पिछले 15 वर्षों से विफल राहुल गांधी अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं,आखिर क्यों ?

लखनऊ।  राहुल गांधी का कांग्रेस की कमान संभालना तय है। इस बीच राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बनाये रखने की होगी, जबकि वे विगत 15 सालों में देश की जनता ही नहीं, कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर भी अपना विश्वास नहीं बना पाए । कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल संगठन को मजबूती देने और धर्मनिरपेक्षता जैसे मुद्दों पर वैचारिक दुविधा को दूर किये बिना वह न तो मतदाताओं के असंतोष को वोट में तब्दील कर पायें है और न ही विपक्षी एकता को परवान चढ़ा पाये हैं। सोनिया गांधी भी कांग्रेस पार्टी को सशक्त और विश्वसनीय पार्टी बना पाने में समर्थ नहीं दिखाई दीं।

हिन्दू धर्म का होने का दावा : राहुल गांधी का गुजरात चुनाव में मंदिर-मंदिर जाकर गुजरातियों को यह जाहिर कराना कि वे परंपरागत जनेऊधारी पंडित और शिव भक्त हैं,  कांग्रेस की छवि को नेस्तनाबूद करने की कोई बड़ी साजिश लगती है। हिन्दू धर्म का होने की वकालत करने जो भी कांग्रेसी नेता या प्रवक्ता उनकी और से दलील प्रस्तुत कर रहे हैं, उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। जनेऊ पहनाकर हिंदू बताने वाले देश में घुसने वाले आतंकवादियों को बचने का रास्ता दिखा रहे हैं।

यह मान भी लिया जाये कि जनेऊ पहनकर राहुल गांधी ने अपने पिता राजीव गांधी का कर्मकांड किया था और बचाव पक्ष में उतरे रणजीत सुरजेवाला और राजीव शुक्ला यदि यह भी बता देते कि राहुल के पिता राजीव गांधी ने भी इसी प्रकार जनेऊ पहनकर अपने पिता फिरोज गांधी का भी कर्मकांड किया था तो शायद देश की जनता राहुल को हिन्दू मान लेती। इन कांग्रेसी नेताओं ने राहुल के हिन्दू होने की नाजायज़ चाल को बल दिया है। कांग्रेसी नेताओं और प्रवक्ताओं ने गुजरातियों को ही नहीं पूरे देश को गुमराह करने का काम किया है। ऐसी स्थिति में राहुल की विश्वसनीयता कैसे बन सकती है ? कहा जाता है कि किसी को इतना ऊंचा न चढ़ाओ कि ऊपर से नीचे ही न उतर सके।

ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को गुजरातियों को आकर्षित करने के लिए हिन्दू बनने का ढोंग भी इन्हीं स्वार्थी कांग्रेसी नेताओं और प्रवक्ताओं की चाल है । यह भी सत्य है कि राहुल गांधी ने हिन्दू धर्म वाली झूठी कहानी पर यदि देश से माफी न मांगी और अगर गुजरात की जनता ने राहुल का झूठ पकड़ लिया तो 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी का क्या होगा, भगवान ही जाने। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि एक के बाद एक चुनावों में कांग्रेस को मिल रही हार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसे करिश्माई नेता एवं प्रभावशाली वक्ता से मुकाबला होने के कारण एक विश्वसनीय नेता के रूप में खुद को पेश करना राहुल के लिए आसान काम नहीं है। ऐसे में मोदी को झूठा और जुमलेबाज बताकर खुद देश की जनता से सफेद झूठ बोलकर राहुल जनता का मन नहीं मोह सकते।

विश्वसनीयता की चुनौती : राहुल गांधी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपने को एक विश्वसनीय नेता के रूप में साबित करने की है जिसमें वह पिछले 15 सालों से विफल रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष  सोनिया ने जब कमान संभाली तो पार्टी बिखर रही थी। उनके विदेशी मूल के होने का मुद्दा था जो वरिष्ठ नेताओं को वह रास नहीं आ रहा था, अब राहुल के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि पार्टी के चुनावी परिणामों में लगातार जो गिरावट आ रही है, उसे कैसे थामा जाए? साथ ही उनके सामने एक ऐसी बड़ी शख्सियत नरेन्द्र मोदी हैं जो एक करिश्माई नेता हैं एवं प्रभावशाली वक्ता हैं, जिसका प्रमाण चुनाव प्रचार में देखा जा सकता है.

