विभाजन के अपराधी २ “नेहरू-पटेल-माउंटबेटन” सन 1945

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका है। इतने बड़े विध्वंस के बाद मित्र राष्ट्र जीत का दम्भ लिए खड़े हैं, जब कि सच यह है कि साम्राज्यवाद की रीढ़ टूट चुकी है। अमेरिका रूस और ब्रिटेन सबसे बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित हो चुके हैं, और अपनी इच्छा से ही ले चुके हैं पूरे विश्व की राजनीति को नियंत्रित करने की जिम्मेवारी। चर्चिल, स्टालिन और रूजवेल्ट, तात्कालिक विश्व के सबसे शातिर राष्ट्राध्यक्ष… दो विश्वयुद्धों ने उनको भी तोड़ दिया है और वे मट्ठा भी फूंक कर पीना चाहते हैं। और उनके सामने भविष्य में दो उभरती हुई शक्तियां दिख रही हैं। विशाल जनसँख्या और क्षेत्रफल वाले चीन और भारत। वे जानते हैं कि भले इन्हें दो सौ वर्षों तक परतंत्र रखा गया है, पर स्वतंत्र होते ही ये प्रथम पंक्ति में होंगे। इनमें चीन का कुछ बिगाड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि युगों युगों से एक अलग ताव में जी रहे चीन में तोड़ने लायक कोई आधार नहीं। न भाषा, न धर्म, न जाति, न राज्य… उसे स्वीकार करना ही होगा। उसे नहीं छेड़ा जा सकता पर भारत को तो रोका जा ही सकता है।
तो भारत को रोकने की व्यवस्था होती है।
भारत को तोड़ने लायक माहौल पहले ही जिन्ना बना चुका है। 1946 में हुए आम चुनावों में 90 फीसदी मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर मुस्लिम लीग का कब्जा हो चुका है। मतलब साफ है, नब्बे फीसदी मुस्लिम विभाजन चाह रहे हैं।
तभी मई 1947 में नए वायसराय के रूप में लार्ड माउंटबेटन पहुँचते हैं, और उनके साथ दो लोग और आते हैं। पहला वह लार्ड इज्मे जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चर्चिल का सहायक रहा है। और दूसरा वह धुरन्धर साम्राज्यवादी षड्यन्त्रकारी कोनराड कोरफील्ड, जो शाही हितों के लिए किए गए अपने अनेक वीभत्स कार्यों के लिये जाना जाता है।क्यों, यह कोई नहीं जानता।
भारत में कांग्रेस की कमान अब पूरी तरह नेहरू और पटेल के हाथ मे है, गाँधी पूरी तरह अलग-थलग पड़ चुके हैं।
बटवारे की आग दस वर्ष पूर्व ही लग चुकी है पर उसकी धाह से न नेहरू विचलित हैं न पटेल। वे हर बैठक में जिन्ना को बुलाते हैं। हर मुद्दे पर जिन्ना की राय को महत्व दिया जा रहा है। नेहरू पटेल जानते हैं कि यह देश तोड़ने के लिए लगा हुआ है पर वे इस दिशा में नहीं सोचते। याद रहे, जिन्ना एक ऐसा मुसलमान है जो इस्लाम के किसी भी नियम को नहीं मानता, न रोजा रखता है न नमाज पढ़ता है। देश के मौलवी-उलेमा उसे काफिर समझते हैं, फिर भी नेहरू और पटेल की कांग्रेस पिछले दस वर्षों से उसे मुसलमानों के नेता के रूप में स्वीकार कर रही है। क्यों? यह कोई नहीं जानता।
देश की जनता ने पिछले पचास वर्षों से सिर्फ कांग्रेस को अपना माना है, उसने हर आंदोलन के समय कांग्रेस का साथ दिया है, पर पिछले पंद्रह वर्ष से देश को तोड़ने के लिए खेले जा रहे खेल पर कांग्रेस क्यों चुप है इसका उत्तर किसी के पास नहीं। नेहरू और पटेल की नाक के नीचे जिन्ना जीरो से हीरो बन रहा है पर दोनों घातक चुप्पी साधे हुए हैं बल्कि उसकी हर कदम पर सहायता कर रहे हैं।
