राजनीति में बकवास का सीजन: शब्दों ने अर्थों को दी तिलांजलि और तर्कहीनता शिखर पर

अजय सिंह 

लखनऊ के अमीनाबाद में एक छोटे से सार्वजनिक मैदान पर आधी रात के करीब का वक्त है. जोश से भरी भीड़ वीपी सिंह के आने का इंतजार कर रही है. यह सन 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ बोफोर्स घोटाले का आरोप लगने के ठीक बाद का समय है. ईमानदारी और बदलाव के लिए बेचैन लोगों के बीच विद्रोही वीपी सिंह उम्मीद की एक किरण बनकर उभरे हैं.

वीपी सिंह एक धर्मयोद्धा की तरह मैदान में पहुंचते हैं. मंच संभालते हैं और यह कहते हुए अपना भाषण शुरू करते हैं कि वह बोफोर्स तोप सौदे में कमीशन खाने वाले सभी लोगों के नाम जानते हैं.

पंसारी की पर्ची जैसा एक कागज का टुकड़ा वह अपनी जेब से निकालते हैं और ऐलान करते हैं, ‘सारे नाम इसमें दर्ज हैं.’ भीड़ तालियां पीटती है और मांडा के पूर्व राजा शान से विदा हो जाते हैं. अंततः वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन जाते हैं, लेकिन वो नाम हमेशा के लिए उनकी जेब में ही रह गए. बोफोर्स के घूसखोर तीन दशकों के बाद भी बेनिशां हैं.

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                          विश्वनाथ प्रताप सिंह

मैंने इस लेख की शुरुआत की उस घटना की, जिसका एक संवाददाता के तौर पर मैं खुद गवाह था. मैं अपनी बात 1970 के दशक से भी शुरू कर सकता था, जब इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था. भारतीय राजनीति में नेहरू युग के बाद, लफ्फाजी और भरमाना राजनीति का एक जरूरी हिस्सा बन गया. तब से, राजनेताओं ने हवा-हवाई वादों को अपना मूल मंत्र बना लिया है. इस राजनीतिक संस्कृति ने, राजनीति के (महात्मा) गांधी-नेहरू युग के दौर की सच्चाई और नैतिकता से कोसों दूर असाधारण और जन्मजात वक्ताओं की सौगात दी है.

उदाहरण के तौर पर याद करें, जब पीलू मोदी एक पोस्टर के साथ, जिसमें वह खुद को सीआईए एजेंट (यह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के उस आरोप का सटीक जवाब था, जिसमें वह भारत की हर तरह की खराबियों के लिए ‘विदेशी हाथ’ को जिम्मेदार ठहराती थीं) बता रहे थे, संसद में चले आए थे. इस पर कितनी खलबली मची थी. वह भी याद करें जिस तरीके से जॉर्ज फर्नांडीस ने 1979 में अविश्वास प्रस्ताव पर मोरारजी देसाई सरकार का बचाव किया और थोड़ी देर बाद जब मोरारजी की सरकार गिर गई और उनको चुनौती देने वाले चौधरी चरण सिंह ने अपने लिए विश्वास वोट मांगा तो उन्होंने चरण सिंह के पक्ष में उसी तरह जोरदार तरीके से तर्क रखे.

ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब राजनेताओं ने अपने तात्कालित उद्देश्य के अनुरूप तथ्यों और तर्कों को अपने हिसाब से घुमाया है. यह भरोसा कि वे (राजनेता) ठोस पदार्थ के बजाय झाग से काम चला लेंगे और बच निकलेंगे, चौतरफा है और हमारे राजनीतिक इतिहास में दूर तक जाता है. लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ जुलाई 2018 में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस इस राजनीतिक संस्कृति में एक मूलभूत बदलाव को दर्शाती है. ऐसा लगता है कि सार्वजनिक बहस ने ‘बुलशिट’ (अनर्गल बात, बकवास) के सीजन की शुरुआत कर दी है, जिसके कम से कम 2019 के लोकसभा चुनाव तक चलने का डर है.

Rahul Gandhi Hugging PM Modi

इससे पहले कि पाठक ‘बुलशिट’ शब्द का बुरा मान लें, मुझे स्पष्ट करने दें कि इसका बोलचाल के अर्थों में इस्तेमाल नहीं किया गया है, जैसा कि मैंने अपने पहले के लेख में दावा किया है. मैं प्रतिष्ठित दार्शनिक हैरी फ्रैंकफर्ट के ‘ऑन बुलशिट’ (2005) नाम के लेख में अकादमिक रूप से परिभाषित शब्द का जिक्र कर रहा हूं. इस शब्द के बारे में उन्होंने कहा, ‘… बुलशिट का सार है कि यह झूठ नहीं है, बल्कि यह खोखला है.’ झूठ के विपरीत, जिसमें सच्चाई को छिपाने के लिए बड़ी चालाकी शामिल है, बुलशिट काफी हद तक ब्लफिंग (झांसा देना) है, जो समाज में एक हद तक स्वीकार्य है.

