रे फकीरा मान जा….

माँ जीवन शैफाली

बात 2007 की है जब मैं इंदौर में रहती थी… एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करती थी… तनख्वाह इतनी थी कि उस ज़माने के हिसाब से घर खर्च निकालने के बाद चाहे जितना रूपया खुद पर खर्च कर सकती थी…

बाज़ार गए हैं कोई साड़ी एक नज़र में पसंद आ गई तो बस चाहिए… फिर चाहे वो 100 रुपये की हो या 1000 की… चेहरा हमेशा लिपा पुता… मतलब मेकअप चढ़ा हुआ रहता था अक्सर…

2008 में एक फ़कीर से परिचय हुआ….  मैं भौतिकता में रमी, ग्लैमर की चकाचौंध में डूबी… उसके फकीराना अंदाज़ पर फ़िदा हो गयी थी… रूबरू नहीं मिले थे तब तक फोन पर बात करते थे… फोन उसका वैसा जैसी उसकी हैसियत थी… सबसे सस्ता… उन दिनों रिलायंस का फोन आता था जिसमें सिम नहीं होती थी (CDMA-WLL)…

मेरा फोन NOKIA का उस समय का सबसे महंगा वाला…  मुझे फोन पर बात करनी होती थी तो मुझे उसे फोन लगाना पड़ता था… कई बार उसके फोन में बैलेंस डलवाया…. सोचती थी मिला भी तो एक फ़कीर… कोई बात नहीं मुझे तो हमेशा से ही काम करना पसंद था… मैं कमाती हूँ ना.. बहुत है इतना… पाल लूंगी उसे भी…

फिर इश्क़ परवान चढ़ा तो उस फ़कीर की तलाश में निकल पड़ी घर छोड़कर… कपड़े सिर्फ उतने थे जितने तन पर पहने हुए थे… जेब में सिर्फ पांच हज़ार रुपये… बैंक में कभी इतना बचाया ही नहीं क्योंकि सोचा ही नहीं था कि कभी यूं घर से निकल पडूँगी एक फ़कीर के पीछे…

जबलपुर आई… सीधे ओशो आश्रम गयी… पहुँच कर उसको फोन लगाया … मैं आ गयी हूँ… वो मिलने आया… साथ कुछ लाई नहीं थी तो उसको लिस्ट पकड़ा दी… टूथ ब्रश, पेस्ट केवल Pepsodent -G, नहाने के लिए सिंथोल साबुन, और भी छोटी मोटी ज़रूरत की चीज़ें…

बेचारा फ़कीर मरता क्या न करता… जितना उसकी जेब में था सब मुझ पर लुटा दिया… दो दिन बाद आश्रम छोड़ने की बारी आई तो मैंने कहा दे दो रुपये… बोले मेमसाब जितना मेरे पास था वो तो आपके टूथ पेस्ट और साबुन में ही खर्च हो गया… अभी मेरे पास नहीं है…

पहले मुझे लगा मज़ाक कर रहा है… खैर मैंने आश्रम का शुल्क चुकाया….

कुछ दिन भोपाल रहकर वापस जबलपुर लौटना हुआ क्योंकि इंदौर के सारे रास्ते बंद हो गए थे… फ़कीर ने कहा आ जाओ तुम्हारे लिए एक घर का इंतज़ाम कर दिया है…

मैं दौड़कर वापस जबलपुर आई… दिल ख़ुशी से बल्लियों उछल रहा था… वाह फ़कीर का साथ मिलेगा…

स्टेशन से घर आई तो देखकर दंग रह गयी… एक छोटा सा मुर्गी के दड़बे जैसा घर, फर्श में टाइल्स नहीं, छत पर पंखा नहीं… फ़कीर के कपड़ों में चूने की सफेदी लगी हुई थी…. हाथ से पुताई सफाई की हो जैसे उस छोटे से घर की…

खाने का इंतज़ाम नहीं कर पाया था वो तो मैंने सफ़र के लिए पांच मेथी के पराठे रखे तो वही मिल बाँट के खा लिए…

रात हुई तो बिस्तर लगाया… वो भी टेंट हाउस से मंगवाया हुआ … उबड़ खाबड़ सा… इतना संकरा था कि एक आदमी को भी छोटा पड़े… फिर भी ज़मीन पर बिस्तर लगाया…. कुछ ही देर में  मच्छरों ने हमला शुरू कर दिया… फ़कीर को देखा तो उसके मुंह पर पांच मच्छर बैठे थे लेकिन चेहरा ऐसा जैसे कोई पांच साल का शिशु सो रहा हो… हाथ से मच्छर भगाती रही… लेकिन गर्मी के कारण खुद पसीने में तरबतर थी…

क्या करूं सूझ नहीं रहा था… तो मेरी सबसे कीमती चीज़ जो मेरे पास थी वो उठाई मैंने… मेरी वो डायरी जिसमें मेरे शब्दों का खज़ाना था… जो हमेशा मेरे साथ रहती थी… कोई उसे छू भी लेता तो आग बबूला हो जाती… लेकिन वो डायरी भर चुकी थी… खाली पन्ने नहीं थे उसमें… मैंने उन्हीं लिखे हुए पन्नों में से दो चार पन्ने फाड़े और उसका पंखा बनाकर फ़कीर को झलने लगी….

