प्रेमचंद ने गोरखपुर में महात्‍मा गांधी का भाषण सुनकर छोड़ दी थी सरकारी नौकरी

गोरखपुर। कथा सम्राट, कालजयी उपन्‍यासकार और साहित्‍य के पितामह…जितने भी नाम लें, वे कम ही हैं. उसका कारण भी साफ है. मुंशी प्रेमचंद ऐसी शख्सियत रहे हैं, जिन्‍होंने हमेशा सादगी भरा जीवन ही पसंद किया. आसपास जो देखा उसे कहानी और उपन्‍यास के रूप में शब्‍दों में पिरो दिया. यही कारण है कि उनके निधन के 82 साल बाद भी उनके उपन्‍यास और कहानियां हमारे इर्दगिर्द ही घूमते नजर आते हैं.

शायद यही वजह है कि उपन्‍यास की दुनिया में वैश्विक पटल पर मुंशी प्रेमचंद का नाम हमेशा के लिए अमर हो गया. गोरखपुर में महात्‍मा गांधी का भाषण सुनने के बाद उन्‍होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और स्‍वतंत्र लेखन करने लगे. मुंशी प्रेमचंद ने जीवन के 9 साल गोरखपुर में गुजारे. उन्‍होंने यहां पर प्रवास के दौरान कई कालजयी उपन्‍यास और कहानियों की रचना की. ईदगाह, नमक का दारोगा, रामलीला, बूढ़ी काकी और गोदान के चित्रण और किरदार भी गोरखपुर के ही हैं.

मुंशी प्रेमचंद (धनपत राय श्रीवास्‍तव उर्फ नवाब राय) ऐसे कालजयी उपन्‍यासकार थे, जिन्‍होंने अपनी लेखनी के दम पर पूरे विश्‍व में पहचान बनाई. साधारण कद-काठी, धोती-कुर्ता और सादगी उनकी पहचान रही है. आज उनकी 138वीं जयंती है, लेकिन उनके निधन के 82 वर्ष बाद भी उनकी कालजयी रचना ‘कफन’, ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘ईदगाह‘ और ‘नमक का दरोगा‘ हर किसी को बचपन की याद दिलाती है. गोरखपुर में ही उन्‍होंने ऐसे कई उपन्‍यास को मूर्तरूप दिया, जिसके किरदार हमेशा के लिए अमर हो गए.

मुंशी प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 से 8 अक्टूबर 1936) किसी पहचान का मोहताज नहीं. मुंशी प्रेमचंद का 56 वर्ष की उम्र में काशी में निधन हुआ था. भारत के एक महान हिन्दी उपन्यासकार, जिनकी रचनाओं में गोरखपुरियत साफ़ झलकती है. उनका जन्म भले यहां नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने अपने कर्मों से गोरखपुर की एक अलग ही तस्वीर उकेर कर रख दी. आज भी वह घर जहां वह रहते थे और वो विद्यालय जहां उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा ली, उनकी दास्‍तां को बयां करता है. उन्होंने जहां कई कालजीय उपन्‍यासों की रचना की, उसके समीप ही मुंशी प्रेमचंद के नाम से पार्क भी स्थापित है.

आकाशवाणी के सेवानिवृत्‍त कार्यक्रम अधिकारी और साहित्‍यकार रविन्‍द्र श्रीवास्‍तव उर्फ जुगानी भाई बताते हैं, कि मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस से लगभग छ: मील दूर लमही नामक गांव में हुआ था. उनके पूर्वज कायस्थ परिवार से आते थे, जिनके पास उस समय में छ: बीघा जमीन थी. प्रेमचन्द के दादाजी गुरु सहाय सराय पटवारी और पिता अजायब राय डाकखाने में क्लर्क थे. उनकी माता का नाम आनंदी देवी था. उन्‍हीं से प्रेरित होकर उन्होंने एक रचना ‘बड़े घर की बेटी‘ में ‘आनंदी‘ नामक पात्र बनाया था.

प्रेमचन्द अपने माता-पिता की चौथी सन्तान थे. प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्‍तव था, जो उनके माता-पिता ने रखा था. लेकिन, उनके चाचा उन्हें नवाब कहा करते थे. प्रेमचन्द जब 7 वर्ष के थे, तब प्रेमचन्द ने अपने गांव के निकट लालपुर गांव के मदरसे में पढाई की थी. प्रेमचन्द को मदरसे के मौलवी ने उर्दू और पारसी सिखाई, जिसका उनकी रचनाओं पर काफी प्रभाव रहा है. जब प्रेमचन्द 8 वर्ष के हुए तब लम्बी बीमारी के चलते उनकी माँ का देहांत हो गया था. प्रेमचन्द की दादी ने उनकी जिम्मेदारी सम्भाली और उनका पालन-पोषण किया.