वह भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करता है, पर नेहरू-पटेल उसको भाव देना नहीं छोड़ते।
वह सीधी कार्यवाही के रूप में भीषण दंगे छेड़ता है पर नेहरू पटेल उसको भाव देना नहीं छोड़ते।
कांग्रेस ने यदि इस और ध्यान दिया होता तो खान अब्दुल गफ्फार खान को जिन्ना के विकल्प के रूप में खड़ा किया जा सकता था। यह शायद भारत के लिए सबसे आदर्श स्थिति होती। पर नहीं हुआ, और यही उस युग की सबसे बड़ी भूल सिद्ध हुई।
भारत विभाजन में नेहरू और पटेल का सबसे बड़ा दोष यह है कि उन्होंने जिन्ना जैसे व्यक्ति को एक पार्टी मान लिया और उसे स्थापित भी कर दिया। और इस कार्य में जितने दोषी नेहरू हैं उतने ही पटेल।
माउंटबेटन भारत को तोड़ने की पूरी तैयारी के साथ आया है, पर नेहरू और पटेल मान रहे हैं कि वह देश को स्वतन्त्रता देने आया है। नेहरू तो माउंटबेटन के साथ घरेलू सम्बन्ध बना चुके हैं। माउंटबेटन भारत आने के पूरे अपने देश के पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल से तीन तीन बार मिलता है। क्यों? यह सिर्फ वही जनता है।
माउंटबेटन जानता है कि जिन्ना अब मात्र वर्ष भर का ही मेहमान है। यह बात नेहरू-पटेल न जानते हों ऐसा सम्भव नहीं लगता।
मई में भारत आया माउंटबेटन मात्र दो महीने में ही भारत को आजादी दे देने के लिए बेचैन है, और नेहरू पटेल इसके समर्थन में हैं। नेहरू तो विभाजन के मुद्दे पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं, पर पटेल अब खुल कर बोलने लगे हैं। वे कहते हैं- “बंटवारे के बाद हम 75-80 प्रतिशत भाग को शक्तिशाली बना सकते हैं, शेष को लीग चला सकती है।”
बटवारे का यह समर्थन क्यों? आजादी के लिए यह जल्दीबाजी क्यों? इसका उत्तर न कभी नेहरू ने दिया न पटेल ने।
भारत जैसे विविधता से भरे देश का बटवारा रेडक्लिफ अपने दफ्तर में बैठ कर करता है। नक्से पर लाइन खींची जाती है। कोई जमीनी सर्वे नहीं, कोई आधिकारिक भ्रमण नहीं। जैसे जानबूझ कर भारत को रक्त से नहलाने का षड्यंत्र रचा जा रहा हो! नेहरू पटेल इसका विरोध नहीं करते, बल्कि साथ खड़े हैं।
तनिक सोचिये, यदि आजादी वर्ष भर के लिए रोक दी गयी होती और जिन्ना मर गया होता तो…..?

भारतीय राजनीति की मुख्य धारा से अलग हो चुका मोहनदास कहता रहा गया कि “हमें हमारे हाल पर छोड़ दो, हम सलट लेंगे” पर नेहरू-पटेल-माउंटबेटन की त्रयी ने न सुनी बात। अपने हाथों में अपनी विचारधारा की लाश लिए खड़े गाँधी यहां तक कह गए कि “यदि देश रक्त में नहाना चाहता है तो यही सही, पर विभाजन स्वीकार नहीं”, पर किसी से उनकी बात सुननी न चाही।
फलत: 1947…

भारत विभाजन में नेहरू और पटेल बराबर दोषी थे। भारत विभाजन की पूरी स्क्रिप्ट उनके सामने लिखी गयी पर उन्होंने उसे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। यदि रोकना चाहा होता तो….

क्रमशः

 

 

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