याद है 1966 का वो आन्दोलन जिसमें इंदिरा गांधी ने हजारों साधुओं को गोलियों से भुनवा दिया था!

1966 के गो-हत्‍या बंदी Andolanमें जब संसद के सामने रोते और साधुओं की लाशें उठाते हुए करपात्री महाराज ने दिया था श्राप- मैं कांग्रेस को श्राप देता हूं कि एक दिन हिमालय मे तपश्चर्या कर रहा एक साधू आधुनिक वेशभूषा मे इसी संसद को कब्जा करेगा और कांग्रेसी विचारधारा को नष्ट कर देगा। यह एक सच्चे औऱ असली ब्राह्मण का श्राप है।

स्वाधीन भारत में विनोबाजी ने पूर्ण गोवध बंदी की मांग रखी। उसके लिए कानून बनाने का आग्रह नेहरू से किया। वे अपनी पदयात्रा में यह सवाल उठाते रहे। कुछ राज्यों ने गोवध बंदी के कानून बनाए।

इसी बीच हिन्दू महासभा के अध्यक्ष निर्मल चंद्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने एक विधेयक 1955 में प्रस्तुत किया। उस पर जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में घोषणा की कि ‘मैं गोवध बंदी के विरुद्ध हूं। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें और न कोई कार्यवाही।’ लेकिन 1956 में कसाईयों ने उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उस पर 1960 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया।

धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा था। लोगों को लगा कि अपनी सरकार अंग्रेजों की राह पर है। वह आश्वासन देती है, लेकिन आचरण उसका गोवध के नाश का होता है।

इससे ही गोरक्षा का प्रश्न पिछली सदी के छठे दशक में राष्ट्रीय सवाल बन गया। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्रीजी और देश के तमाम संतों ने इसे आंदोलन का रूप दिया। गोरक्षा का अभियान शुरू हुआ। वह अभियान जैसे-जैसे बढ़ा उसके महत्व को राजनीतिक नेताओं ने समझा। सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखा। वह 21 सितंबर, 1966 का है। उन्होंने लिखा कि ‘गो-वध बंदी के लिए लंबे समय से चल रहे Andolan के बारे में आप जानतीं ही हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा सामने आया था।— और जहां तक मेरा सवाल है मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत जैसे एक हिन्दू-बहुल देश में, जहां गलत हो या सही, गोवध के विरुद्ध ऐसा तीव्र जन-संवेग है, गोवध पर कानूनन प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जा सकता।’

इंदिरा गांधी ने जे.पी. की सलाह नहीं मानी। परिणाम हुआ कि सर्वदलीय गोरक्षा महा अभियान ने दिल्ली में विराट प्रदर्शन किया। दिल्ली के इतिहास का वह सबसे बड़ा प्रदर्शन था।

गोरक्षा के लिए तब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ ने गोरक्षा के लिए प्रदर्शनकारियों पर पुलिस जुल्म के विरोध में और गो-वध बंदी की मांग के लिए 20 नवंबर, 1966 को अनशन प्रारंभ कर दिया। वे गिरफ्तार किए गए। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का अनशन 30 जनवरी, 1967 तक चला। 73वें दिन डॉ. राममनोहर लोहिया ने अनशन तुड़वाया। अगले दिन पुरी के शंकराचार्य ने भी अनशन तोड़ा। उसी समय जैन संत मुनि सुशील कुमार ने भी लंबा अनशन किया था। ऐसे संकल्प तो संत अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए ही करते हैं।

ऐसा नहीं है कि गोरक्षा का प्रश्न उस Andolan के बाद बंद हो गया। वह दस साल बाद फिर शुरू हुआ। उसे संत विनोबा ने उठाया। 12 अप्रैल, 1978 को डॉ. रामजी सिंह ने एक निजी विधेयक रखा। जिसमें संविधान की धारा 48 के निर्देश पर अमल के लिए कानून बनाने की मांग थी। 21 अप्रैल, 1979 को विनोबा ने अनशन शुरू कर दिया। पांच दिन बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने कानून बनाने का आश्वासन दिया और विनोबा ने उपवास तोड़ा।

10 मई, 1979 को एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। जो लोकसभा के विघटित होने के कारण अपने आप समाप्त हो गया। इंदिरा गांधी के दोबारा शासन में आने के बाद 1981 में पवनार में गोसेवा सम्मेलन हुआ। उसके निर्णयानुसार 30 जनवरी, 1982 के सुबह विनोबा ने उपवास रखकर गोरक्षा के लिए सौम्य सत्याग्रह की शुरुआत की। वह सत्याग्रह 18 साल तक चलता रहा।

गोवध बंदी Andolan और सत्याग्रहों का ही प्रभाव था कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने धर्मपाल की अध्यक्षता में गो-पशु आयोग बनाया। धर्मपाल ने जल्दी ही आयोग की सीमाएं पहचान लीं। वे समझ गए कि मसले को टालने के लिए आयोग बनाया गया है।

सरकार गोवंश की रक्षा के प्रति ईमानदार नहीं थी। उन्होंने यह अनुभव करते ही आयोग से इस्तीफा दे दिया। धर्मपाल मानते थे और यही सच भी है कि गोवध पर पूरा प्रतिबंध लगना चाहिए। इसके लिए कानून हो। नेहरू के जमाने में सुप्रीम कोर्ट से थोड़ी अड़चन थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री को Andolan का बहाना भी मिल जाता था।

गोवध बंदी Andolan और सत्याग्रहों का ही प्रभाव था कि स्‍वामी करपात्री जी ने कांग्रेस की नीतियों और साधुओं पर अत्‍याचार को लेकर श्राप दिया था।

 

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