बीजेपी को रोकने के लिए विपक्ष मोर्चा तो बना लेगा लेकिन कहां से लाएगा ‘लीडर’?

तीन दशक पहले दो सीटों से शुरू हुआ बीजेपी का सफर अब 21 राज्यों में सरकार बनाने तक जा पहुंचा. बीजेपी ने हिंदी भाषी क्षेत्र की पार्टी होने का ‘टैग’ हटाया तो सवर्णों की पार्टी होने का भी तमगा भी बदल दिया. त्रिपुरा में जिस तरह से लेफ्ट का ‘लाल किला’ ढहा उससे दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दलों में अब अपने राजनीतिक वजूद को लेकर सवाल उठने लगे हैं. क्षेत्रीय दल ये जान चुके हैं कि बीजेपी की बढ़ती ताकत और चुनावी मैनेजमेंट से अपने बूते पर अकेले जीत पाना नामुमिकन है. यही वजह है कि क्षेत्रीय दल अलग अलग तरीके से एक बड़े गठबंधन की जरूरत महसूस कर रहे हैं.

तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के मुखिया के चंद्रशेखर राव ने कहा है कि देश में एक गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेसी मोर्चे की जरूरत है. साथ ही ये भी कहा वो गठबंधन की अगुवाई के लिए तैयार हैं और इस मुद्दे पर उनकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात भी हो चुकी है.

kcr-mamta

गठबंधन की एक दूसरी तस्वीर यूपी की सियासी जमीन पर तैयार हो रही है. 23 साल से चली आ रही बीएसपी और एसपी की दुश्मनी अब बुआ-भतीजे के सियासी गठबंधन में बदल गई है. नब्बे के दशक में हुए ‘गेस्ट हाउस कांड’ से शुरू हुआ मायावती-मुलायम के बीच अदावत का सिलसिला राजनीति की एक सीट की खातिर समर्थन में बदल गया.

गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में बीएसपी ने समाजवादी पार्टी को समर्थन देते हुए अपना उम्मीदवार नहीं उतारा. साथ ही ऐलान किया कि वो समाजवादी पार्टी के विधान परिषद उम्मीदवार को भी अपना वोट देगी. जबकि बदले में समाजवादी पार्टी राज्यसभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार को समर्थन देगी.

मायावती की अपनी सियासी जरुरत है तो अखिलेश यादव को भी पार्टी का मुखिया बनने के बाद एक अदद जीत की सख्त दरकार है. अब इन दोनों का सियासी समीकरण बीजेपी के खिलाफ भविष्य के महागठबंधन के प्रयोग के रूप में देखा जा सकता है.

दरअसल बीजेपी ने दूसरी क्षत्रप पार्टियों के समीकरण ऐसे बिगाड़े हैं कि ये क्षेत्रीय पार्टियां इतिहास की रंजिशों को भुलाकर खोई हुई जमीन पर रिश्तों के मकान तैयार कर रही हैं. जबकि बीजेपी साल 2014 के बाद अपनी सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी रणनीति से नया वोटबैंक तैयार कर चुकी है.

mayawati and akhilesh in up

संभावित महागठबंधन स्वीकारेगा राहुल का नेतृत्व?

कांग्रेस भी ये जानती है कि बीजेपी को रोकने के लिए उसे विपक्षी दलों को साथ लाकर एक महागठबंधन तैयार करना होगा. पिछले साल कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी ने बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को लामबंद कर एक मोर्चा बनाने की कोशिश भी की थी.

लेकिन विपक्षी एकता के सुरों के ‘सियासी राग’ तब भटकने लगते हैं जब हर पार्टी का मुखिया खुद में ‘पीएम मैटेरियल’ देखता है. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की अगुवाई में उस महागठबंधन की कल्पना खारिज हो जाती है जिसमें ममता बनर्जी, शरद पवार, मायावती और लालू प्रसाद यादव सरीखे नेता शामिल हों.

SONIA GANDHI

बीजेपी को रोकने के लिए बनने वाले संभावित महागठबंधन के भीतर पहला संघर्ष तो महागठबंधन के नेतृत्व को लेकर ही देखा जा सकता है. कांग्रेस किसी भी कीमत पर अपने अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए पीएम पद से कम पर कोई समझौता नहीं करेगी और यही बात महागठबंधन बनने से पहले विपक्षी मोर्चे की एकता में पहली गांठ का काम करेगी.

सवाल उठता है कि चंद्रशेखर राव भी किस राजीनितक हैसियत से तीसरे मोर्चे की अगुवाई की बात कर रहे हैं. न तो उनके पास सांसदों की संख्या है और न ही उनका ऐसा राजनीतिक अनुभव. ऐसे में ममता बनर्जी, शरद पवार, मायावती या फिर अखिलेश यादव भी चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे का हिस्सा बिल्कुल ही नहीं बनेंगे. ये महज एक कपोल-कल्पना भर ही है.

