‘भारतीय-जनता-कांग्रेस’ का क्या तीसरा मोर्चा हो सकता है!

नाजिम नकवी 

भारतीय जनता पार्टी हालिया लोकसभा उपचुनाव में तीन सीटें क्या हार गई, सोशल मीडिया पर एक तूफ़ान सा आ गया. ऐसा लगता है कि पिछले चार वर्षों में एक के बाद एक हार का मुंह देखने वाली सियासी पार्टियां और मोहल्लों-चौराहों पर खड़े उनके आम-समर्थक मुश्किल से मिले इस जश्न के अवसर में हार के तमाम दर्द भूल जाना चाहते हैं.

बिहार में अररिया लोकसभा सीट पर ज्यादा बात नहीं हो रही है क्योंकि वहां आरजेडी नेता तस्लीमुद्दीन की मौत के बाद उनके बेटे के पक्ष में सहानुभूति वोट पड़े और वह जीते. लेकिन उत्तर प्रदेश की फूलपुर और गोरखपुर की दोनों सीटों यानी मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री द्वारा खाली हुई सीटों पर हार का सामना करने को बीजेपी के प्रति जनमानस का गुस्सा बताया जा रहा है.

एक अलग नजरिया!

थोडा गौर करेंगे तो आपको यह नज़ारा कुछ नया सा लगेगा. क्योंकि अभी तक तो यह होता आया है कि सोशल मीडिया पर मोदी भक्तों का सैलाब हिचकोले खाता हुआ मिलता था. लेकिन 14 मार्च को उपचुनावों के परिणाम आने के बाद से जो घटनाक्रम लगातार बन रहे हैं, उनपर कैसी प्रतिक्रिया दी जाए, कैसा रुख अपनाया जाए, इस सवाल ने जैसे सबकुछ थाम सा दिया है.

सियासत को समझने में क्षत्रपों की छठी इंद्री भी कमाल की होती है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने तो मार्च के पहले हफ्ते में ही संकेत दे दिए थे कि भारतीय राजनीति में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए जल्द ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों से हटकर एक विकल्प जल्दी ही उभरकर सामने आएगा.

फ़रवरी के मध्य में ही टीडीपी जो एनडीए गठबंधन का हिस्सा थी उसने भी ऐलान कर दिया था कि यदि उनकी वह सभी 19 मांगें जिन्हें वित्त मंत्री ने पूरा करने का वादा किया था, नहीं मानी गईं तो वह 5 मार्च तक कोई निर्णायक फैसला करेंगे. बहरहाल, उन्होंने क्या किया ये पाठकों के सामने है. पहले उन्होंने सरकार का मंत्रीपद छोड़ा और अब गठबंधन से बाहर होना मात्र औपचारिकता रह गई है.

क्या है सियासी मजबूरी!

यकीनन टीडीपी की मांगें बीजेपी किसी सियासी मजबूरी के तहत नहीं मान पा रही है वर्ना कौन खुद को जोखिम में डालता है. लेकिन पीडीपी की भी मजबूरी है. आंध्रप्रदेश की जनता के सामने टीडीपी को यह दिखाना है कि उनके लिए कितना दर्द उनके सीने में है. दूसरी तरफ वाईएसआर कांग्रेस से भी उसे मुकाबला करना है.

फिलहाल तो विशेष-दर्जा पाने की मांग के साथ जगन रेड्डी ने तुरूप का पत्ता फेंक ही दिया है. जब उन्होंने गुरुवार को आंध्र प्रदेश को विशेष श्रेणी का दर्जा देने से केंद्र के इंकार का फायदा उठाते हुए बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने के लिए एक नोटिस दे दिया है.

जगन रेड्डी के सलाहकार जानते हैं कि उनके पास केवल 9 सांसद हैं और अविश्वास-प्रस्ताव लाने के लिए 50 सांसदों की जरूरत होती है लेकिन सारा खेल यहां पहल करने का है. उन्हें मालूम है कि चंद्रबाबू के सामने इस नोटिस के समर्थन में आने के सिवा कोई चारा नहीं है. कांग्रेस जो न तीन में है न तेरह में, उसके पास भी कोई चारा नहीं है, शिव-सेना पहले ही टीडीपी के हक़ में खड़ी है.

नीरव मोदी-मेहुल चोकसी मुद्दे से राहत!

इस बीच नीरव मोदी, मेहुल चोकसी जैसे 31 लुटेरों और भगोड़ों के नाम पर चढ़ा बुखार कम हुआ है. हालांकि जिन 31 लुटेरों और भगोड़ों की लिस्ट सामने आई है उनमें से सारे बीजेपी शासन में नहीं भागे हैं, इनमें अनेक नाम वह हैं जो कांग्रेस-शासन को धता बताकर भागे हैं. इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस-शासन में बड़े सेठों की लूट का जो माहौल था वह बीजेपी-शासन में भी बा-दस्तूर कायम है.

इसे यूं भी कहा जा सकता है कि देश की जनता ने 2014 में कांग्रेस से छुटकारा पाकर और मोदी में विशवास जताकर जो राहत पानी चाही थी, चार साल बाद भी उन्हें उसके दर्शन नहीं हुए.

