पटेल ही नहीं राजेंद्र प्रसाद, टंडन, करियप्पा, राम… किसी को नहीं चाहते थे नेहरू

पूर्व विदेश मंत्री एस जयशंकर का यह कहना कि नेहरू अपनी कैबिनेट में सरदार वल्लभभाई पटेल नहीं रखना चाहते थे, कथित इतिहासकार रामचंद्र गुहा से लेकर कॉन्ग्रेसियों तक को बेहद नागवार गुजरी है। जयशंकर ने इतिहासकार नारायणी बसु द्वारा स्वतंत्र भारत के पहले गृह सचिव वीपी मेनन की लिखी जीवनी का हवाला देते हुए यह बात कही। कॉन्ग्रेसी और वामपंथी भले इस पर छाती पीटे लेकिन कई तथ्य हैं जो बताते हैं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने समकालीनों के प्रति असुरक्षा की भावना से ग्रस्त थे। केवल पटेल ही नहीं राजेंद्र प्रसाद, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, जनरल केएम करियप्पा वगैरह को भी नेहरू उनकी जगह नहीं देखना चाहते थे। यहॉं तक कि उन्होंने आजाद भारत में अयोध्या की राम जन्मभूमि से रामलला को भी हटाने की कोशिश की थी।

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे और संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे। लेकिन, नेहरू नहीं चाहते थे कि चे राष्ट्रपति बनें। हालॉंकि नेहरू के विरोध के बावजूद वो 1950, 1952 और 1957 में लगातार तीन बार देश के राष्ट्रपति चुने गए। राजेंद्र प्रसाद ने जब दूसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की, तब नेहरू ने आपत्ति जताई। नेहरू चाहते थे कि एक बार 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाला व्यक्ति दूसरी बार राष्ट्रपति न बने। ये अलग बात है कि खुद नेहरू ख़ुद 1947 से 1964 तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहे।

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को दूसरी बार राष्ट्रपति बनाने के लिए जब हस्ताक्षर अभियान चल रहा था, तब नेहरू उनसे मिलने पहुँचे। उन्होंने ‘एक पुराने दोस्त होने के नाते’ उनसे आग्रह किया कि वो दूसरी बार राष्ट्रपति चुनाव न लड़ें। हालाँकि, डॉक्टर प्रसाद ने उन्हें किसी प्रकार का भरोसा नहीं दिया। वो चुप रहे। कॉन्ग्रेस की संसदीय समिति की बैठक हुई। इस बैठक में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की उम्मीदवारी का सिर्फ़ एक व्यक्ति ने विरोध किया और वो थे जवाहरलाल नेहरू। पार्लियामेंट्री बोर्ड के 6 सदस्यों में से नेहरू अकेले व्यक्ति थे, जो राजेंद्र प्रसाद को फिर से राष्ट्रपति बनाए जाने के ख़िलाफ़ थे।

इसी तरह देश के प्रथम सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा जो बाद में देश के पहले 5 स्टार जनरल बने वो भी देश के पहले सेनाध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पहली पसंद नहीं थे। दरअसल, नेहरू चाहते थे कि किसी अंग्रेज अधिकारी को सेनाध्यक्ष बनाया जाए। इस सम्बन्ध में नेहरू ने एक बैठक बुलाई थी जिसमें कई बड़े नेता व अधिकारी शामिल थे। बैठक को सम्बोधित करते हुए तत्कालीन पीएम ने कहा कि किसी भी भारतीय के पास सेना के नेतृत्व का अनुभव नहीं है, इसीलिए ये पद किसी अंग्रेज को ही देना चाहिए।

बैठक में सबने नेहरू की हाँ में हाँ मिलाई लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौड़ ने नेहरू से अलग मत रखते हुए कहा कि अगर किसी भारतीय के पास अनुभव नहीं है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि भारत को गुलाम रखने वाले अंग्रेजों में से ही किसी एक को सेनाध्यक्ष की पदवी दे दी जाए। तब नेहरू ने उनसे ही सवाल दाग दिया कि क्या वो इस जिम्मेदारी का निर्वाहन करने को तैयार हैं? लेकिन सेनाध्यक्ष के पद को ठुकराते हुए उन्होंने कहा– “मैं कुछ कहना चाहता हूँ” और नेहरू के विचारों से आपत्ति जताते हुए भारत के पहले सेनाध्यक्ष के लिए किसी अंग्रेज की जगह करियप्पा का नाम सुझाया।

