प्रशांत किशोर से सटीक सवाल, कौन सा मुसलमान पाक, बांग्लादेश या अफगान से आबरु बचाते भारत आया है?

सुरेन्द्र किशोर

दैनिक जागरण-बिहार-के स्थानीय संपादक मनोज झा ने अपने काॅलम ‘हस्तक्षेप’ में प्रशांत किशोर से सटीक सवाल किया है। पूछा है कि ‘‘पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगला देश से धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर कौन सा मुसलमान जान- आबरू बचाते हुए भारत आया है ?’’

उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘‘पीके सुलझे हुए हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं है। ऐसे में यह मानना मुश्किल है कि वह नागरिकता संशोधन कानून के प्रभाव-दुष्प्रभाव से अनभिज्ञ हैं।’’ मनोज झा से सहमत हूं। मेरा भी यही मानना है कि प्रशांत किशोर जदयू के विरोध के बहाने कहीं नये सियासी ठौर -ठिकाने की तलाश में हैं। आंकड़े जुटाने वालों को महत्वपूर्ण राजनीतिक पद या श्रेय मिल जाने पर यही होता है जो पीके के साथ हो रहा है। आंकड़ों का किसी चुनाव में जितना महत्व है,उतना ही महत्व पीके का है। वैसे वह भी एक महत्वपूर्ण काम है। हालांकि जिसे जीत मिलनी होती है, उसे ही मिलती है।

यदि ‘प्रशांत शैली’ से कोई चुनाव जीता जा सकता तो उत्तर प्रदेश में पी.के. कांग्रेस को सफल बनवा चुके होते। सन 2014 के लोस चुनाव में प्रशांत किशोर नरेंद्र मोदी के साथ नहीं भी होते तो भी भाजपा को वैसी ही जीत मिलती। पर खुद मोदी में तब आत्म विश्वास की कमी थी। हां, संभवतः चुनाव खर्च बहुत अधिक बढ़ा देने का श्रेय भले पी.के. जैसे लोगों को मिल सकता है।
याद रहे कि पी.के. ने उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की खाट सभाएं करवाई थीं। क्या नतीजा हुआ।
राहुल की खटिया ऐसे भी खड़ी होने वाली थी। पीके के बावजूद हो गई। जितने लोग राहुल की सभाओं से खाट उठा कर अपने-अपने घर ले गए, उतने लोगों ने भी कांग्रेस को वोट दिए या नहीं, यह भी एक सवाल है।

चुनाव खर्च पर इंदिरा गांधी की टिप्पणी
‘‘कुछ साल पहले इंदिरा जी ने बीजू पटनायक से कहा था कि राजनीति में नैतिकता कुछ नहीं होती। सफलता ही सब कुछ है। उसे किसी प्रकार प्राप्त करना चाहिए। बीजू के अनुसार चुनावों के बारे में इंदिरा जी की राय थी कि इसे इतना महंगा बना देना होगा कि कोई भी विरोधी पार्टी
इस दौड़ में पास न पहुंच सके। बीजू की बात का आधार है श्रीमती इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व की निकट से जानकारी।’’
चंद्र शेखर की जेल डायरी–27 जून 1975 से
दुख की बात है कि आज के चुनाव इंदिरा के जमाने से भी बहुत अधिक महंगे हो चुके हैं। उससे अधिक दुख की बात यह है कि चुनाव खर्च घटाने को लेकर कोई भी दल यहां तक कम्युनिस्ट भी प्रयत्नशील नहीं हैं। गत लोक सभा चुनाव मेें डी.एम.के. ने चंदा के रूप में सी.पी.आई.-सी.पी.एम. को कुल 25 करोड़ रुपए दिए। पहले उद्योगपति ही बड़ा चंदा देते थे, पर जब राजनीति उद्योग बन चुकी है तो बड़े चंदे दल की ओर से भी आने लगे हैं।

 

 

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