बेहतरीन काम के बावजूद राजनीतिक नैतिकता की कसौटियों पर खरी नहीं उतरी आम आदमी पार्टी

दिल्ली सरकार के तीन साल पूरे होने पर उसका राजनीतिक ऑडिट शुरू हो गया है. हिंदी के एक बड़े अखबार ने पहले पन्ने पर प्रश्नावली छाप कर अपने पाठकों से पूछा है कि यह सरकार किन-किन क्षेत्रों में सफल या विफल रही. इस तरह के ऑडिट की पहलकदमी किसी मीडिया ग्रुप ने मोदी सरकार के लिए भी नहीं की है, बावजूद इसके कि मोदी को अगले साल ही चुनाव में जाना है. इससे पता चलता है कि केजरीवाल सरकार में समीक्षकों की दिलचस्पी कितनी है. लोग जानना चाहते हैं कि 2013 में शुरू हुआ यह अनूठा प्रयोग आज किस हालत में है.

इस छोटे से कार्यकाल में दिल्ली सरकार चलाने वाली आम आदमी पार्टी ने न जाने कितने चुनाव लड़ लिए, न जाने कितने विवादों से गुज़री, और न जाने कितनी बहसों को जन्म दे दिया. महानगर आधारित यह छोटा सा दल और उससे जुड़ा राजनीतिक प्रयोग हमारे लोकतंत्र की खामियों और खूबियों का आईना बन चुका है. इस आईने में जो छवियाँ दिखाई पड़ रही हैं, उनसे कुछ अहम सवाल उपजते हैं. इनमें सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि केजरीवाल की पार्टी दूसरी पार्टियों से ‘कुछ हट कर’ राजनीति करने के अपने इस आश्वासन पर खरी उतर पाई है?

इस समय आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की विधानसभा सदस्यता खत्म हो चुकी है. यह प्रकरण इस राजनीतिक प्रयोग पर बड़ा सवालिया निशान लगा देता है. जब केजरीवाल और उनके साथियों ने 67 सीटें जीत कर इतिहास रचा था, तो अभूतपूर्व खुशी के उस माहौल में छिपी हुई एक विकट समस्या उनकी आँखों में झाँक रही थी. कानूनन वे केवल छह मंत्री ही बना सकते थे. उस समय तक और मोटे तौर पर आज भी आम आदमी पार्टी स्वंयसेवकों के जत्थों का एक जमावड़ा ही थी. उसका संगठन तदर्थवाद का शिकार था, और आज भी है.

जब राजनीतिक नैतिकता पर उठे सवाल

पार्टी की समस्या यह थी कि वे अपने विधायकों और अन्य नेताओं को कारगर और उपयोगी राजनीतिक कामकाज में किस तरह लगाएँ. पार्टी ने अपने रैडिकल दावों के मुताबि़क कोई नया और लीक से हट कर तरीका खोजने के बजाय अन्य पार्टियों की सरकारों द्वारा अपनाया जाने वाला घिसापिटा और विवादास्पद हथकंडा ही अपनाया. उसने इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया, और अपने लिए स्थायी किस्म की मुसीबत मोल ले ली. यह कदम तकनीकी रूप से तो गलत था ही (दिल्ली विधानसभा के पास संसदीय सचिव को लाभ के पद की श्रेणी से बाहर निकालने का कानून बनाने की शक्तियाँ नहीं थीं), यह उस राजनीतिक नैतिकता की कसौटियों पर भी खरा नहीं उतरता था जिसकी दावेदारी करते हुए यह पार्टी सत्ता में आई थी.

आम आदमी पार्टी का यह नकारात्मक पहलू खुद उसकी अपनी देन है. केंद्र सरकार की तऱफ से उसके कामकाज में बहुत अड़ंगे लगाए गए, लेकिन यह समस्या उसका परिणाम नहीं है. इसी तरह अपने कोटे में आने वाली राज्यसभा की तीन सीटें भरने के सवाल पर भी यह पार्टी उस वायदे पर खरी नहीं उतर पाई जो उसने इस लोकतंत्र के साथ किया था. तीन से में दो सीटें उसने ऐसे तस्त्रवों के हाथ में थमा दीं जिनका उस राजनीति से दूर-दूर तक नाता नहीं है जिसे करने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से इस पार्टी का जन्म हुआ था. पहली नज़र में देखने पर यही लगता है कि उसके ये दोनों राज्यसभा सांसद उन अनकहे उद्देश्यों को ही पूरा करने का काम करेंगे जिनका विरोध करने के लिए झाड़ू का निशान दिल्ली के आसमान में बुलंद हुआ था.

दो बेहतरीन काम

मुझे लगता है कि अगर इन दो संगीन गलतियों को एक तऱफ रख कर देखा जाए तो शहरी गवर्नेंस की एक नयी पार्टी के तौर पर आम आदमी पार्टी ने कुछ असाधारण सफलताएँ भी हासिल की हैं. चालीस प्रकार की जनसेवाओं को दिल्ली के नागरिकों के दरवाज़े तक पहुँचाने वाली योजना पर अमल की शुरुआत एक ऐसी अनूठी उपलब्धि है जिसका भारत के लोकतांत्रिक शासन में कोई और मिसाल नहीं मिलती. किसी और राज्य में इसे कल्पित तक नहीं किया गया है. इसी तरह से शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चों पर इस सरकार द्वारा किया गया काम भी उसके आलोचकों तक से प्रशंसा प्राप्त कर चुका है. इस सफलता के दो पहलू उल्लेखनीय हैं. पहला, इन निर्णयों को लेने और इन कामों को करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए इस सरकार को उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से काफी लोहा लेना पड़ा. दूसरी तऱफ देश के अन्य राज्यों में गवर्नेंस का सबसे अधिक उपेक्षित अगर कोई क्षेत्र है तो वह यही है. भ्रष्टाचार और नाकारापन की बहुतायत और दूरंदेशी के अभाव में हर जगह स्वास्थ्य, शिक्षा और जनसेवाओं का कबाड़ा हो चुका है. अगर दिल्ली सरकार इस दिशा में कोई मिसाल कायम कर पाई तो वह सारे देश के लिए नमूना बन सकती है.

जल्दी ही यह पार्टी मिनी आम चुनाव में जाएगी. मध्यवर्ग भले ही पार्टी से फिरंट हुआ हो, दिल्ली के गरीब तबके आज भी केजरीवाल के साथ लगते हैं. मिनी आम चुनाव में दिल्ली की जनता को उसे समीक्षा के तराजू पर तौलना होगा. एक पलड़े में उसकी गलतियाँ होंगी, और दूसरे में उसकी खूबियाँ. जनता ही तय करेगी कि कौन सा पलड़ा भारी है.

लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में भारतीय भाषा कार्यक्रम का निदेशक और प्रोफेसर है.

 

सम्पर्क : [email protected]

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

 

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