मध्य प्रदेश चुनाव: कर्नाटक फॉर्मूले पर सरकार बनाने की जुगत में बीएसपी

नई दिल्ली। मंदसौर में किसानों पर पुलिस फायरिंग के बाद बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती पुलिस और मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार पर जम कर बरसीं. उन्होंने सिर्फ राज्य सरकार को ही नहीं बल्कि केन्द्र सरकार पर भी निशाना साधा था और दलित, अल्पसंख्यक, मजदूर गरीब और किसान विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाया था. मायावती के इस गुस्से को सभी ने राजनीतिक पैंतरा माना था लेकिन किसी को ये उम्मीद नहीं थी कि मायावती मध्यप्रदेश में पूरी तरह से चुनावी मैदान में घुसने की तैयारी कर रही थीं.

गोरखपुर और फूलपुर, कैराना की जीत के बाद कांग्रेस को उम्मीद थी कि जैसे इन तीनों उपचुनाव में विपक्ष एकजुट हुआ था वैसे ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष एकजुट हो जाएगा. कांग्रेस नेता समान विचारधारा वाली पार्टियों से गठबंधन की बात करते रहे और बीएसीपी ने कांग्रेस को झटका देते हुए सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है.

सवाल उठता है कि क्यों मायावती गठबंधन के बजाय चुनाव में पूरी तरह से उतरना चाहती हैं. ऐसी क्या ताकत है बीएसपी के पास जिसको लेकर वो इतने आत्मविश्वास से भरी है.

मायावती का वोटबैंक

राजनीतिक विश्लेषणों के मुताबिक मायावती का ज्यादातर वोटर गरीब और दबा-कुचला वर्ग है. इस वर्ग की एकता अलग होती है और उनका सबसे महत्वपूर्ण सरोकार सम्मान से जुड़ा होता है. इस सम्मान के लिए जो नेता खड़ा होता है उसका वो दिल से समर्थन करते हैं. मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं और इस दौरान उन्होंने बाकायदा दलितों के सम्मान की लड़ाई लड़ी. मायावती खुद दलित वर्ग से आती हैं ऐसे में उनका वोटर अपने सपने को मायावती के जरिए पूरा होता देखता है. यही वजह है मायावती का वोटर बाकायदा अपने नेता के प्रति वफादार है.

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गोरखपुर और फूलपुर में भले ही समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार जीता है लेकिन इसमें सबसे बड़ा योगदान बहुजन समाज पार्टी का माना जाता है. जीतने के कुछ ही घंटे बाद अखिलेश यादव मायावती के घर यूं ही नहीं गए थे. वो जानते थे कि मायावती के कहने पर बीएसपी वोटर मन से उनके उम्मीदवारों के साथ खड़ा था.

उत्तर प्रदेश में बीएसपी

बीएसपी उत्तर प्रदेश में पहली बार 1989 में विधानसभा चुनाव में उतरी थी और 372 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. हालांकि उनमें से 282 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई लेकिन 13 विधायकों की जीत के साथ उन्हें 9.41 फीसदी वोट मिले थे. और उसके बाद चुनावों में उनका वोट शेयर बढ़ता रहा. बीएसपी साल 2002 में 401 सीट पर चुनाव लड़ी थी. जिनमें से उन्हें 98 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. और वोट 23.06 फीसदी तक चला गया. साल 2007 में 206 विधायकों के जीत के साथ बीएसपी का वोट फीसदी 30.43 तक चला गया. उसके बाद बीएसपी के विधायक भले ही कम होते गए लेकिन वोट शेयर 20 से 25 फीसदी के बीच रहा. 2017 में सबसे खराब प्रदर्शन यानी 403 सीटों में सिर्फ 19 सीटों पर जीत मिली लेकिन वोट फीसदी 22.23 रहा. और यही बीएसपी की ताकत है.

बाकी राज्यों में जनाधार

ऐसा नहीं है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में बीएसपी का जनाधार है. बीएसपी को बनाने वाली कांशीराम हमेशा राष्ट्रीय स्तर की बात करते थे. उनका मानना था कि उनकी पार्टी देशभर के दलितों को जोड़ने का काम कर सकती है. पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के साथ-साथ दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और अब कर्नाटक में बीएसपी का अपना वोट बैंक है.

मध्यप्रदेश में 1998 में विधानसभा चुनाव में 171 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और 11 विधायकों के साथ 6.15 फीसदी वोट पर कब्जा किया था. पंजाब में 1992 में 105 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. यहां पर जीत भले ही 9 विधायकों को मिली लेकिन 16.32 फीसदी वोट पर कब्जा किया था.

कुछ ऐसी ही कहानी उत्तराखंड में थी जहां पर 2007 में 8 सीटों पर जीत के साथ 11.76 वोट फीसदी पर कब्जा किया था. हाल फिलहाल हुए कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने जनता दल सेक्यूलर का हाथ थामा और दोनों पार्टियों ने करीब 18 फीसदी वोट पर कब्जा किया. हालांकि उसमें बीएसपी का वोट शेयर मात्र 0.4 फीसदी है. कांग्रेस का वोट शेयर 38 फीसदी है हालांकि सरकार जेडीएस की बनी है.

मध्यप्रदेश में बीएसपी

मध्यप्रदेश में बीएसपी ने 1990 में पहली बार चुनावी कदम रखा था. हालांकि 28 साल बाद भी वो मध्यप्रदेश में तीसरी मजबूत पार्टी नहीं बन पाई थी. लेकिन बीएसपी ने जमीनी स्तर पर काम करना शुरू कर दिया था. यही वजह थी कि जब 1996 में लोकसभा चुनवा में सतना से बीएसपी उम्मीदवार सुखलाल कुशवाह जीते तो लोग चौंक गए थे.

