लाशों पर सियासत न हो

के विक्रम राव

बीस भारतीय सैनिक, जिनकी लाशें सीमा पर चीन ने लौटाई हैं, उन्हें पीटकर, कूटकर मारा गया, शस्त्रों से नहीं| शव यही दर्शाते हैं| अर्थात हलाल की पद्धति में धीमे-धीमे हत्या की गई| तड़पा कर, यातना दे-दे कर| घूंसे, मुक्के, लात, लाठी, बेटन ही शायद प्रयुक्त हुए हों| विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन के सैनिकों में मानवता नहीं थी| याद कीजिये कि वुहान में चमगादड़ों के भक्षण से ही कोरोना कीटाणु उपजा है| अतः इस वहशियाना सैनिक कृति का भी प्रमाण क्या विपक्ष मांगेगा| जैसा बालाकोट बमबारी के समय माँगा था? बीजिंग के ओलंपिक (अगस्त 2008) में चीन के खिलाडी बड़े हंसमुख थे| मगर उसकी लाल सेना इतनी बर्बर क्यों?

मान भी लें कि खिलाड़ीवाली उदारमना की भावना राजनीति में सरजाना कठिन है| क्योंकि राजनेता का दिल तंग होता है, जिसमें फैलाव जरूरी है। जिक्र जब हृदय के आकार का है तो स्काटलैण्ड के मानवशास्त्री सर आर्थर कीथ का निष्कर्ष ठीक लगता है कि विश्व इतिहास की धारा की दिशा आसमानी घटनाएं नहीं, बल्कि लोगों के दिल में उपजी बातें तय करती हैं। इसी सिलसिले में खेल जगत तथा राजनीतिक क्षेत्र से कुछ उदाहरणों पर गौर करें तो एक खलिश-सी होती है कि उन सब सियासतदां में खेल वाला मिज़ाज क्यों नहीं उभरता है? शायद अपने साथियों के शवों पर चढ़कर सफलता हासिल करने चले ये लोग निर्मम हो जाते हैं|
एक उदहारण है खेल जगत से। उस दिन (7 फरवरी 1999) फिरोजशाह कोटला मैदान (दिल्ली) में पाकिस्तान से भारत का क्रिकेट मैच हुआ| इतिहास सिर्फ यह बताएगा कि अनिल राधाकृष्ण कुम्बले नामक लेग स्पिनर ने दसों विकेट लेकर एक विश्व रिकार्ड रचा। मगर इतिहास में शायद दर्ज नहीं हुआ होगा कि जवागल श्रीनाथ, सदगोपन रमेश और कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन ने कितना उत्सर्ग किया, अपने हित का मोह छोड़ा और साथी कुम्बले को इतिहास पुरुष बनाया। जब कुम्बले ने नौ विकेट ले लिए थे तो मत्सर भावना इन सबको पीड़ित कर सकती थी, डाह जला सकती थी। अतः भगवद्गीता में सारथी की भावना ‘न तु अहं कामये राज्यं’ का निखालिस और उम्दा प्रकरण यदि कहीं दिखा तो अजहरुद्दीन और उसके साथियों में। श्रीनाथ अपना बारहवां ओवर, 2436वीं गेंद, फेंक रहे थे। यह उनके जीवन की कठिनतम घड़ी रही होगी। वह अपना 341वां विकेट सुगमता से ले सकते थे। बल्लेबाज भी कमजोर वकार युनुस था | वह गेंद तो तेज फेंक सकता था मगर गेंद ठीक से खुद खेल नहीं सकता था। सधे हुए गेंदबाज श्रीनाथ ने दो गेंद ऐसी फेंकी ताकि युनुस के आस-पास तक उसका टिप्पा भी न पड़े। वेस्टइंडीज से आए अम्पायर स्टीव बकनौर ने दोनों को वाइड बाल करार दिया। कप्तान अज़हर ने श्रीनाथ के कान में फुसफुसा दिया था कि विकेट मत लेना ताकि अनिल कुम्बले दस विकेट लेने का कीर्तिमान रच सके। वकार युनुस ने एक कैच भी दिया, मगर सद्गोपन रमेश ने उसे लेने की कोशिश तक नहीं की। लक्ष्य था कि कुम्बले की घातक गेंद से वकार युनुस को आउट किया जा सके। कोटला मैदान में कुम्बले की मदद करना सभी दसों खिलाड़ी अपना धर्म मान रहे थे। फिर आया कुम्बले का सत्ताईसवां ओवर। अब तक वह अपनी लैंथ और लाइन काफी सुधार चुका था। शार्टलैंथ गेंद से बल्लेबाज़ को भांपने और खेलने के क्षण कम मिलते हैं। अपने ऊंचे कद का लाभ लेते हुए, हाड़तोड़ मेहनत करते हुए अनिल ने अपनी कलाई का करिश्मा दिखाया। कालजयी प्रदर्शन किया। ऐतिहासिक क्षण आया जब कप्तान वसीम अकरम ने कुम्बले की गेंद को हिट किया| मगर वह शार्ट लेग पर लक्ष्मण की हथेली में समा गई। उसका यह 234वां, कोटला मैदान में इकत्तीसवां विकेट था। कुम्बले ने इतिहास रच डाला| साथियों की बदौलत|
अतः अब इन राजनेताओं को अहसास तो हो गया होगा कि राजनीति की तरह क्रिकेट में कट्टरवाद कभी भी नहीं होता है। इन राजनेताओं की सोच और समझ में अब परिष्कार होना चाहिए कि कभी-कभी हार में भी जीत होती है। कहानीकार सुदर्शन ने बाबा भारती के चुराए घोड़े को डाकू द्वारा वापस लौटाकर यही बताया था। कोलकाता के इडेन गार्डन में गलत ढंग से आउट दिए जाने पर भी उसे स्वीकार कर सचिन ने उग्र भीड़ को शांत करके यही दिखा दिया कि खेल में उत्कृष्ट भावना होती है। प्रतिस्पर्धा के मायने प्रतिरोध नहीं होता। हालांकि पाकिस्तानी कप्तान वसीम अकरम से दक्षिण अफ्रीकाई कप्तान हांस क्रोन्ये ज्यादा भावनामय था, जब उसने वेस्टइंडीज के बल्लेबाज को रन आउट होने के बावजूद खेलने दिया, क्योंकि उसे क्रीज तक दौड़ने के बीच में ही एक दक्षिण अफ्रीकी फील्डर ने टक्कर मार दी थी। यही भावना आस्ट्रेलियाई कप्तान मार्क टेलर ने पेशावर मैच में दिखाई, जब खुद उसने 334 रन बना कर पारी घोषित कर पाकिस्तान को अचंभित कर डाला। टेलर ने बाद में बताया कि वह नहीं चाहता था कि क्रिकेट के पितामह, आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी डॉन ब्रेडमैन का 334 रन वाला कीर्तिमान टूटे। यह खेल की भावना का उदाहरण ही था कि पेरिस में जब फ्रांस की टीम ने ब्राजील के खिलाफ गोल मारकर विश्व फुटबाल स्वर्ण कप जीता तो दर्शक दीर्घा में बैठे प्रधानमंत्री ज्यां शिराक ने उछलकर अपनी पत्नी को बाहों में समेट कर, आगोश में लेकर चूम लिया, भले ही दुनिया के करोड़ों लोग तब टी.वी. देख रहे थे।

