विपक्ष की उस बरात में शामिल हुए केजरीवाल जिसके दूल्हे का ही पता नहीं

नई दिल्ली। तकरीबन तीन साल पहले दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर इतिहास रचने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल देश में नई राजनीति के हीरो बन गए थे, लेकिन अब वह अपनी चमक खोते जा रहे हैं। पिछले दो साल के दौरान कई बार ऐसे मौके आए जब वे पिछलग्गू नेताओं की भूमिका में नजर आए, यह सिलसिला अब भी जारी है। ताजा मामला कर्नाटक का है, जहां आम आदमी पार्टी (AAP) के प्रमुख अरविंद केजरीवाल बुधवार शाम कांग्रेस-जेडी (एस) सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए।

बता दें कि पिछले तकरीबन चार साल से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सत्तासीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के खिलाफ कर्नाटक में शपथ ग्रहण के दौरान विपक्ष की एकता की झलक दिखने वाली है। इसमें दर्जनभर दलों के दिग्गज नेता शामिल होंगे, लेकिन समूचा विपक्ष तमाम अंतर्विरोधों का शिकार नजर आता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस विपक्षी एकता का कोई अगुवा ही अब तक नहीं बना है और यही सबसे बड़ी दिक्कत है। दरअसल, कांग्रेस-जेडी (एस) सरकार के बहाने विपक्ष की जिस बरात में अरविंद केजरीवाल शामिल हैं, उसमें अब तक नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई मुकाबिल ही नहीं है। कुल मिलाकार विपक्ष ऐसी बरात बन चुका  है, जिसका कोई ‘दूल्हा’ नहीं है।

क्या राहुल गांधी को पीएम पद का उम्मीदवार मानेंगे कई दिग्गज नेता
विपक्षी एकता में दरार तो है, लेकिन इसे छिपाया जा रहा है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि विपक्ष तमाम अंतर्विरोधों से घिरा हुआ है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि विपक्षी गठबंधन में राहुल गांधी पीएम पद के उम्मीदवार होंगे या फिर किसी अन्य को कांग्रेस समर्थन करेगी? इस पर आधिकारिक रूप से अब तक पार्टी ने पत्ते नहीं खोले हैं। जानकार मानते हैं कि राहुल गांधी के नाम पर राष्ट्रीय जनता दल (RJD) को छोड़कर शायद ही कोई दल राजी हो। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का जहां कांग्रेस से छत्तीस का आंकड़ा है, वहीं मायावती और अखिलेश यादव भी राहुल गांधी के नाम पर शायद ही सहमति जताएं। 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सपा और बसपा एक साथ चुनाव लड़ने का ऐलान पहले ही कर चुके हैं।

कुछ दिन पहले ही अखिलेश यादव ने पीएम पद के लिए उम्मीदवार के तौर पर मुलायम सिंह यादव का नाम उछाल कर अपनी चाल चल दी है, जिसके बाद पीएम चेहरे को लेकर खींचतान शुरू हो गई है। अखिलेश यादव ने इसी रविवार को यूपी के उन्नाव में कहा था कि विपक्षी दल एक साथ मिलकर आगामी लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और एक सर्वमान्य नेता ही इसका मुखिया होगा। वहीं, मायावती भी कई बार प्रधानमंत्री पद के लिए खुद की दावेदारी जता चुकी हैं। ऐसे में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की भूमिका क्या होगी? इस पर AAP नेता भी कुछ कहने से बचते नजर आ रहे हैं। यानी विपक्षी दलों की इस बरात में केजरीवाल की स्थिति बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी दिखाई दे रही है।

वंशवाद के खिलाफ तो कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में क्यों गए केजरीवाल 
आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही वंशवाद की राजनीति को लेकर सर्वाधिक मुखर रहे हैं। यही वजह है कि लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार के अलावा दर्जनों ऐसे नेता हैं जिनका केजरीवाल विरोध करते रहे हैं। विपक्ष सवाल उठा रहा है कि वंशवाद की राजनीति के घोर विरोधी केजरीवाल आखिर किस सोच के तहत कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में शिरकत करने जा रहे हैं।

यहां पर बता दें कि कुमारस्वामी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के पुत्र हैं। जाहिर है यहां भी वंशवाद है। केजरीवाल के विरोधी तो यहां तक कहने लगे हैं कि उन्होंने सारे मुद्दों को किनारे रख दिया है। अब तो केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते भी नहीं हैं और अब वंशवाद का मुद्दा भी उन्होंने दरकिनार कर दिया है।