मुंशी प्रेमचन्द के पिता की जब गोरखपुर में पोस्टिंग हुई, तब उन्होंने दूसरी शादी कर ली. प्रेमचंद का अपनी सौतेली मां से थोडा सा स्नेह था, जिसे उन्होंने अपनी रचनाओं में अलग तरीके से पेश किया है. अब प्रेमचन्द अपनी मां की मौत के बाद अपना अधिकतर समय उपन्यास पढने में बिताया करते थे. गोरखपुर में स्थित रावत पाठशाला में ही उनकी शिक्षा शुरू हुई और इसे संयोग ही कहेंगे कि इसी पाठशाला में उन्होंने 1916 से 1921 तक बतौर शिक्षक नौकरी भी की. अपनी प्राथमिक शिक्षा के बाद धनपत राय मिशनरी स्कूल से अंग्रेजी पढ़े और और कई अंग्रेजी लेखकों की किताबें पढना शुरू कर दिया.

उन्‍होंने अपना पहला साहित्यिक काम गोरखपुर से उर्दू में शुरू किया था. उनकी पहली रचना कहीं प्रकाशित नहीं हो पाई और बाद में खो गई. उनकी ये रचना एक अविवाहित पुरुष की थी, जो दलित महिला से प्यार करने लगता है. उन्होंने इसके पात्र अपने चाचा के जीवन से लिए थे. वह यहां पहले पहाड़पुर मोहल्‍ले में अपने पिता के साथ रहते थे, जो बाद में नार्मल कैम्‍पस में ही रहने लगे. आज भी उस मकान के टूटे-फूटे अवशेष वहां मौजूद हैं. सोज-ए-वतन उनकी पहली रचना थी. मुंशी प्रेमचंद पार्क में स्थित मकान में ही उन्‍होंने कालजयी रचना ‘कफन’, ‘ईदगाह’, ‘नमक का दरोगा’, ‘रामलीला’, ‘बूढी काकी’, ‘मंत्र’ और उनकी रचनाओं में सबसे मशहूर ‘गबन’ और ‘गोदान’ की पृष्‍ठभूमि भी उन्‍होंने यहीं पर तैयार की थी.

यह भी अजब संयोग हैं कि जिस रावत पाठशाला में उन्‍होंने प्राथमिक शिक्षा ली थी, वहीं पर उनकी पहली पोस्टिंग शिक्षक के रूप में हुई. उसी दौरान वह बालेमियां मैदान में महात्‍मा गांधी का भाषण सुनने गए. महात्‍मा गांधी के ओजस्‍वी भाषण का उन पर ऐसा प्रभाव पडा कि उन्‍होंने अंग्रेजी हुकूमत में सरकारी नौकरी से त्‍यागपत्र दे दिया और स्‍वतंत्र लेखन करने लगे. उसी दौरान उन्‍होंने ‘सोज-ए-वतन’ नामक पहली रचना उर्दू में लिखी. जिसे बाद में अंग्रेजों ने जला दिया और बगैर इजाजत के लिखने पर रोक लगा दी. तब वे नयाब राय के नाम से लिखा करते थे. उसके बाद दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचंद नाम दिया. उसके धनपत राय हमेशा के लिए प्रेमचंद हो गए.

‘ईदगाह’ की रचना उन्‍होंने नार्मल रोड स्थित मुबारक खां शहीद की दरगाह पर लगने वाले मेले को केन्‍द्र में रखकर की. वहीं ‘नमक का दरोगा’ राप्‍ती नदी पर बने राजघाट पुल पर केन्द्रित है. प्रेमचंद ने ‘रामलीला’ की रचना बर्फखाना रोड पर स्थित बर्डघाट की रामलीला के पात्रों की दयनीय स्थिति को ध्‍यान में रखकर लिखी गई. तो वहीं ‘बूढी काकी’ मोहल्‍ले में बर्तन मांजने वाली एक बूढी महिला की कहनी है. गोदान भी अंग्रेजी हुकूमत में देश के किसानों के दर्द की तस्‍वीर खींचती है, जिसका किरदार भी गोरखपुर के इर्दगिर्द ही घूमता है.

