भारत सरकार के स्वागत मात्र के तरीक़े से जस्टिन टूडो को समझ जाना चाहिए की भारत उनके ख़ालिस्तान के नरम रूख से गरम है

भारत की अपनी 6 दिवसीय दौरे पर कल, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो, सपरिवार दिल्ली पहुंच गये है। उनकी इस यात्रा पर, खास तौर पर सोशल मीडिया पर कोई हलचल नही दिखाई दे रही है, जबकि कनाडा एक महत्वपूर्ण राष्ट्र है औऱ वहां भारतीय प्रवासी, खास तौर से पंजाब के काफी रहते है।

मैं समझता हूं कि इसका कारण यह है की लोगो को शायद यह बोध है की भारत और कनाडा के सम्बन्धो का विश्व के बनते नए समीकरणों में कोई केंद्रीय भूमिका नही है। यदि इसको सीमित दायरे में देखे तो लोगो को सोचना भी ठीक है लेकिन मेरे लिये, यह यात्रा महत्वपूर्ण है। वैसे तो इस यात्रा में व्यपार, कृषि या फिर तकनीकी आदान प्रदान को लेकर कई घोषणायें होने की संभावना है लेकिन मेरी उसमे कोई दिलचस्पी नही है। मेरी दिलचस्पी इस बात पर है की भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी और एनएसए अजीत डोभाल बन्द कमरों में जस्टिन ट्रुडो से क्या बात करेंगे और भविष्य में उसके परिणाम क्या निकलने की संभावना है।

मैं समझता हूँ कि उन लोगो को इस यात्रा पर ध्यान देना चाहिये जिनको अंतराष्ट्रीय मामलों पर बोलना या लिखना  बड़ा अच्छा लगता है लेकिन कूटनीति और उसके संकेतो को पढ़ने का ज्ञान नही होता है। अब जबकि कनाडा के प्रधानमंत्री भारत पहुंच चुके है  तो मुझे अपने मन मे उठ रहे सवालों के जवाब भी मिलने लगे है। एक बात तो स्पष्ट हो गयी है की भारत ने वैश्विक परिदृश्य में अपने अंदर इतना आत्मविश्वास भर लिया है की उसके लिये कनाडा को महत्व देना जरूरी नही है। इसको इस तरह समझना चाहिये कि भारत की नरेंद्र मोदी जी की सरकार के लिये कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो एक सहज सहयोगी नही है। वास्तविकता तो यह है भारत की जो समझ कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री स्टीफेन हार्पर के काल मे थी वह वर्तमान के प्रधानमंत्री से बिल्कुल नही है।

दरअसल कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो भयंकर रूप से सेक्युलर है और भारतीय सेक्युकर राजनैतिज्ञों की तरह वो भी अल्पसंख्यकों के अतिवाद को वोट बैंक बनाकर प्रधानमंत्री बने है। इनकी सेक्युलरता का यह हाल है की भारत विरोधी खालिस्तानियों और कट्टर पाकिस्तानी मुल्लाओं की गतिविधियों को न सिर्फ नज़र अंदाज़ करते है बल्कि उनको मुख्य धारा में प्रतिस्थापित करने से भी नही चूकते है। ट्रुडो के काल मे कनाडा में खालिस्तान मूवमेंट को हवा मिल रही है, वे पिछले साल खालसा दिवस के जश्न में शामिल हुए थे, जहां खालिस्तान समर्थक जरनैल सिंह भिंडरवाले और मेजर जनरल शाबेग सिंह के गुणगान किए गए थे। भारत ने इस फंक्शन में ट्रूडो के शामिल होने पर आक्रोश व्यक्त किया था।

कनाडा के प्रतिष्ठान का वर्तमान रुख भी उतना मनभावन नहीं है। कुछ हफ़्ते पहले ही कनाडा के गुरुद्वारों ने भारतीय अधिकारियों को देश में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी। यह हाल ही की बात है जब एक पूर्व सीआरपीएफ कमांडेंट को ‘मानव अधिकारों के उल्लंघन’ पर कनाडा में प्रवेश करने से इनकार कर दिया गया था, क्योंकि कमांडेंट ने एक बार माओवादियों के साथ लड़ाई की थी।

ट्रुडो अपनी इस भारत की यात्रा में अपने साथ कनाडा के डिफेंस मिनिस्टर हरजीत सिंह सज्जन और इन्फ्रास्ट्रक्चर मिनिस्टर अमरजीत सोही को लेकर आये है जिनपर खालिस्तान का समर्थन का आरोप लगता रहा है और यह भारत को नागवार गुजरा है।

अब, अंतराष्ट्रीय कूटनैतिक जगत में इन सब बातों का कैसे जवाब दिया जाता है यह जस्टिन ट्रुडो के लीक से हट कर, भारतीय स्वागत से समझा जासकता है। कल जब दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो पर पहुंचे तब सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी की उनका स्वागत करने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी नही गये। मोदी जी हमेशा मित्र राष्ट्र या पश्चिम के बड़े राष्ट्रों से आये अतिथि का स्वागत करने हमेशा स्वयं जाते है लेकिन इस बार नही किया। यही नही ट्रुडो की अगवानी के लिये भारत ने किसी महत्वपूर्ण केबिनेट मंत्री को न भेज कर, केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को भेजा है।

मुझे, ट्रुडो के स्वागत में दिखाय गये कूटनैतिक हथियार से यही समझ मे आरहा है की भारत की कनाडा से ऑफ द रिकार्ड वार्ता गर्म होगी और भारत दबाव की कूटनीति करेगा।

 

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