मायावी प्रपंच के बहाने कांशीराम से जुड़ी कुछ यादें

मनोज दुबे 
जिसका न तो अपना कोई घर रहा न परिवार। भारत सरकार की साधारण नौकरी करने वाले इस असाधारण व्यक्ति की नजर भले ही देखने में सीधी लगती हो लेकिन रहती हमेशा गांव-कस्बों के उस दक्षिणी छोर की ओर थी जहां दलितों और शोषितों को ठौर देने की परंपरा सी बन गई थी। दलित संघर्ष के इस सचेतक ने ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का ऐसा नारा दिया, जिसने आगे चलकर दलितों को सत्ता तक भी पहुंचाया। इस नारे ने दलितों को वह आवाज दी जिसकी अनसुनी करना भारत की राजनीति में संभव नहीं रह गया। दलितों को सत्ता की चैखट तक लाने वाले इस शख्सियत का सपना भले ही इस जमात को सत्ता का सिंहासन पर देखने का रहा हो, लेकिन आज उसके अनुयायी उन्हीं के नाम पर ‘सरकारी सम्पत्ति पर कब्जा’ का ऐसा प्रपंच रच रहे हैं जिसने दलित संघर्ष के इस चितेरे को आमजन के बीच हंसी का पात्र बना दिया है।
जी हां, हम बात करे रहे हैं दलित आंदोलन के प्रणेता और पुरोधा रहे कांशीराम की। हमेशा नीली व सफेद आधी बांह की कमीज में दिखने वाले कांशीराम पुणे के डीआरडीओ में नौकरी के दौरान अंबेडकर जयंती को सार्वजनिक अवकाश घोषित करने को लेकर बगावत पर उतर गये। देखते ही देखते यह व्यक्तिगत बगावत एक सार्वजनिक मुहिम में बदल गई। जिसका नेतृत्व और संघर्ष कर रहा व्यक्ति लोगों के दिलो-दिमाग में ऐसा छाया कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। फिर क्या था, कांशीराम ने नौकरी को अलविदा किया और निकल पड़े सदियों से शोषित समाज के उत्थान के लिए और उसे बराबरी का हक दिलाने के लिए। मीलों पैदल चले, साइकिल चलाई। देखते ही देखते करोड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ लेने वाले कांशीराम को कभी-कभी फटी कमीज पहने देख लोगों की आंखें फटी की फटी रह जाती थी।
सियासी सत्तासीन राजनेताओं की नींद उड़ रही थी। वजह कांशीराम जिस वर्ग का नेतृत्व कर रहे थे, उसकी उम्मीदें अंगड़ाई लेने लगी थी और उस तबके का समर्थन उनके लिए ‘थाती’ से कम नहीं था। वोटबैंक का खेल खेलने वाले हर सियासी नजर में कांशीराम चढ़ चुके थे। हर कोई उनसे समझौता को लालायित दिखने लगा, वो क्या भाजपा रही, कांग्रेस या समाजवादी पार्टी। लेकिन कांशीराम किसी गठबंधन के सामने कभी मजबूर नहीं दिखे। अपने उसूल और दलित राजनीति व संघर्ष को प्राथमिकता देने वाले कांशीराम समय के हिसाब से भले ही समझौता करते रहे लेकिन अपने लक्ष्य के लिहाज से गठबंधन भी तोड़ा।
कहा तो यह भी जाता है कि अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में अटल बिहारी वाजपेयी ने कांसीराम के सामने राष्ट्रपति का प्रस्ताव रखा था। जिसे कांशीराम ने एक झटके में यह कहकर ठुकरा दिया कि आपके इस प्रस्ताव को स्वीकार कर यदि मैं अपने आपको रायसीना हिल्स के एक कमरे में बंद कर लूंगा तो मैं दलित चेतना की अपनी उस पूंजी को गंवा दूंगा जो मैंने इतने लंबे संघर्ष से संजोया है। अगर मुझे कुर्सी कुबूल करनी ही हो तो मैं राष्ट्रपति के बजाय प्रधानमंत्री की कुर्सी कुबूल करना पसंद करूंगा। मेरा संघर्ष समाज के दलितों व वंचितों को सत्ता की कुर्सी पर बिठाने का है न कि सर्वोच्च पद पाकर चुप हो जाने का।
अटल जी का राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद का प्रस्ताव कांशीराम द्वारा ठुकरा दिये जाने की खबर तत्कालिक रूप से भले ही सुर्खियां बन पाई हो या न पाई हो, लेकिन आज उनके अनुयायियों के कारनामों के कारण कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो चुकी है। सरकारी सम्पत्ति पर मायावती द्वारा उनके नाम का बोर्ड लगवाने की चतुराई बरतने के कारण हर उस व्यक्ति को कांशीराम को याद करने के लिए मजबूर करेगी जो दलित संघर्ष के उस चितेरे की भावना को समझता होगा।

 

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