भगत सिंह की बात करते हुए हम सुखदेव, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त को भूल जाते हैं

अनिमेश मुखर्जी 

देश की आजादी में शहीद हुए क्रांतिकारियों का कोई दर्जा होता है? इस सवाल के जवाब में ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि नहीं, मगर ये आधा सच है. 23 मार्च 1931 को तीन लोग फांसी पर चढ़े. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु. भगत सिंह की फांसी, शहादत और उनके विचारों पर अनगिनत बातें होती हैं. लेकिन सुखदेव और राजगुरु? आपने कई गाड़ियों, टीशर्ट्स पर भगत सिंह के स्टीकर और पेंटिंग देखीं होंगी. शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब भगत सिंह के साथ ये बाकी दोनों लोग भी नजर आते हों.

जरूरी नहीं कि ये नजरअंदाज किया जाना, जानबूझ कर होता हो. लेकिन होता तो है. हम सब अक्सर बोलचाल में 23 मार्च को भगत सिंह की फांसी से जोड़ते हैं. लेकिन इसमें बाकी दोनों को नजरअंदाज कर देते हैं. ये कमी सरकारी अमलों से लेकर इन शहीदों के शहरों और प्रतीकों की राजनीति हर जगह दिखती है.

अपने ही शहर में बेगाने

सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की रीढ़ की हड्डी थे. भगत सिंह ने जिस असेंबली में बम फेंकने की घटना को अंजाम दिया, उसकी प्लानिंग में सुखदेव का अहम रोल था. भगत सिंह के नाम पर पाकिस्तान में भी जगह हैं. लेकिन सुखदेव का शहर? लुधियाना की किसी पहचान में सुखदेव शामिल नहीं होते.

बताया जाता है कि सुखदेव थापर लुधियाना के नौगढ़ मोहल्ले में पैदा हुए. यहां उनका घर है. कपड़ों, स्वेटर और लस्सी की बातों के बीच सुखदेव से इस शहर को यहां के बाशिंदे ही शायद ही जोड़ते हों. शहर की सड़कों, गलियों, उनके घर जाने के रास्ते पर सुखदेव से जुड़ी पहचानें नहीं दिखती. लुधियाना शहर का बस अड्डा और एक स्कूल जरूर उनके नाम पर है.

जानने वालों की मानें तो इसमें राज्य सरकारों की नाकामी ज्यादा है. पंजाब की सरकारें शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के नाम पर तमाम आयोजन करते हैं लेकिन इनमें सुखदेव का शायद ही जिक्र होता है.

वहीं इनमें तीसरे साथी राजगुरु की बात करें तो स्थिति थोड़ी अलग है. पुणे से कोई 40 किलोमीटर दूर राजगुरु का गांव है. 2017 में महाराष्ट्र सरकार ने राजगुरु के पैतृक स्थल को रीस्टोर करने के लिए 5 करोड़ का बजट दिया. इससे पहले ये प्रोजेक्ट लंबे समय से फाइलों में अटका पड़ा था. हर साल वहां एक प्रोग्राम होता था. इस कार्यक्रम में लगभग 500 लोग शामिल होते थे. सरकार की इस मदद के बाद इसमें और सुधार आएगा.

जो बचा रहा उसे भूल गए

वैसे इन तीनों की बात करते हुए एक नाम और है जिसका जिक्र करना जरूरी है. बटुकेश्वर दत्त वही शख्स थे जिन्होंने असेंबली में भगत सिंह के साथ बम फेंका और पर्चे बांटे. दत्त को फांसी नहीं हुई. उन्हें आजन्म काला-पानी हुआ. देश 1947 में आजाद हो गया लेकिन दत्त की सजा आजादी के बाद एक तरह से और बढ़ गई.

सुखदेव का मकान, लुधियाना

सुखदेव का मकान, लुधियाना

जो व्यक्ति स्वतंत्रता इतिहास की सबसे अहम घटनाओं में से एक का हिस्सा रहा वो आजाद भारत में पटना में सिगरेट कंपनी का एजेंट, टूरिस्ट गाइड और ऐसे ही तमाम और छोटे मोटे काम करके गुजारा चलाता है. ऐसी तमाम परेशानियों के बीच बिहार सरकार के अधिकारी उनसे बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण मांग लेते हैं. जिसपर बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद खेद जताते हैं.

1964 में दत्त बीमार पड़े. पटना के सरकारी अस्पताल में उनके इलाज में लापरवाही हुई. इस पर क्रांतिकारी रहे चमलनाल आजाद ने एक लेख लिखा कि इस देश में कोई क्रांतिकारी पैदा ही नहीं होना चाहिए. पंजाब सरकार ने इसके बाद अपनी तरफ से दिल्ली में इलाज की पेशकश की, हजार रुपए दिए. एक राज्य की सरकार अब दूसरे राज्य की पेशकश पर ढीली रही. नतीजतन जब दत्त दिल्ली पहुंचे तो बिस्तर से उठने लायक नहीं थे.

सफदरजंग अस्पताल में उन्होंने पत्रकारों से कहा, ‘मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली की असेंबली में मैंने बम फेंककर इंकलाब जिंदाबाद की हुंकार भरी वहां मैं अपाहिज की तरह लाया जाऊंगा.’

दत्त ने आखिरी ख्वाहिश जाहिर की, उनका अंतिम संस्कार वहीं हो जहां भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का हुआ. 20 जुलाई 1965 में भारत पाक सीमा पर हुसैनीवाला में इस आंदोलन की आखिरी कड़ी का अंतिम संस्कार भी वहां हुआ.

भगत सिंह का योगदान अप्रतिम है. उतना ही इन सबका. किसी को कम ज्यादा आंकना गलत था, है और रहेगा. लेकिन कई सवाल इसके बाद जेहन में उठते हैं. हर साल ये विचार शमशान वैराग्य की तरह आते हैं और फिर चले जाते हैं.

इंकलाब जिंदाबाद

 

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