पाकिस्तान के पराजित कप्तान वसीम अकरम ने भी कोटला में अपना विकेट लेने वाले अनिल कुम्बले को गले लगा लिया था। कुछ ऐसी ही खेल भावना वाघा सीमा पर भी दिखी (19 फ़रवरी 1999) थी, जब बस यात्री अटल बिहारी वाजपेयी सीमा पर मेजबान मियां मोहम्मद नवाज़ शरीफ को गले लगाते हैं | मगर बाद में फौजी परवेज मुशर्रफ ने कारगिल की खाई में मैत्री बस गिरा दी। नवाज़ शरीफ की सरकार भी गिरा दी गयी। आज मुशर्रफ सरीखे लोग ज्यादा पनप रहे हैं। भारत में भी|
एक दिल दुखानेवाली बाद| इस राष्ट्रीय त्रासदी की बेला पर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की यह सोच कि सैनिकों की हत्या सत्तासीन पार्टी पर सियासी आपदा है, तो यह जनद्रोह होगा| अक्टूबर 1962 में हजारों वर्ग मील भूभाग गंवाने और सैकड़ों जवानों की लाश गिराने पर भी आँख में पानी भरकर समूचा भारत वर्ष जवाहरलाल नेहरू के साथ खड़ा हुआ था|
सारांश यही कि यदि राजनेता, पत्रकार और साहित्यकार, बल्कि हर भारतीय भी क्रिकेटर जैसा उदारमना हो जाए ! तो ?

 

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