद करने वाले माफिया इतने चतुर होते हैं कि वे कानून की आंखो मे उसी दायरे मे रहकर धूल झोंकते रहते हैं। इसमें तमाम तरह के एक्सपर्ट और बैंक अधिकारी भी मशगूल पाए जाते हैं, जिनका काला चिट्ठा जनता के सामने नहीं आ पाता है।

हाल ही में 20,000 रुपये से अधिक की धनराशि के पूर्ण विवरण दिए जाने के आदेश पारित हुए हैं, जबकि लोगों की मांग है कि अज्ञात स्रोतों से आए हुए कम से कम 2000 रुपये की धनराशि पर ही पूर्ण विवरण दिए जाने का आदेश पारित होना चाहिए। राजनीतिक पार्टियों को कम से कम 1 रुपये से लेकर अधिकतम लाखों, करोड़ों मे चंदा प्राप्त होता है, जो ज्यादातर उद्योगपति और छोटे-मोटे व्यापारियों की ओर से दिया जाता है, जिन्हें इस बात की आशा होती है कि सरकार बनने के बाद कुछ सुविधाएं प्राप्त होंगी।

खास बात यह है कि जनता बड़े पैमाने पर चंदा दे नहीं पाती है, फिर भी सदस्यता शुल्क और छोटी-मोटी सहयोग राशि के रूप मे उनसे धन वसूला जाता है। पार्टी और विचारधारा के प्रति समर्पित विकास की आस लगाए आमजन भी इन्हे पोषित करते हैं। विविध सोत्रों और प्रकाशित रिपोर्ट की मानें तो 2014 के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों को करोड़ों रुपये की चंदे की धनराशि प्राप्त हुई थी। इतनी बड़ी धनराशि कहां से और कैसे आई तथा इसके प्रयोग का खुलासा आमजन के मध्य होना चाहिए।

चुनाव लड़ने की जरा भी संभावना रखने वाले व्यक्ति भी पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों में आर्थिक सहयोग करते हैं। छोटे-छोटे सम्मेलन इनके ही सहयोग से पार्टियां आयोजित कराती हैं। उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की मुखिया पर टिकट बेचने के आरोप लगते रहे हैं, जबकि देखा जाए तो हर एक पार्टी में एेसा हो सकता है, ये और बात है कि वह सामने नहीं आ पया हो। देखा जाए तो इसकी कम ही गारंटी ली जा सकती है कि पार्टियों को प्राप्त होने वाला धन सफेद ही होता होगा क्‍योंकि जिस प्रकार से राजनीति व्यवसायिक हो चुकी है, और इसमें चुनाव लड़ने वाले ज्यादातर लोग ( कुछ अपवाद छोड़ दें तो) माफिया, ठेकेदार या बड़े व्यवसायी होते हैं, जो स्वयं अपनी काली कमाई को चुनावों में खपाते हैं, इसलिए चुनाव आयोग को अपनी नजर पैनी करनी होगी। यकीनन, प्रत्येक चुनाव लड़ने वाले और जिनके लड़ने की जरा भी संभावना हो उन पर नजर बनाए रखनी चाहिए कि आखिर ये लोग धन कहां से खर्च कर रहे हैं, क्‍योंकि अधिसूचना लगने से पहले, पार्टी मे टिकट बंटवारे से पहले चुनावी प्रतिस्पर्धा में भी तमाम लोग अपार धन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से खपाते हैं, जिसका कहीं कोई हिसाब न लिया जाता है, न दिया जाता है।

इधर, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ये आरोप लगाया कि दोनो मिले हुए हैं। उनकी पार्टियों के पास सबसे अधिक चंदे की धनराशि है। बेशक ये संभव भी हो क्‍योंकि लोकतंत्र की दोनों ही पार्टी राष्ट्रीय व पुरानी हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि स्वयं आम आदमी पार्टी नींव चंदे की धनराशि पर टिकी हुई है। सुनने में तो यहां तक आया था कि इन्हें विदेशों से भी अपार से राशि प्राप्त हुई थी। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि पार्टियों के ऊपर चंदे की धनराशि पर यदि टैक्स लगाया जाता है, तो पीएम का यह ऐतिहासिक कदम होगा, किंतु कयास यही लगाया जा सकता है कि सियासी दल कैसे भी करके टैक्स छूट प्राप्त कर ही लेगें, इसलिए पार्टियों को सूचना अधिकार के तहत लाना अतिआवश्यक है, जिससे जनता जान सकेगी कि पार्टियां चंदा कब और कहां से प्राप्त कर रही हैं और फर्जी पार्टियो पर नकेल कसने में आसानी होगी।

बहरहाल, जनता की आवाज उठाने के नाम पर गरीब जनता के साथ हो रहे इस इमोशनल अत्याचार को रोकने के लिए चुनाव आयोग को कड़े से कडे टैक्‍स कानून बनाने चाहिए, क्‍योंकि यह लोकतंत्र के लिए घातक है कि पार्टियां कुकुरमुत्ते की तरह जन्म ले रही हैं, और चुनावी समय मे हथकंडे अपनाकर धन का बंदरबांट करती हैं। केंद्र सरकार ने जिस प्रकार से तमाम एनजीओ पर नकेल कसी थी, उसी प्रकार से चुनाव आयोग के सहयोग से नियमतः ऐसी सैकड़ों पार्टियों पर भी कार्यवाही करने की जरूरत है, जिन्होंने कभी चुनाव लड़ा ही नही, किंतु धन उगाही शुरू रहती है। कालेधन को रोकने के लिए शीघ्र कड़ा कानून से प्रभावी करने की आवश्यकता है।

 

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