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उधर तमिलनाडु में भी हालात बीजेपी के हाथ से निकलते नजर आ रहे हैं. त्रिपुरा की जीत के बाद जो मूर्ति तोड़ने का नाटक शुरू हुआ था उसकी आंच में वेल्लोर जिले में पेरियार की मूर्ति भी तोड़ी गई. जिसका विरोध वेल्लोर से शुरू हुआ और चेन्नई तक पहुंच गया. इस विरोध का सामना बीजेपी के नेता एच राजा को भी झेलना पड़ा जिन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखा था कि त्रिपुरा की ही तरह तमिलनाडु में भी पेरियार की प्रतिमा हटाई जाएगी. कहा ये गया कि इस पोस्ट के बाद ही पेरियार की प्रतिमा पर हमला हुआ.

क्या ये द्रविड़ युग का अंत है?

लेकिन अब इस मामले ने द्रविड़ अस्मिता का रूप ले लिया है. दरअसल बीजेपी ने पीछे यह दावा भी किया था कि जल्दी ही तमिलनाडु में द्रविड़-युग का अंत होगा. इस दावे के बाद गुरुवार को जब तमिलनाडु के वित्तमंत्री ओ पन्नीरसेल्वम राज्य का सालाना बजट पेश करने पहुंचे तो उन्होंने 1967 के बाद से द्रविड़ सरकार की उपलब्धियों का बखान और राज्य के विकास में उसके योगदान का जिक्र करना शुरू किया. इसमें विरोधी डीएमके का कार्यकाल भी शामिल है.

यह निश्चित तौर पर बीजेपी की राजनीति को एक इशारा था कि अगर द्रविड़ अस्मिता के साथ छेड़-छाड़ हुई तो तमिलनाडु आंदोलन की राह लेगा. यहां भी एआईडीएमके ने डीएमके को बिसात पर शह देने की कोशिश की है.

कुलमिलाकर अपनी-अपनी साख बचाने और करीब आते चुनावों के लिए माहौल बनाने में अब हर कदम फूंक-फूंक कर रखा जाएगा. इसीलिए प्रधानमंत्री और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उपचुनावों में बीजेपी की हार पर खामोश हैं. उपचुनाव के नतीजों पर बिहार में सुशील मोदी ने अपने लब खोले. उत्तर प्रदेश में योगी बोले मगर मोदी-शाह की जोड़ी ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं. जो संदेश दिया गया वह ये कि ‘अति-आत्मविश्वास के चलते हम यह उपचुनाव हारे हैं…अभी समय है हम इस संकट से उबर जाएंगे’.

क्या इस बार भी असफल होगा तीसरा मोर्चा?

अब आइए इस लेख के मूल की तरफ. इतिहास उठाकर देखिए, तीसरा मोर्चा बना तो जरूर लेकिन कभी सफल नहीं हो पाया. उधर भारतीय राजनीति के केंद्र में किसी राष्ट्रीय पार्टी का ही वर्चस्व हमेशा रहा है. अब राष्ट्रीय पार्टी के नाम पर कांग्रेस को गिनना कहां तक तर्क-संगत है यह तो कांग्रेस ही जाने लेकिन वर्तमान में बीजेपी ही अकेली पार्टी है जिसे राष्ट्रीय-पार्टी कहा जा सकता है. इसलिए चाहे उसके विरोध में कितने ही सुर उठें, 2019 में उससे अलग हटकर किसी सरकार की कल्पना करना तारे तोड़कर लाने जैसा लगता है.

लेकिन पिछले चार साल में केंद्र की सत्ता ने जिस तरह पूरे देश पर अपना अंकुश बनाए रखा है. उसने क्षत्रपों को इस विकल्प पर एक बार फिर सोचने पर जरूर मजबूर किया है क्योंकि निश्चित ही भारत एक संघीय-राष्ट्र है सिर्फ इतना ही नहीं, संघीय या राज्य-सरकारों की स्वतंत्रता की रक्षा की बात हमारा संविधान भी करता है.

लेकिन यह भी सच है कि पिछले 70 वर्षों में केंद्र की सत्ता ने लगातार अपनी शक्तियां बढ़ाने का हर तरीका इस्तेमाल किया है. इसमें कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही शामिल हैं. इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ कहते हैं कि जब बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही केंद्र और संघ के सौहार्दपूर्ण रिश्तों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं तो क्यों न तीसरा मोर्चा इस बार एक नए नाम ‘भारतीय जनता कांग्रेस’ (भाजकां) के साथ भारतीय राजनीति में तीसरी राष्ट्रीय शक्ति बनकर और स्थायी शक्ति बनकर उभरे.

कांग्रेस से मतदाताओं का मोह भंग!

देश के मतदाताओं का कांग्रेस से मोह-भंग तो हो चुका है लेकिन किसी तीसरे विकल्प के अभाव में मजबूर होकर कांग्रेस का हाथ थामने से पहले क्षत्रपों को यह मंथन जरूर करना चाहिए. कई राज्य ऐसे भी हैं जहां कोई क्षेत्रीय ताकत नहीं है और कांग्रेस या बीजेपी में ही चुनाव होता आया है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस या बीजेपी को उस राज्य के क्षेत्रीय दल की ही तरह मानकर उससे गठजोड़ करने में आखिर क्या परेशानी हो सकती है.

वर्तमान स्थितियों में बीजपी के आत्म-विश्वास में हो सकता है कमी आई हो लेकिन उसके पास अभी भी काफी समय है कि वह कुछ जन-हित के ठोस कदम उठाकर जनता से अपने रिश्ते संवार ले. मगर जो चिंता वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह की है उसके बारे में भी उसे गहन चिंतन तो करना ही होगा. अजय सिंह मानते हैं कि ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ताजा क्षेत्रों पर कब्जा जारी है मगर पुराने क्षेत्रों को बरकरार रखना उनके सामने एक ऐसी चुनौती है जो दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है’.

 

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