इस संदर्भ में कोई यह कह सकता है कि वीपी सिंह या जॉर्ज फर्नांडीस की लफ्फाजी कपटपूर्ण झूठ थी, जो विशेष राजनीतिक मकसद को हासिल करने के लिए गढ़ी गई थीं. इसके एकदम उलट, संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर राहुल गांधी का भाषण सच्चाई की फिक्र से दूर, झांसा देने के दायरे में फिट बैठता है. पूरी बहस में उन्होंने अपने अंदाज में झांसा दिया और यह तथ्यों की तुलना में डिस्ट्रीब्यूशन की नाटकीय शैली पर अधिक केंद्रित था.

राहुल ने ऐसा करने में, दूसरों को माफ करने की बात से लेकर झप्पी तक, फिल्मी लटके-झटके बड़े पैमाने पर बॉलीवुड के प्रसिद्ध मुन्ना भाई (लगे रहो मुन्ना भाई) से उधार लिए, जो अपनी जड़ बुद्धि से सत्य, अहिंसा और गांधीवाद की ऐसी ही समझ रखता था, और ऐसे ही अधकचरे तरीकों से जीने की ख्वाहिश रखता था. राहुल चाहते थे कि उन्हें प्यार को गले लगाने और नफरत को छोड़नेवाले शख्स के तौर पर देखा जाए. लेकिन अविश्वास प्रस्ताव की बहस में, उन्होंने सदन में प्रधानमंत्री को खुली चुनौती दी और कहा कि नरेंद्र मोदी व अमित शाह उन ‘प्रक्रियाओं से डरते’ हैं कि जो 2019 में जनादेश नहीं मिला तो होंगी.

वह एकदम मुन्ना भाई की ही तरह, जो सहूलियत के हिसाब से गांधीवादी रणनीति का इस्तेमाल करता है, कभी भी आस्तीन चढ़ाने से झिझकते नहीं हैं. राहुल गांधी की ‘अपने दुश्मन से प्यार करो’ की व्याख्या अगर पूरी तरह बेतुकी नहीं है, तो हास्यास्पद जरूर है. वह उच्च नैतिक बल दिखाने के अपने प्रयास में न तो चतुर दिखते हैं और ना ही मसखरे.

कोई और चीज समय की विडंबना को इससे अच्छे तरीके से नहीं दिखा सकती, जैसा कि उस राजनीतिक दल के अध्यक्ष के आचरण में दिखती है, जो कभी समग्र भारत के विचार का प्रतिनिधित्व करता था. जाहिर तौर सवाल उठता है कि ऐसे देश में ऐसी स्थिति क्यों आती है, जो शास्त्रार्थ की समृद्ध परंपरा पर गर्व करता है? भारत का सामाजिक और धार्मिक इतिहास सहमति बनाने के लिए सार्थक चर्चाओं के संचालन के उदाहरणों से भरा हुआ है.

इस परंपरा का उदाहरण उस यक्ष प्रश्न में मिलता है, जिसमें यक्ष, एक नैसर्गिक आत्मा, युधिष्ठिर जैसे राजा से जीवन के रहस्यों को सुलझाने के लिए जटिल प्रश्न पूछता है. जब मृत्यु के देवता यम, नचिकेता को तीन वरदान देते हैं, तो युवा लड़का प्रश्न करने और जीवन के बाद की पहेली के जवाब मांगना चुनता है. सत्य को हमेशा बहुआयामी माना जाता था और इसको तर्क व खुली बहस के माध्यम से खोजा जाना आवश्यक था- इसमें सबसे यादगार है याज्ञवल्क्य और गार्गी के बीच हुआ संवाद, जिसका वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद में किया गया है.

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                          अमर्त्य सेन

सार्वजनिक तर्क-वितर्क के उस संदर्भ के साथ, अमर्त्य सेन ने ‘द अार्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ (2005) नाम की अपने चर्चित निबंध में उम्मीद के साथ लिखते हैं, ‘क्या तर्क की समृद्ध परंपरा आज के उपमहाद्वीपीय जीवन में कुछ खास अंतर डालती है? मेरा दावा है कि ऐसा होता है, और कई तरीकों से. यह हमारे सामाजिक संसार और हमारी संस्कृति की प्रकृति को आकार देता है…यह भारतीय राजनीति को गहराई से प्रभावित करता है, और मेरा दावा है कि यह विशेष रूप से प्रासंगिक है, भारत में लोकतंत्र के विकास और धर्मनिरपेक्ष प्राथमिकताओं के उभरने के लिए.