ऐसे में कांग्रेस को प्रासंगिक बनाये रखना, उसमें फिर से प्राण फूंकना सबसे कठिन और बड़ी जिम्मेदारी है। संगठन मजबूत होना इसलिए जरुरी है क्योंकि उसी से लोगों के असंतोष को वोट में तब्दील किया जा सकता है।  राहुल की असली चुनौती गुजरात ही नहीं है, अगले साल कर्नाटक तथा हिन्दी भाषी तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव होने वाले हैं। इसमें पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है, इसके आधार पर उनको तौला जाएगा। यद्यपि राहुल गांधी को सोनिया, राजीव या इंदिरा गांधी के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। कांग्रेस का यदि इतिहास देखा जाए तो संगठन के भीतर नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य विफल नहीं हुआ है। राहुल के समक्ष यही चुनौती है कि वह खुद को साबित करें और वह भी बहुत जल्दी।

विचारधारा की चुनौती : कांग्रेस के समक्ष एक और बड़ी चुनौती है कि उसके पास विचाराधारा के मामले में कोई स्पष्टता नहीं है। मिसाल के तौर पर धर्मनिरपेक्षता को ही लें ले। महात्मा गांधी एवं नेहरू ने इस मामले में दो अलग-अलग रास्ते दिखाये थे, एक का कहना था कि धर्म आस्था का विषय है और सरकार का इसमें घालमेल नहीं होना चाहिए। दूसरे का कहना था कि यदि हम अच्छे हिन्दू या अच्छे मुस्लिम हैं तभी हम सच्चे धर्मनिरपेक्ष हो सकते हैं। इसे लेकर अभी भी कांग्रेस में एक राय नहीं है।  इसी प्रकार आर्थिक मुद्दों पर भी एक राय नहीं है। किसानों के मामले में उत्तर प्रदेश में सपा से तालमेल सहित सारे निर्णय राहुल ने ही किये। उप्र की इकाई से समुचित विचार-विमर्श नहीं किया गया। राहुल और विपक्षी एकता को देखें तो विपक्षी एकता के अपने विरोधाभास हैं और रहेंगे। यह गठबंधन युग की देन है।

भाजपा के विरुद्ध लामबंद हो विपक्ष : कांग्रेस को एक ही सूरत में मजबूत स्थिति प्राप्त हो सकती है जब हर लोकसभा सीट पर भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ विपक्ष का एक ही साझा उम्मीदवार खड़ा हो। इस बार भाजपा को 31 प्रतिशत वोट ही मिले हैं अर्थात 69 प्रतिशत वोट विपक्षियों को ही गये किन्तु वे सब बंट गये। जब भी विपक्ष एकजुट रहा तो भाजपा को चुनौती मिली है। हालांकि यहां यह भी बताना अनुचित न होगा कि विचार और नेतृत्व को लेकर देश के विपक्षी दलों में एकता होना संभव नहीं है, लेकिन यदि इन्हें भाजपा को उखाड़ फेंकने की इच्छा है तो एक बार एक सशक्त राजनेता के नेतृत्व में सबको एक साथ आना होगा।

यह स्पष्ट है कि भाजपा के लगातार एक के बाद एक कई राज्यों में जीतने के बाद राजनीति में कांग्रेस के लिए जगह नहीं बच रही है।  कांग्रेस को अपने संगठन स्तर पर तैयारी करनी होगी और उसे मजबूती देनी होगी।  राहुल के पास अपने संगठन को अंदर से मजबूत करने के अलावा कोई और चारा नहीं है। पार्टी अघ्यक्ष बनने के बाद  पार्टी के अंदर मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिए राहुल के पास समय रहता है या नहीं  यह देखने वाली बात है।

कांग्रेसियो को संतुष्ट रखना होगा :समय न देने के कारण असंतुष्ट होकर शहजाद पूनावाला जैसे कई और नेता भी उभर सकते हैं। नियमतः पार्टी कार्यकारिणी की हर पन्द्रह दिन में कार्यकारणी की बैठक होनी चाहिए।  राहुल का अभी तक का रुझान देखें तो उनका युवा एवं बाहर से आये लोगों के प्रति झुकाव ज्यादा रहा है, चाहे वह प्रशांत किशोर हों, दक्षिण की अभिनेत्री राम्या हो या उत्तर प्रदेश में बेनीप्रसाद वर्मा अथवा राजबब्बर जैसे नेता हों। इस बारे में उन्हें थोड़ा नियंत्रण रखना होगा और पार्टी के भीतर भी अपनों को देखना होगा।

उल्लेखनीय है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए राहुल द्वारा अपना नामांकन दाखिल  किया जा चुका है। नामांकन-पत्रों की जांच के बाद 11 दिसंबर को चुनाव एक औपचारिकता मात्र है और राहुल को 11 दिसंबर को ही अनौपचारिक रूप से अध्यक्ष मान लिया जायेगा जिसकी औपचारिक घोषणा 19 दिसंबर को होगी.

 

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