इस सूची में एक नाम राजर्षि पुरषोत्तम दास टंडन का भी है। राजर्षि ने उत्तर प्रदेश में कॉन्ग्रेस की जड़ें मजबूत करने में अपनी ज़िंदगी खपा दी। यूपी के गाँव-गाँव में घूम कर निःस्वार्थ भाव से जिस तरह उन्होंने पार्टी की सेवा की थी, उनका लोकतान्त्रिक तरीके से कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बनना शायद ही किसी को अखरता। लेकिन, कॉन्ग्रेस पार्टी का शायद यह दुर्भाग्य ही था कि राजर्षि का अध्यक्ष बनना ‘किसी’ को रास नहीं आया और उन ‘किसी’ का नाम था- जवाहरलाल नेहरू। भारतीय राजनीतिक इतिहास की यह घटना उस समय की है जब नेहरू कॉन्ग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता थे।

किस्सा 1950 में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का चुनाव से जुड़ा हुआ है जब जवाहरलाल नेहरू के समर्थन में जेपी कृपलानी मैदान में उतरे। जेपी कृपलानी आज़ादी के समय भी कॉन्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे और नेहरू ने इस चुनाव को अपने स्वाभिमान पर ले लिया। कारण- जिस व्यक्ति को देश का सबसे ‘लोकप्रिय’ नेता कहा जाता था, उसके उम्मीदवार की पार्टी में ही हार होने से तरह-तरह की चर्चाओं को बल मिल सकता था। लेकिन उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल के समर्थन और गाँव-गाँव में अपनी मजबूत छवि के कारण टंडन इस चुनाव को जीतने में कामयाब रहे। बेदाग़ चरित्र और विवादों से दूर रहने वाले टंडन हिंदुत्व की तरफ़ झुकाव वाले नेता थे। इस चुनाव परिणाम को नेहरू ने अपने स्वाभिमान पर धक्का के रूप में लिया। यहाँ तक कि नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की भी धमकी दे डाली। अंततः देश और पार्टी के हित में टंडन ने कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

नेहरू को समस्या केवल समकालीनों से ही नहीं थी। हिंदुओं की बात करने वाले, तुष्टिकरण का विरोध करने वालों को वे देखना नहीं चाहते थे। उन्होंने तो बकायदा अयोध्या से राम की मूर्ति हटाने की भी कोशिश की थी। वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ में ​विस्तार से उन घटनाओं का ब्यौरा दिया है, जब गर्भगृह से राम की मूर्ति हटाने पर नेहरू अमादा थे। लेकिन, केरल के रहने वाले आईसीएस अधिकारी केकेके नायर, जो उस समय फैजाबाद के जिलाधिकारी थे ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

हेमंत शर्मा लिखते हैं, “उत्तर प्रदेश के कुछ मुस्लिम नेताओं और देवबंद के उलेमाओं ने नेहरू को तार भेजकर उनका ध्यान अयोध्या की ओर दिलाया। नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत और राज्य के गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को तत्काल मस्जिद से मूर्तियों को हटाने के निर्देश दिए। लगातर केंद्र से संदेश लखनऊ आते और वैसे ही तार लखनऊ से फैजाबाद भेजे जाते कि मूर्तियॉं तुरंत हटाई जाएँ।” शर्मा ने ​अपनी किताब में जिन घटनाओं और चिट्ठियों का जिक्र किया है, उनसे जाहिर होता है कि नेहरू मूर्तियॉं हटाकर धर्मनिरपेक्ष दिखना चाहते थे। लेकिन, नायर के अड़ने और पंत तथा पटेल के नरम रुख अपनाने के कारण वे अपने इस मंसूबे में यहाँ भी कामयाब नहीं हो पाए।

 

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