1890 के दशक के मध्य में जब उनके पिता की जमनिया गांव में पोस्टिंग हुई, तब उनका दाखिला अनावासी छात्र के रूप में बनारस के क्वीन कॉलेज में कराया गया. 1895 में 15 वर्ष की उम्र में उनका विवाह कर दिया गया. तब वह 9वी कक्षा में पढ़ रहे थे. 1897 में लम्बी बीमारी के चलते प्रेमचन्द के पिता का देहांत हो गया. उसके बाद उन्होंने मैट्रिक परीक्षा द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली. जब क्वीन कॉलेज में दाखिले के लिए उस समय मैट्रिक परीक्षा में प्रथम श्रेणी चाहिए थी. इसलिए प्रेमचन्द को उस कॉलेज में दाखिला नहीं मिला. प्रेमचन्द ने केन्द्रीय हिन्दू कॉलेज में दाखिला ले लिया, लेकिन गणित में कमजोर होने के कारण उनको अपनी पढाई बीच में ही छोडनी पड़ी. उस समय में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला विद्वान माना जाता था. इसलिए उनको एक वकील के पुत्र को पढ़ाने के लिए 5 रूपये मासिक तनख्वाह पर रख लिया गया. अब वह उस वकील के अस्तबल में रहने लगे और अपनी तनख्वाह का 60 प्रतिशत हिस्सा अपने घर भेजते थे.

1899 में जब उनके ऊपर कर्ज काफी बढ़ गया, तब वह एक बार अपने द्वारा संग्रहीत की हुई किताबों को बेचने के लिए किताब विक्रेता के पास चले गये थे. वहां पर उनकी मुलाकात मिशनरी स्कूल के प्रधानाध्यापक से हुई, जिन्होंने उनको 18 रूपये प्रति माह की तनख्‍वाह देने का प्रस्ताव दिया. प्रेमचंद तुरन्‍त राजी हो गये और 1900 में प्रेमचन्द को बहराइच के सरकारी स्कूल में सहायक अध्यापक के तौर पर स्थाई नौकरी मिल गई. जिसमें, उनको 20 रूपये प्रति माह तनख्‍वाह मिलने लगी. तीन महीने बाद उनका प्रतापगढ़ के सरकारी स्कूल में तबादला हो गया, जहां पर उन्होंने व्यस्व्य्थाप्क के बंगले में रहते हुए उनके पुत्र को भी पढ़ाया.

धनपत राय शुरुआत में अपना उपनाम “नवाब राय ” लिखा करते थे. उनका पहला लघु उपन्यास “देवस्थान रहस्य ” था. उनका यह उपन्यास बनारस के उर्दू साप्ताहिक “आवाज ए ख़ाक ” में 1903 से 1905 के बीच प्रकाशित किया गया.

आज भी गोरखपुर में उनसे जुडी हुई कई चीजो को संजो कर रखने का प्रयास किया गया है, लेकिन सरकारी उदासीनता और लापरवाही में इस महान शख्सियत की धरोहर नाम मात्र की ही रह गई है. आज भी उनके चाहने वाले और उनके दिखाए हुए मार्ग पर चलने वाले कम नहीं हैं. उनके घर को ही आज एक संग्रहालय के रूप में और पुस्कालय के रूप में रखा गया है, जिसमें बतौर प्रभारी के रूप में पिछले कई वर्षों से अपनी सेवा दे रहे बैजनाथ मिश्रा ने बताया कि पुस्तकालय की स्थिति बहुत ही दयनीय है. किसी भी प्रकार की कोई सरकारी मदद नहीं मिलती, इसके बावजूद उनका जुड़ाव कम नहीं हुआ और यहां आने वाले लोगो को मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताने और उनकी पुस्तकों को पढ़ाते है, जिससे उनके काफी ख़ुशी और संतुष्टि मिलती है.

आजादी की चिंगारी फूटने के बाद मुंशी प्रेमचंद ने जिन कालजयी उपन्‍यासों की रचना की, उसमें अंग्रेजी हुकूमत की झलक भी साफ दिखाई देती है. हालांकि उनकी रचनाओं में जो किरदार दिखते हैं, वह उनके आसपास के लोगों से ही प्रभावित है. यहीं वजह है कि इतने वर्षों बाद भी ऐसे कालजयी उपन्‍यासकार की 138वीं जयंती पर वह गोरखपुरवासियों ही नहीं उनकी रचनाओं को पढ़ने वालों को आसपास ही नजर आते हैं.

 

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