राजाराम जाट वो हिन्दू शेर, जिसने ‘अकबर’ की कब्र खोदकर अस्थियाँ जला डाली थी

भारत में औरंगज़ेब का शासन चल रहा था और हिन्दुओं का जीना मुश्किल हो गया था। औरंगज़ेब, जिसने अपने पिता को ही कैद कर लिया था, जिसने तख्त के लिए अपने भाइयॊं को ही मार दिया था वह भारत के हिन्दुओं को कैसे शांती से जीने दे सकता था? हिन्दुओं पर औरंगज़ेब के अत्याचार दिन ब दिन बढ़ते ही जा रहे थे। औरंगज़ेब से लोहा लेने एक वीर बहादुर जाट तय्यार हो गया जिसका नाम था राजाराम। राजाराम जाट, भज्जासिंह का पुत्र था और सिनसिनवार जाटों का सरदार था। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, वह एक साहसी सैनिक और विलक्षण राजनीतिज्ञ था। उसने बड़ी चतुराई से जाटों के दो प्रमुख क़बीलों-सिनसिनवारों और सोघरियों (सोघरवालों) को आपस में मिलाया। सोघर गाँव सिनसिनी के दक्षिण-पश्चिम में था। रामचहर सोघरिया क़बीले का मुखिया था। राजाराम और रामचहर सोघरिया शीघ्र ही मुघलों के अत्याचारों का विरॊध करने लगे।

सिनसिनी से उत्तर की ओर, आऊ नामक एक समृद्ध गाँव था। यहाँ मुघलों का सैन्य दल नियुक्त था। लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए एक चौकी बनाई गयी थी। इस चौकी अधिकारी का नाम था लालबेग, जो एक नीच पशु प्रव्रुत्ती का व्यक्ति था। एक दिन एक अहीर अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका। लालबेग का एक कर्मचारी उधर से गुज़र रहा था, वह अहीर युवती की अतुलनीय सुन्दरता को देखता है और तुरन्त लालबेग को ख़बर देता है। लालबेग अपने सिपाही भेजकर अहीर पती और पत्नी को जबरन अपने चौकी पर लाने को कहता है। उसके सिपाही पती को तो छोड़ देतें हैं लेकिन पत्नी को लालबेग के निवास में भेज देते हैं।

यह खबर आग की तरह फैल जाती है और राजाराम के कानों में पड़ती  है। राजाराम ठान लेता है की वह मुघलों को सबक सिखा के ही रहेगा। उसने अपने सैन्य को युद्ध के लिए तय्यार किया और लालबेग को मारने की यॊजना बनाई। यॊजना के अंतर्गत वह अपने सिपाहियों के साथ गोवर्धन में वार्षिक मेले में जानेवाली घास की बैल गाड़ियों में छुप जाता है। लालबेग को अंदाज़ा भी नहीं था की राजाराम और उसके सिपाही घास के अंदर छुपे हुए हैं और वह गाड़ियों को अंदर जाने की अनुमति देता है। चौकी को पार करते ही राजारम और सिपाहियों ने गाड़ियों में आग लगा दिया। उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ और उसमें लालबेग मारा गया।

इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपने क़बीले को सुव्यवस्थित सेना बनाना प्रारम्भ कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों से युक्त उसकी सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को हमेशा तय्यार रहती थी। राजाराम ने जाट-प्रदेश के सुरक्षित जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवादी। इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया जिन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर था। राजाराम की चर्चे चारों दिशा में होने लगी। उसने मुघल शासन से विद्रोह कर उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। उसने धौलपुर से आगरा तक की यात्रा के लिए प्रति व्यक्ति से 200 रुपये लेना शुरू किया। इस एकत्रित धन को राजाराम अपने सैन्य को प्रशिक्षित करने में लगाता, जो मुघलों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारती थी। जिस प्रकार मुघलों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा था उसी प्रकार राजाराम उनके मकबरों और महलों को तोड़ते थे। राजाराम के भय से मुघलों ने बाहर निकलना बन्द कर दिया था।

राजाराम की वीरता की बात औरंगज़ेब के कानों तक भी पहुंची। उसने तुरन्त कार्रवाई की और जाट- विद्रोह से निपटने के लिए अपने चाचा, ज़फ़रजंग को भेजा। राजाराम ने उसको भी धूल चटाई। उसके बाद औरंगजेब ने युद्ध के लिए अपने बेटे शाहज़ादा आज़म को भेजा। लेकिन उसे वापस बुलाया और आज़म के पुत्र बीदरबख़्त को भेजा। बीदरबख़्त बालक था इसलिए ज़फ़रजंग को प्रधान सलाहकार बनाया। बार-बार के बदलावों से शाही फ़ौज में षड्यन्त्र होने लगे। राजाराम ने मौके का फ़ायदा उठाया, बीदरबख़्त के आगरा आने से पहले ही राजाराम ने मुग़लों पर हमला कर दिया।

सन् 1688, मार्च में राजाराम ने सिकंदरा में मुघलों पर आक्रमण किया और 400 मुगल सैनिकों को काट दिया। कहते हैं की राजाराम ने अकबर और जहांगीर के कब्र को तोड़ कर उनकी अस्थियों को बाहर निकाला और जला कर राख कर दिया।

“ढाई मसती बसती करी,खोद कब्र करी खड्ड,

अकबर अरु जहांगीर के गाढ़े कढ़ी हड्ड”।

मनूची का कथन है कि जाटों ने काँसे के उन विशाल फाटकों को तोड़ा। उन्होंने बहुमूल्य रत्नों और सोने-चाँदी के पत्थरों को उखाड़ लिया और जो कुछ वे ले जा नहीं सकते थे, उसे उन्होंने नष्ट कर दिया था। राजाराम के  साहस की  चर्चा होती थी और मुघल शासक उनसे डरते थे। जिस युद्ध के बीज औरंगज़ेब के अत्याचारों ने बोए थे उसे राजाराम ने नष्ट कर दिया। औरंगज़ेब के अत्याचार, हिन्दू मन्दिरों के विनाश और मन्दिरों की जगह पर मस्जिदों का निर्माण करने से जनता के मन में बदले की भावना पनप चुकी थी। इसी कारण से लोग मुघल शासन के विरुद्द विद्रोह करने लगे थे।

राजाराम एक शूर वीर नायक की तरह उभर आया और मुघलॊं को उसने धूल चटाई। 4 जुलाई 1688 को मुघलों से युद्ध करते समय धोखे से उन पर मुघल सैनिक ने पीछे से वार किया और वो शहीद हो गए। राजाराम का सिर काटकर औरंगज़ेब के दरबार मे पेश किया गया और रामचहर सोघरिया को जिंदा पकड़कर आगरा ले जाया गया जहां उनका भी सिर कलम कर दिया गया। हमारी किताबें हमें इन शूर-वीर नायकों के बारे में नहीं बताती और ना ही कोई इन पर सिनेमा बनाता है। ऐसा करने से भारत की सेक्यूलरिस्म खतरे में आ जाती  है। हिन्दु राजाओं को दहशतगर्द बताकर मुघल मतांदों को महानायक बताना सेक्युलरिस्म है। भारत के  सच्चे इतिहास को छुपाकर झूठ फैलाकर वर्षों से लोगों को मूर्ख बनाया गया है। सत्य को चाहे लाख छुपाए लेकिन सत्य नहीं छुपता और एक न एक दिन उजागर हॊता ही है।

 

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