तीसरे मोर्चे का इतिहास न भूलें केसीआर

टीआरएस नेता केसीआर को तीसरे मोर्चे को लेकर इतिहास की असफलताओं से सबक सीखना चाहिए. पिछले तीन दशक का इतिहास देखें तो तीसरा मोर्चा कभी भी अपने दम पर सरकार बनाने में कामयाब नहीं हुआ है. कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस ने उसे बाहर से समर्थन दिया है.

बोफोर्स कांड के बाद तत्कालीन पीएम राजीव गांधी की कैबिनेट से इस्तीफा देकर वीपी सिंह रातों रात सियासत के सितारा बन चुके थे. उन्होंने कांग्रेस विरोधी दलों को एक साथ लाकर राष्ट्रीय मोर्चे का गठन किया. जनता दल की अगुवाई में साल 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा ने केंद्र में सरकार बनाई. राष्ट्रीय मोर्चा में जनता दल, डीएमके, टीडीपी और असम गण परिषद जैसे दल शामिल थे. बीजेपी और लेफ्ट ने सरकार को बाहर से समर्थन दिया था.

vp singh and jyoti basu

लेकिन समाजिक न्याय की राजनीतिक विचारधारा पर बना तीसरा मोर्चा दो साल में ही तितर-बितर हो गया. वीपी सिंह की सरकार भी एक साल के भीतर ही गिर गई. बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया. उसके बाद साल 1996 में 13 राजनीतिक दलों ने संयुक्त मोर्चा का गठन किया. इस गठबंधन ने महज दो साल यानी 1996 से 1998 के बीच दो बार सरकार बनाई. लेकिन इसके बावजूद ये मोर्चा केंद्र की राजनीति में हलचल नहीं मचा सका. इसके बाद साल 2009 में तीसरा मोर्चा फिर तैयार हुआ लेकिन ये भी आम चुनावों में कुछ साबित नहीं कर सका.

तीसरे मोर्चे के नाम पर गैर कांग्रेसी या फिर गैर बीजेपी दल बनाना आसान जरूर है लेकिन उसे अंजाम तक ले जा पाना कभी नहीं हो सका. साल 1977 में जनता पार्टी के गठबंधन ने देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी जो कि आंतरिक मतभेदों के चलते दो साल में ही गिर गई. बाद में यही हश्र केंद्र की चरण सिंह सरकार का भी हुआ. कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह से समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी.

चौधरी चरण सिंह के साथ चंद्रशेखर

चौधरी चरण सिंह के साथ चंद्रशेखर

कांग्रेस ने यही एक्शन रीप्ले 1990 में तत्कालीन केंद्र की चंद्रशेखर सरकार और फिर 1997 में गुजराल सरकार के साथ दिखाया. पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से समर्थन वापस लिया तो बाद में साल 1996 में संयुक्त मोर्चा की तरफ से बने पीएम एच डी देवगौड़ा को पद से हटाकर आई के गुजराल को समर्थन दिया और फिर वो समर्थन भी वापस ले लिया. उसके बाद देश में एनडीए और यूपीए के रूप में गठबंधन की सरकारों का दौर चला. लेकिन अब बीजेपी खुद पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है.

मोदी ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे को पार्टी के लिए ब्रांड बना चुके हैं जिसका विपक्ष के पास तोड़ नहीं दिख रहा है. आज विपक्ष की ठीक वहीं स्थिति है जो नब्बे के दशक के वक्त बीजेपी की हुआ करती थी. सभी पार्टियां बीजेपी के खिलाफ सेकुलरिज्म और सांप्रदायिकता के नाम पर एकजुट हो जाती थीं. लेकिन इस बार विपक्ष का सेकुलर कार्ड और सांप्रदायिक टैग बीजेपी के लिए बीती बात हो चुकी है. विपक्षी दलों के पास मोदी विरोध के अलावा कोई वैकल्पिक विचारधारा नहीं है. विपक्ष अभी भी पुरानी जातिगत और समुदाय विशेष के समीकरणों से गुंथी राजनीति में अपना भविष्य तलाश रही है.

यूपी में बीएसपी-एसपी के गठबंधन का प्रयोग, केसीआर के तीसरे मोर्चे का आव्हान और कांग्रेस का विपक्षी दलों के साथ महागठबंधन जैसे फॉर्मूले बीजेपी के खिलाफ वर्तमान राजनीति के दौर में कामयाबी नहीं दिला सकते हैं.

विपक्ष के सामने जहां पहला गतिरोध उसकी एकता का न होना है तो वहीं किसी महागठबंधन या तीसरे मोर्चे की सूरत में बड़ा सवाल उस ‘लीडर’ की तलाश है जिस पर विपक्ष में आम सहमति बन सके. जो पीएम मोदी के सामने ठहर भी सके. विपक्ष के पास बिहार के सीएम नीतीश कुमार एक विकल्प हो सकते थे लेकिन एनडीए में खुद नीतीश भी शामिल हो गए और ये भविष्यवाणी कर  चुके है कि मोदी के सामने साल 2019 में कोई नेता नहीं है.

 

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