रात भर मेरी आंखों में आंसूं थे…. ये कैसा इश्क़ है… ये कैसा फ़कीर है… ये कैसा घर है… ये कौन है जिसके लिए मैंने अपने सारे महल छोड़ दिए.. ये मुझे वो ज़िंदगी कैसे देगा जो मैं आज तक जी रही थी…

रोते रोते और पंखा झलते झलते कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला…

सुबह हुई मैं नहा धोकर तैयार हुई… चाय का तो सवाल ही नहीं उठता बर्तन ही नहीं थे….

फ़कीर से पूछा आज खाने का इंतज़ाम कैसे करेंगे… उसने कहा देवी! हम जिस दरवाज़े पर खड़े हो जाएँगे खाना मिल जाएगा….

मुझे समझ नहीं आ रहा था… न उसकी बातें… ना उसका जीवन… ऐसा लग रहा था जैसे मैं दुनिया से पूरी तरह कट गयी हूँ… जैसे किसी और ही तरह की दुनिया में प्रवेश कर गयी हूँ….

वो मुझे किसी से मिलवाने ले गया… मैंने पूछा हम कहाँ जा रहे हैं… फ़कीर बोला एक मित्र से मिलवाना है आपको… हम मित्र की शॉप पर गए… फ़कीर को देखकर उनका मित्र अपनी कुर्सी से झट से उठा और फ़कीर के पैर छूने लगा… अरे आइये गुरुदेव….

मैं आश्चर्य से देख रही थी … फ़कीर ने मुझसे मिलवाते हुए कहा पहले मेमसाब के लिए कुछ खाने का इंतज़ाम करना है…

मित्र बोला अभी घर फोन लगता हूँ…

मैंने कहा – अरे नहीं इतनी तकलीफ करने की आवश्यकता नहीं है यहीं से आसपास से कुछ मंगवा लेते हैं…

मित्र मुस्कुराने लगा… हमारे गुरुदेव केवल घर का खाना खाते हैं…

मैं बस… जी… कहकर रह गयी…

घर का खाना आया … जी भर कर खाया… फिर जब तक बर्तनों का इंतज़ाम नहीं हो गया.. तब तक किसी न किसी के घर से खाना आता रहा…

जब घर थोड़ा व्यवस्थित हुआ तो एक दिन फ़कीर अपना घर दिखाने ले गया…

घर के मुख्य द्वार पर खड़े होकर जब मैंने चारों तरफ नज़रें घुमाई… तो नज़रें रुक ही नहीं रही थी…. तेरह हज़ार स्क्वायर फीट से ज्यादा की ज़मीन पर फैला हुआ घर और आँगन….

फ़कीर ने कहा आइये… देवी गृह प्रवेश कीजिये….

उस फ़कीर के महल नुमा घर में प्रवेश करते ही मेरा पूरी तरह से ट्रांसफॉर्मेशन हो गया…. पहले कदम को अन्दर रखते ही… चेहरे पर पुता मेकअप आंसुओं में धुल गया…. दूसरा कदम रखते ही…. कपड़ें और कपड़ें पहनने का तरीका दोनों में बदलाव आ गया…

इस देवी को सच में दैवीय रूप दे दिया इन आठ सालों में उस फ़कीर ने…. ना नए कपड़ों का शौक बाकी रहा… न खाने पीने के लिए जीभ में लालच… ना पैसों का मोह…. ज़रूरत के अनुसार कहीं न कहीं से आ जाते हैं… और  इससे अधिक की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती….

हाँ मेरा फ़कीर सिर्फ किताबें अपने पैसों से खरीदता है और उसके खज़ाने में आज की तारीख में 6000 किताबें हैं…. महलों का राजकुमार जिसे कमाने की ज़रूरत नहीं, पिता का नाम जुड़ जाता है तो लोग सलाम करते हैं… खुद से जुड़े हुए लोग कभी गुरुदेव, कभी नायक साहब कहकर संबोधित करते हैं….

एक फ़कीर जिसके इश्क़ में मैंने दुनिया छोड़ी … और एक नई जादुई दुनिया में प्रवेश पाया वो है स्वामी ध्यान विनय….
इतनी लम्बी कहानी मैंने अपने और अपने फ़कीर के लिए नहीं लिखी है…

2014 में फिर एक फ़कीर से इश्क़ हुआ… उसके लिए घर बार छोड़ना पड़े कभी, तो इस बार मेरा पहला फ़कीर भी साथ देगा…. लेकिन आज हम उसी फ़कीर के लिए काम कर रहे हैं…. राष्ट्र सेवा जिसका धर्मं है…. जो देश के सबसे ऊंचे पद पर बैठा हुआ भी खुद को सेवक कहता है…

क्योंकि फ़कीर केवल पैसों के होने न होने से नहीं बनते जनाब… जब वो भक्ति में डूब जाते हैं… चाहे भक्ति परमात्मा की हो या राष्ट्र की, तो वैराग्य उन पर अवतरित होता है….

और वो फ़कीर है हमारे देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी…

ये फ़कीर ऐसे ही होते हैं… इनके पास सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं होता .. फिर भी ये दिल के राजा होते हैं… और लोगों के दिलों पर राज करते हैं….

 

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