लेकिन हाल के दशकों में, राजनीति ने मौलिक रूप से एक नई धारा अपना ली है, क्योंकि इसमें भावनात्मक मुद्दों का प्रभुत्व हो गया है. त्रिपुरा के एक युवा मुख्यमंत्री, बिप्लब देब में यह बहुत अच्छी तरह से परिलक्षित होता है, जो महाभारत (पौराणिक) युग में इंटरनेट और उपग्रह संचार के अस्तित्व के बारे में बेसिर-पैर का दावा करते हैं. मोदी सरकार में ऐसे कई मंत्री हैं जिनमें इतिहासकार, वैज्ञानिक, समाजशास्त्री और रसायनशास्त्री सभी एक में गड्डमड्ड हैं. उनके पास किसी भी किस्म की सबसे जटिल और चुनौतीपूर्ण समस्याओं के रेडीमेड जवाब हैं. वे वास्तविकता की तुलना में भावनाओं से अधिक संचालित होते हैं.

समाजशास्त्री दीपंकर गुप्ता ने ‘ऊपर से क्रांति’ के विचार को आगे बढ़ाया है, लेकिन भारत में राजनीतिक विमर्श ने निश्चित रूप से ऊपर से पोषित तर्कहीनता के दौर में प्रवेश कर लिया है. दृढ़ विचारों और बौद्धिकता के साथ राजनीति करना अब एक विफल उद्यम के रूप में देखा जाता है. भावनात्मकता के अलावा कोई भी मुद्दा नहीं है- चाहे सांप्रदायिक/जाति के मुद्दे हों या क्षेत्रीय मुद्दे- क्योंकि फायदे की फसल काटने के लिए यह आम जनता को, जनता की मूलभूत प्रवृत्तियों को अपील करता है.

तर्क के बजाय भावनाओं के लिए यह अपील, दुनिया भर में सबसे प्रमुख प्रवृत्ति- और बहस को बढ़ावा दे रही है जो, ‘लोकप्रियता’ से लेकर ‘लोकतंत्र की मौत’ तक तरह-तरह के लेबलों के साथ आती है. डोनाल्ड ट्रंप और रेचेप तैयप एर्दोगन जैसे बहुसंख्यकों के लोकप्रिय मजबूत नेताओं के उभार पर विचार करें. यहां यह बताने की जरूरत नहीं ब्रेक्सिट जनमत संग्रह में और उसके बाद क्या हुआ. व्यापक रूप से, इसे राजनीति का पोस्ट-ट्रुथ (ऐसे हालात व तरीके जिसमें तथ्यों के बजाय भावनाएं उत्तेजित करने पर ज्यादा जोर दिया जाता है.) लम्हा कहा जा सकता है. लेकिन केवल तथ्यों और सत्यता का प्रश्न भावनाओं के उस विषाक्त मिश्रण के पूरे खेल को उजागर नहीं करता है जो- क्रोध, भय, नफरत, पीड़ा से मिलकर तैयार होता है और जिसके परिणामस्वरूप बौद्धिकता विरोधी प्रवृत्ति का जन्म होता है. इस प्रवृत्ति को ईंधन देना कई कारकों का संगम बनता है: आर्थिक असुरक्षा, आतंकवाद और वैश्वीकरण की कीमत.

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                          जवाहरलाल नेहरू

नेहरू युग के बाद जब राजनीति पर लफ्फाजी और जनभावनाएं भड़काने वाली राजनीति का प्रभुत्व हो गया था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के क्रम में जन्मजात वक्ता द्वारा एक झूठ का आविष्कार करने के लिए अपनी चालाकी का सहारा लेने के कारण भाषण जीवंत होते थे. मोरारजी देसाई के बचाव में फर्नांडीस की वाक्पटुता और बाद में चरण सिंह का समर्थन करने में विरोधाभासी बातें होने के बावजूद, दोनों स्थितियों में उत्कृष्ट थी. लेकिन आज के संदर्भ में यह सही नहीं माना जा सकता है, जहां बुलशिट (बकवास) राजनीतिक वाद-विवाद की मुख्य सामग्री बन गई है, और सोशल मीडिया इन खोखली बहसों की तेजी से लपक लेने वाला प्लेटफॉर्म बन गया है. 2019 के आम चुनावों के करीब होने के साथ ही ऐसा लगता है कि बुलशिट का सीजन लंबा चलेगा.

 

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