बता दें कि दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल कई बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि वे वंशवादी राजनीति के खिलाफ हैं। हालांकि, वह उस समय असहज स्थिति में आ गए थे, जब बिहार में नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण में लालू ने उन्हें गले लगा लिया था।

ये वो केजरीवाल तो नहीं…
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने और स्वच्छ राजनीति की वकालत करने वाले अरविंद केजरीवाल कभी इसकी धुरी रह चुके हैं। लोकपाल आंदोलन के दौरान केजरीवाल को सबसे ज्यादा इसीलिए पसंद किया गया कि वे भ्रष्टाचार की बात करते थे, लेकिन दिल्ली में सत्ता हासिल करने के तीन साल के भीतर ही लोगों की उम्मीदें टूटती सी नजर आ रही हैं। आलम यह है कि अब विरोधी भी ताना कसने लगे हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सरकार ने भ्रष्टाचार के मामले में शीला दीक्षित सरकार को भी पीछे छोड़ दिया है। इसकी वजह भी है। दरअसल, लाभ के पद से शुरू हुआ यह किस्सा वाटर टैंकर घोटाला, राशन घोटाला, प्रीमियम बस घोटाला, पीडब्ल्यूडी घोटाला और अब सीसीटीवी घोटाले तक पहुंच चुका है। भविष्य में इसकी फेहरिस्त बढ़ भी सकती है।

लालू के साथ फोटो खिंचवाकर हुए थे रुसवा
अपनी कथनी और करनी में अंतर को लेकर अरविंद केजरीवाल को कई बार शर्मिंदगी का भी सामना करना पड़ा है। दिल्ली में भाजपा नेता तो सरकार बनने के साथ ही यह बात कहते रहे हैं कि केजरीवाल कहते कुछ हैं और करते कुछ। नीतीश कुमार के नवंबर, 2015 में होने वाले शपथ ग्रहण समारोह में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खास मेहमान थे। इस दौरान मंच पर मौजूद लालू प्रसाद यादव के साथ केजरीवाल की फोटो काफी चर्चित हुई थी। इस कार्यक्रम में पहले लालू और केजरीवाल दोनों गले मिलते हैं फिर दोनों हाथ उठाकर जनता का अभिवादन स्वीकारते हैं।

यह तस्वीर वायरल हुई तो बवाल मच गया। इस पर केजरीवाल को खुद सफाई देने के लिए आगे आना पड़ा था। तब केजरीवाल ने सफाई में कहा था कि नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में लालू प्रसाद मंच पर थे। उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और मुझे अपने पास खींचकर गले लगा लिया। फोटो को लेकर परेशान केजरीवाल ने कहा था- ‘हमने राजद के साथ गठबंधन नहीं किया है। हम उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं और हमेशा उसका विरोध करेंगे। हम वंशवादी राजनीति के खिलाफ हैं। उनके दो बेटे मंत्री हैं, हम उसके भी खिलाफ हैं।’

एक फैसला और बढ़ गई नीतीश कुमार से दूरी
राजनीतिक के जानकारों को कहना है कि नीतीश और केजरीवाल की करीबी नरेंद्र मोदी के विरोध के चलते थी, लेकिन जैसे ही बिहार में जनता दल यूनाइटेड और भाजपा की संयुक्त सरकार बनी, दोनों के रास्ते अलग हो गए। यह दूरी तब और बढ़ गई जब 2017 में नीतीश कुमार ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया तक नहीं। कहा जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल बिहार नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में कतई नहीं जाते, लेकिन जनता दल यू ने केजरीवाल को बुलाने की सामान्य औपचारिकता तक नहीं निभाई थी।

बिहार-कर्नाटक में मिलते हैं कुछ हालात, केजरीवाल का जाना कहीं…
यह अलग बात है कि कर्नाटक की राजनीति में बुधवार को जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के वजूद में आने के साथ ही एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है। ऐसा ही कुछ बिहार में वर्ष 2015 में हुआ था जब बिहार के दो दिग्गज नेताओं लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने हाथ मिलाया था। जहां कर्नाटक में गठबंधन चुनाव परिणाम के बाद बना वहीं, बिहार में पहले से ही गठबंधन था। दोनों में समानता यह है कि बिहार और कर्नाटक में विधानसभा सीटों के मामले में दूसरे स्थान पर रहने वाली पार्टियों के अगुआ ही मुख्यमंत्री बने। केजरीवाल दोनों ही जगह शपथ ग्रहण का हिस्सा बनेंगे। लोग इसे हंसी-मजाक में ही कह रहे हैं कि हो सकता है केजरीवाल फैक्टर काम कर जाए और बिहार की तरह कर्नाटक में भी गठबंधन टूट जाए और नया बने।

 

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