भाजपा के लिए उप्र से बज रही खतरे की घंटी

राजेश श्रीवास्तव 

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद जितने उपचुनाव हुए सबमें बीजेपी को हार मिली है। कई राजनीतिक विश्लेषक इस बात को मानते हैं कि अगर 2०19 के लोकसभा में भी विपक्ष एकजुट रहा तो बीजेपी को 2०14 के आम चुनाव के उलट नतीजे देखने को मिल सकते हैं। उपचुनाव के नतीजों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में आई कमी के तौर पर भी देखा जा रहा है। इससे साफ है कि आगामी चुनावों के लिए प्रधानमंत्री मोदी के लिए उत्तर प्रदेश से खतरे की घंटी बज रही है। विपक्ष के साथ आने से न केवल बीजेपी हार रही है बल्कि उसके वोट शेयर में भी गिरावट आई है।

2०14 के आम चुनाव में कैराना में बीजेपी का वोट शेयर 5०.6% था और अगर इसे कायम रखती तो बीजेपी को हार का सामना नहीं करना पड़ता। गोरखपुर और फूलपुर में विपक्षी एकजुटता के बाद से कैराना के उपचुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 46.5% हो गया। पालघर और बंडारा-गोंडिया में भी बीजेपी के वोट शेयर में 9 फ़ीसदी की गिरावट आई है। हालांकि 2०14 के आम चुनाव में शिवसेना भी बीजेपी साथ थी। इसके साथ ही महाराष्ट्र में 2०14 में एनडीए के साथ दो और पार्टियां थीं। ऐसे में बीजेपी के वोट शेयर में कितने पर्सेंट की गिरावट आई है ठीक-ठीक कहना मुश्किल है।

वहीं, बीजेपी प्रमुख अमित शाह का कहना था कि उपचुनाव प्रधानमंत्री तय नहीं करता है इसलिए इसके नतीजे को किसी संकेत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षक इस बात को मानते हैं कि इन नतीजों से बीजेपी की सांस अटक गई है कि जाट और मुसलमान साथ आ गए तो उनका पूरा खेल बिगड़ जाएगा। बीजेपी इस बात को पूरी तरह से समझती होगी कि उत्तर प्रदेश में दलित 21.2 फ़ीसदी हैं और मुसलमान 19.2 फ़ीसदी। इनके साथ जाट भी आ गए तो उत्तर प्रदेश में जातीय वोटों का अंकगणित बदल जाएगा।

कैराना में चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने पास के ही शहर बागपत में चुनावी रैली की तरह ही एक जनसभा को संबोधित किया था, लेकिन इसका भी कोई असर नहीं हुआ। वहीं दूसरी तरफ़ अमित शाह ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में दावा किया था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को 5० फ़ीसदी वोट मिलेगा। बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्षी पार्टियों ने 196० और 7० के दशक की कांग्रेस विरोधी रणनीति की तर्ज़ पर बीजेपी विरोधी गठजोड़ को अपनाया है। 196० और 7० के दशक में कांग्रेस को रोकने के लिए समाजवादी और जनसंघ एक ही मंच पर आए थे और अब बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस और समाजवादी धड़े एक मंच पर हैं।

2०19 के आम चुनाव से पहले उपचुनावों में विपक्ष की यह रणनीति हिट दिख रही है। अब देखना है कि बीजेपी इस रणनीति का क्या काट निकालती है। ये साल 2०14 की बात है। लोकसभा चुनाव की पूरी कहानी नरेंद्र मोदी ने अकेले पलट दी थी। भाजपा के कई नेताओं ने चुनाव प्रचार में ज़ोर लगाया था, लेकिन जो मोदी ने कर दिखाया, वो उनके अलावा उस वक़्त कोई नहीं कर सकता था। सियासी नज़रिए से देश की राजनीति में सबसे अहम माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भी मोदी का जलवा दिखाञ और साथ ही असर दिखा ध्रुवीकरण का।

समाजवादी पार्टी का मुसलमान-यादव वोटबैंक हो या फिर बहुजन समाज पार्टी का दलितों वाला दांव, हिदू-मुसलमान की बाज़ी के आगे सब हार गए। नतीजा उत्तर प्रदेश की 8० में से 73 सीटें भाजपा के खाते में। और ध्रुवीकरण में अहम भूमिका निभाई पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ख़ास तौर से कैराना ने। साल 2०13 में इस इलाके ने भीषण साम्प्रदायिक दंगे देखे थे। साल 2०14 के लोकसभा चुनाव और साल 2०17 के विधानसभा चुनाव में इसका असर भी दिखा। लेकिन साल-डेढ़ साल बाद ही सियासत ने फिर करवट ली। एक-दूसरे को दुश्मन मानने वालों ने हाथ मिलाने शुरू किए और बड़े दुश्मन को हराकर दिखाया। और इन छोटी-छोटी जीतों ने बड़ी लड़ाई के लिए विपक्षी दलों को एकजुट होने की और भाजपा को चिता की बड़ी वजह दे दी है। हर चुनावी नतीजे को 2०19 के लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जाने लगा है, ऐसे में आगे की क्या राह है।

 

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