यूपी में महागठबंधन से कांग्रेस को क्यों बाहर रखना चाहती हैं सपा-बसपा

लखनऊ। आगामी लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश में सियासी मेल-मिलाप का दौर चल रहा है, लेकिन सीटों के लिहाज से सबसे महत्पूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के मिलन की संभावना के बीच कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखने की बात कही जा रही है. इसमें दिलचस्प बात यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में यूपी में गठबंधन की शुरुआत कांग्रेस ने की थी. उस समय सपा-कांग्रेस-आरएलडी एक साथ मिलकर चुनाव लड़ी थीं, जबकि बसपा अकेले दम पर मैदान में उतरी थी.

यूपी के गठबंधन में कांग्रेस के भविष्य को जांचने से पहले जरा सांख्यिकी देख लें. लोकसभा चुनाव 2014 में यूपी में बीजेपी को 42.63 फीसदी, सपा को 22:35 फीसदी, बसपा को 19.77 फीसदी और कांग्रेस को 7.53 फीसदी वोल मिले थे. वहीं विधानसभा 2017 में जब कांग्रेस और सपा साथ आ गए तो बीजेपी को 39.67 फीसदी, सपा को 21.82 फीसदी, कांग्रेस को 6.25 फीसदी और बसपा को 22.23 फीसदी वोट मिले.

यानी लोकसभा में अलग-अलग लड़ने और विधानसभा में एक साथ लड़ने के बावजूद सपा और कांग्रेस का वोट कुल मिलाकर बहुत अंतर नहीं आया. सपा-कांग्रेस साथ आने से दोनों दलों के कुल मिलाकर 1.5 फीसदी वोट कम हुए. यानी वोटरों को एक साथ जोड़े रखने में गठबंधन कामयाब रहा. लेकिन जो बात सांख्यिकी में नहीं दिख रही, वह बात दोनों पार्टियों के नेताओं के दिमाग में चल रही है.

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समाजवादी पार्टी के सूत्रों का मानना है कि सपा और बसपा का पारंपरिक वोटर बीजेपी के वोटर से अलग है. वहीं कांग्रेस के पास बचे हुए वोटर का एक हिस्सा बीजेपी के वोटर के मिजाज से मेल खाता है. उनका मानना है कि अगर कांग्रेस गठबंधन से बाहर रहकर चुनाव लड़ती है तो वह बीजेपी का सवर्ण वोट काट सकती है. वहीं अगर महागठबंधन बनता है तो कांग्रेस बीजेपी के सवर्ण वोट को नहीं काट पाएगी.

ऐसे में सपा चाहती है कि कांग्रेस गठबंधन से बाहर रहे. इसके एवज में सपा-बसपा गठबंधन कांग्रेस के साथ कुछ सीटों पर सहमति बना लेगा. गठबंधन 5 से 10 सीटों पर कमजोर प्रत्याशी उतार देगा और यहां बीजेपी का मुख्य मुकाबला कांग्रेस से होगा. सपा के एक अन्य नेता ने कहा, जो काम अब तक रायबरेली और अमेठी की सीटों पर होता था, वही काम अब 5 से 7 सीटों पर कर लिया जाएगा. गौरतलब है कि बेहतर संबंधों की खातिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी के सामने सपा अपना प्रत्याशी खड़ा नहीं करती रही है.

इस छुपे हुए गठबंधन के फैसले का समर्थन कांग्रेस की प्रदेश इकाई भी कर रही है. यूपी से मनमोहन सरकार में मंत्री रहे एक वरिष्ठ नेता ने जी न्यूज डिजिटल से कहा, अगर कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होती है, तो पार्टी को 10 से 15 सीट से ज्यादा नहीं मिल पाएंगी. ऐसी सूरत में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस यूपी से गायब ही हो जाएगी. बहुत संभव है कि पिछले 25 साल से कांग्रेस का झंडा उठा रहे बचे-खुचे लोग भी ऐसे में या तो घर बैठ जाएं या फिर किसी दूसरी पार्टी में चले जाएं.

इसीलिए कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता अपने-अपने इलाकों में लगातार जनसंपर्क में बने हुए हैं. फैजाबाद में कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री, कुशीनगर में कांग्रेस के पूर्व मंत्री आरपीएन सिंह, झांसी में पूर्व मंत्री प्रदीप जैन आदित्य और इसी तरह के कोई एक दर्जन नेता लगातार क्षेत्र में जनसंपर्क में जुटे हुए हैं. इन नेताओं की समझ है कि गठबंधन हो या न हो, उन्हें दोनों हालात के लिए जमीन पर तैयारी रखनी है.

हालांकि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इस विषय में ठीक इसी तरह नहीं सोच रहा है. सूत्रों की मानें तो कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होकर, वोटों का किसी भी तरह का बंटवारा रोकना चाहती है. शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि अगर 10 सीटें भी कांग्रेस को मिलीं और उसने 8 जीत लीं, तो यह घाटे को सौदा नहीं होगा. शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि अगर एक बार बीजेपी को सत्ता से बाहर कर लिया, तो स्थानीय नेताओं को समायोजित करने के बहुत से अवसर मिल जाएंगे. राहुल गांधी के करीबी दो नेताओं ने अलग-अलग बातचीत में जी न्यूज से कहा, हमारी पूरी कोशिश गठबंधन में चुनाव लड़ने की है. भले ही चुनाव लड़ने के अगले दिन से ही हम जमीन पर कांग्रेस को मजबूत करने की पहल शुरू कर देंगे. लेकिन 2019 में अकेले लड़ना घातक होगा.

पिछले लोकसभा चुनाव पर नजर डालें तो यूपी में रायबरेली और अमेठी सीटें कांग्रेस ने जीती थीं. वहीं, सहारनपुर, सुल्तानपुर, फर्रुखाबाद, जालौन, झांसी, हमीरपुर, फतेहपुर, फैजाबाद, गोंडा, महाराजगंज, कुशीनगर, बांसगांव और रॉबर्टसगंज सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों को इतने वोट मिल गए थे कि अगर कांग्रेस यहां अलग से चुनाव लड़ेगी तो सपा-बसपा गठबंधन का चुनावी गणित बिगाड़ सकती है.

कांग्रेस के कुछ नेताओं की सोच यह भी है कि 2014 और 2017 से ही सारा गणित न किया जाए. वे 2009 लोकसभा चुनाव की भी याद दिलाते हैं जब सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों को 20 से अधिक सीटें मिली थीं और बीजेपी दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाई थी.

 

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