लेनिन की जगह चाणक्य, बिदुर, शुक्राचार्य, आर्यभट्ट, रामानुजाचार्य की प्रतिमा लगाइए और गर्व कीजिए

YOGESH KISLAY @yogesh.kislay

मुस्लिम देशों के शासकों में अगर मै सबसे अधिक पसंद करता हूं तो वह है इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन। सद्दाम हुसैन को अपने धर्म से अधिक अपने देश से प्यार था। वह चाहता था कि उसका देश पूर्णतः सुरक्षित , शक्तिशाली और संपन्न हो। हां वह व्यक्तिवादी भी था इसलिए बगदाद में उसने अपनी बड़ी प्रतिमा लगा रखी थी। अमेरिकी हमले के बाद उसकी प्रतिमा तोड़ी जा रही थी और अमेरिका सहित इराक़ से खौफ खाने वाले लोग तब तालियां बजा रहे थे। आखिर इराक़ ने दूसरे देशों का क्या बिगाड़ा था। जिससे सद्दाम की दुश्मनी थी, उससे थी । उसका दुश्मन उससे निबट लेता। आप तालियां क्यों बजा रहे थे?

दरअसल दुनिया में ऐसे लोग हैं जिन्हें एक कुंठा है। वह खुद को बड़ी हस्तियों से जोड़कर अपना ईगो को संतुष्ट करता है। सद्दाम को परास्त करने वाले बड़ी हस्ती थे और उनके कर्मों कुकर्मों से खुद को जोड़ने वाले अपनी कुंठा ही दिखा रहे थे। सद्दाम अपने देश की अस्मिता का विषय था। बाहर के देशों को उससे ज्यादा कुछ लेना देना नहीं चाहिए था। और उन देशों को तो और भी नहीं जो उनके पड़ोसी नहीं थे। ऐसी ही राष्ट्रीय अस्मिता को लेकर देश में पटेल की प्रतिमा स्थापित करने का अभियान चल रहा है। कुछ विघ्नसंतोषी इसे बेकार की कवायद कहने लगे हैं। ऐसी ही लोग जेएनयू में दर्शनार्थ तोप रखने का भी विरोध करते रहे हैं। उन्हें ऐसे प्रतीकात्मक स्थापत्य से अधिक चिंता इस बात पर है कि इसमें उनके वैचारिक अध्येता की पूछ नहीं। अपने देश की अस्मिता से अधिक चिंता एक विचारधारा का अनुसरण करना है जिसका देश के इतिहास ,दर्शन और संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं है।

फेसबुक पर कुछ विचारवान प्रभुओ ने त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा गिराने पर रुदन शुरू किया है उन्हीं के लिए यह पोस्ट है। लेनिन की प्रतिमा का इस देश से क्या लेना देना। बामियान में बुद्ध की प्रतिमा तोड़ी गई थी तो किस देश ने अफगानिस्तान पर सिर्फ इसलिए हमला किया कि विश्व के चौथे सबसे बड़े धर्म के स्थपनाकर्ता की प्रतिमा टूटी है। और बुद्ध की प्रतिमा तोड़ने का तो नैतिक रूप से विरोध होना चाहिए क्योंकि यह धार्मिक विषय था। लेकिन लेनिन तो धार्मिक नहीं थे।भारतीय सामाजिक ,आर्थिक और भौगोलिक संदर्भ में लेनिन कहीं फिट नहीं बैठते। भारत के संदर्भ में लेनिन का क्या योगदान रहा? उनके विचारधारा वाले तो ऐसे गुलाम हैं जो देश से ही आजादी चाहते हैं। ऐसी आजादी चाहने वालो को उसी विचारधारा की सरकार ने चीन के ही तेन आन मन चौक में सरेआम भून दिया था। मानवाधिकार गया तेल लेने। मानवाधिकार का तेल तो भारत में निकाला जाता है। कभी अफजल के नाम पर कभी याकूब मेमन के नाम पर, कभी खालिद के नाम पर कभी कन्हैया के नाम पर ।

मानवाधिकार वाले ही लेनिन की प्रतिमा तोड़े जाने पर छाती पीट रहे हैं। इन्हे अपने देश की अस्मिता से अधिक किसी दूसरे देश के राजनैतिक नियंता पसंद है। चीन के महान लोगों की प्रतिमा लगानी हो तो लगाए ना लाओत्से ,कन्फ्युशियस , जुआंग झो ,सुन त्सू की प्रतिमा जो देश धर्म से ऊपर की चीज हैं। रूस के ही महात्माओं की प्रतिमा लगानी है तो टालस्टॉय , दोस्तोवस्की , पॉवेल फ्लोरेंस्की जैसे महानुभाव है । देश में आप सद्दाम हुसैन की प्रतिमा नहीं लगाएंगे। लेकिन इसी देश के पूर्वज जराथरुस्ट की प्रतिमा लगा सकते हैं क्योंकि वह किसी देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते। कबीर ,रहीम की प्रतिमा किसी भी देश में लग सकती है लेकिन नेहरू की प्रतिमा कोई दूसरा देश क्यों लगाएगा। सद्दाम मुझे पसंद है लेकिन में सद्दाम की प्रतिमा क्यों लगाऊं। हिटलर और नेपोलियन की प्रतिमा के लिए आप उछलकूद क्यों नहीं करते ? इसलिए कि वे अपने देश और अपने लिए जिए – किए । जो लोग लेनिन की प्रतिमा ढहाए जाने पर जार जार रो रहे हैं उन लोगो को त्रिपुरा में वामदलों की हार पर आम लोगों की प्रतिक्रिया देखनी चाहिए। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि अब वे आजाद महसूस कर रहे हैं। लेनिन के कम्युनिस्टों के राज में गुलामी क्या होती है यह किसी से छिपी नहीं है। इसलिए लेनिन को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखना बेवकूफी है। लेनिन ,स्टालिन ,मार्क्स ,माओ जहां के है वहीं रहने दीजिए भाईयो। लेनिन की जगह चाणक्य ,बिदुर ,शुक्राचार्य ,आर्यभट्ट , रामानुजाचार्य की प्रतिमा लगाइए और गर्व कीजिए कि आपके पूर्वज इतने महान थे। और ऐसा करेंगे तब भी आप उतने ही विचारवान माने जाएंगे।

(वरिष्ठ पत्रकार योगेश किसलय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
 

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