इस चुनाव में बीजेपी से पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा और तिवारी कांग्रेस से राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह मैदान में थे. तिवारी कांग्रेस बनाकर चुनाव मैदान में उतरे अर्जुन सिंह तीसरे नंबर पर रहे थे.

हालांकि उसके बाद बीएसपी ने चुनावी समर में कुछ कमाल नहीं दिखाया लेकिन उत्तर प्रदेश से सटे इलाकों में बीएसपी का प्रभाव दिखता है. बीएसपी ने 1990 में साढ़े तीन फीसदी वोटों के साथ अपना सफर शुरू किया था. वह दो सीटें हासिल करने में सफल रही थी. इसके बाद 1993 और 1998 में वो धीरे-धीरे 7.02 और 6.04 फीसदी वोट हासिल कर 11-11 सीटें उसने हासिल की. साल 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस विरोधी लहर और बीजेपी के जबरदस्त चुनाव प्रचार के बाद बीएसपी दो सीटों पर सिमटी, लेकिन उसने वोट फीसदी बढ़ाकर 7.26 कर लिया.

इसके बाद 2008 में 7 सीटें जीती और 8.72 वोट फीसदी तक पहुंच गई. मध्यप्रदेश विधानसभा के 2013 के चुनाव में भी बीएसपी को करीब 6.5 फीसदी वोटों के साथ सिर्फ चार सीटें मिलीं थीं.

कर्नाटक का फॉर्मूला

फोटो पीटीआई से

कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस के ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद गठबंधन में सरकार जेडीएस की बनी. कांग्रेस को 78 सीटें मिलीं जबकि जनता दल सेक्युलर को 37 सीटें मिली थीं. कर्नाटक के फार्मूले ने बीएसपी को नई उम्मीद दी. और अब बीएसपी मध्यप्रदेश में ड्राइविंग सीट पर आना चाहती है.

बीएसपी के राज्य अध्यक्ष नर्मदा प्रसाद अहिरवार ने भी इस बाबत इशारा किया है. उन्होंने कहा है कि हम प्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे लेकिन हमारा ध्यान मुख्य रूप से उन्हीं सीटों पर होगा जहां हमारा प्रभाव ज्यादा है. हमारा लक्ष्य 55 से 60 सीटें जीतने का है.

बहुजन समाज पार्टी राज्य की अस्सी से अधिक सीटों पर अपना असर रखती है. वहीं समाजवादी पार्टी का भी अपना वोट बैंक है. बीएसपी जहां अनुसूचित जाति वर्ग को अपना वोट बैंक मानती है वहीं समाजवादी पार्टी यादव और अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटरों पर फोकस करती है.

मध्यप्रदेश की सत्ता कांग्रेस और बीजेपी के बीच में उछल-कूद करती है. हालांकि 2003 में कांग्रेस की सबसे बुरी हार रही है. उसके बाद से प्रदेश में बीजेपी की सरकार रही लेकिन 15 साल की बीजेपी की सरकार को कांग्रेस चुनौती दे रही है.

कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान बीएसपी के चुनाव मैदान में होने से होता है. कांग्रेस के इस परंपरागत वोटर को तोड़ने की कोशिशें कांशीराम के जमाने से चल रही हैं. यही वजह थी कि इस बार कांग्रेस गठबंधन पर विचार कर रही थी लेकिन बीएसपी ने कांग्रेस की कोशिशों पर पानी फेर दिया.

मायावती ने नवंबर 2017 में ही कहा था, ‘बीजेपी व अन्य सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए बीएसपी गठबंधन के बिल्कुल खिलाफ नहीं है. लेकिन पार्टी गठबंधन तभी करेगी जब बंटवारे में सम्मानजनक सीटें मिलेंगीं.’ गोरखपुर और फूलपुर में समाजवादी पार्टी को समर्थन देते हुए उन्होंने साफ इशारा किया कि वो गठबंधन करने के लिए तैयार हैं लेकिन अपनी शर्तों पर.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती अपने कोर वोट बैंक की वजह से ही अपनी शर्तों पर अड़ती हैं. बीएसपी ने कांग्रेस को सिर्फ उत्तर प्रदेश में झटका नहीं दिया बल्कि कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर के साथ गठबंधन कर कांग्रेस के वोट शेयर को कम किया. बीएसपी के मुताबिक पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करना चाहती है. ताकि वो जमीनी स्तर पर भी अपना विस्तार करे. लेकिन कांग्रेस जिन राज्यों में मजबूत है वहां उसे ज्यादा सीटें नहीं देना चाहती और उत्तर प्रदेस जहां पर कांग्रेस कमजोर है वहां पर गठबंधन के लिए हाथ बढ़ाना चाहती है.

बीएसपी ने गुजरात में 25 और हिमाचल में कांग्रेस की हारी हुई 10 सीटें मांगी थीं. लेकिन कांग्रेस ने मना कर दिया था और उसका नुकसान भी झेला. दोनों राज्यों में बीजेपी के खिलाफ वोट में बंटवारा हो गया. बीएसपी ने गोरखपुर और फूलपुर में बता दिया है कि उसके बिना कोई भी विपक्षी पार्टी बीजेपी को टक्कर नहीं दे पाएगी.

मध्यप्रदेश में 15.62 फीसदी दलित वोटर है जो कि सारी पार्टियों में बंटे हैं. मध्यप्रदेश विधानसभा की 230 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए 116 सीटों की जरूरत होती है. मायावती की बीएसपी की कोशिश है कि वो 50-55 सीटों पर जीत हासिल करे. अगर वो ऐसा करने में सफल हो गई तो कर्नाटक के फॉर्मूले के हिसाब से अगली सरकार बीएसपी की बनेगी.

 

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