शास्त्री जी चाहते थे नेहरू को उनकी गलतियां बताते रहें जेपी

सुरेंद्र किशोर

यह तब की बात है कि जब डा.अनुग्रह नारायण सिंह बिहार के उप मुख्य मंत्री थे। डा.सिंह को इस बात की चिंता रहती थी कि जय प्रकाश नारायण के नेहरू विरोधी बयानों को उनके द्वारा प्रेरित माना जा रहा होगा।जेपी अनुग्रह बाबू के काफी करीबी थे।उधर शास्त्री जी का जेपी पर विशेष प्रभाव था। अनुग्रह बाबू ने शास्त्री जी तक ,यह आग्रह भिजवाया कि वे प्रधान मंत्री नेहरू के खिलाफ बयान देने से जय प्रकाश को रोकें। इस पर लाल बहादुर शास्त्री ने संदेश वाहक को साफ-साफ कह दिया कि ‘ मैं जेपी को मना नहीं करूंगा।क्योंकि देश में जेपी ही ऐसे नेता हैं जो पंडित जी के खिलाफ बोल सकते हैं और जिनकी बातों को पंडित जी महत्व देते हैंं।यदि जय प्रकाश भी बोलना बंद कर देंगे तो पंडित जी को पता ही नहीं चलेगा कि उनसे कैसी गलतियां हो जा रही हैं।’ऊपरी लिखी बातेें खुद पूर्व मुख्य मंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह ने एक जगह लिखी हैं। याद रहे कि तब भी बिहार कांग्रेस में दो गुट थे।अनुग्रह बाबू का विरोधी गुट हाईकमान को कान भरता रहता था।जेपी द्वारा जारी किए गए नेहरू विरोधी बयान उसका एक आधार था।

शास्त्री जी नेहरू के प्रिय पात्र थे।पर तब तक राजनीति में आज जैसी चमचागिरी का दौर शुरू नहीं हुआ था। शास्त्री जी नहीं चाहते थे कि नेहरू जी से अनजाने में भी कोई गलती हो जाए। शास्त्री जी को उनकी पुण्य तिथि के अवसर पर इसलिए भी याद करना जरूरी है क्योंकि आज के लोग जानें कि कोई व्यक्ति किस तरह अपने पुरूषार्थ के बल पर ऊंचा उठ सकता है। पर इसके लिए शत्र्त है कि आपको कठोरता की सीमा तक ईमानदार बनना पड़ेगा।आपको उसके प्रति लाॅयल रहना पडे़गा जिसके तहत आप काम कर रहे हैं।अपने काम को गंभीरता से लेना होगा।किसी को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझना होगा।और परस्पर विरोधी नेताओं के बीच भी तालमेल बैठा कर चलना होगा। लाल बहादुर शास्त्री को याद करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि एक सामान्य व्यक्ति कैसे महान बन सकता है,उनसे सीखा जा सके।महान न भी बने तो अन्य लोगों से अलग दिख ही सकता है,यदि शास्त्री जी के थोड़े भी गुण कोई अपनाये। देश के प्रधान मंत्री रहे शास्त्री जी का नाम दो कारणों से अधिक सुना जाता है।

एक तो उनके कार्यकाल में 1965 में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी हमलावरों के छक्के छुड़ा दिये ।संभवतः भारत ने पहली बार विदेशी भूभाग पर युद्ध लड़े और जीते। रेल मंत्री के पद से शास्त्री जी के इस्तीफे का प्रकरण लोगांे को याद रहता है।पर उनके मौलिक गुणों की चर्चा कम ही होती है।उनके जीवनी लेखक व प्रसिद्ध पत्रकार महावीर अधिकारी ने उन गुणों की चर्चा की है।अधिकारी जी के अनुसार शास्त्री जी के जीवन का एक -एक क्षण गम्भीर निष्ठा और आस्था से संपन्न रहा ।उन्होंने किसी को अपना प्रतिस्पर्धी अथवा शत्रु नहीं माना।डा.राजेंद्र प्रसाद के बाद इन्हें भारतीय राजनीति के रंगमंच का अजात शत्रु कहा जा सकता था।किसी सिद्धांत के प्रति उनका आग्रह नहीं था।वे सिद्धांतकार के रूप में ख्यात नहीं होना चाहते थे।वे अतिवादी भी नहीं थे।वे सहिष्णु थे। वे खुद को सच्चाई का एकमात्र और अंतिम अलमबरदार नहीं मानते थे।ऐसा कोई भी सामाजिक क्षेत्र नहीं था,जिसके लिए वे अमान्य हों,या जिसके एकमात्र प्रतिनिधि होने का वे दावा करते रहे हों।  अधिकारी लिखते हैं कि उनकी लोकप्रियता का रहस्य यही था।

उनके चेहरे पर इतनी भोली मासूमियत मुसकराती थी कि प्रधान मंत्री पद की महत्ता को उनके कर्म में ढूंढ़ना पड़ता था।उनके संपर्क में आने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति रहा हो,जो उन्हें देख कर यह न कह उठा हो –ओह,जब ये प्रधान मंत्री बन सकते हैं तो मैं क्यों नहीं बन सकता ? अपनी इसी विशिष्टता के कारण वे किसी की ईष्र्या के पात्र नहीं बने। उनके निर्णय सुविचारित और परिपक्व होते थे।वे एक तपोनिष्ठ संगठनकत्र्ता थे।मध्यवर्ती मार्ग का अनुसरण करने के कारण उन्हें झगड़े निपटाने और विरोधी दलों में मेलजोल कराने की अद्भुत क्षमता सहज प्राप्त हुई थी।उनके निर्णय निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होते थे। उन्हें अपना स्वार्थ दिखाई ही नहीं देता था।साथियों का विश्वास करते थे और बुजुर्ग नेताओंं के प्रति भक्तिपूर्ण अनुराग रखते थे।वे छोटे के प्रति सहिष्णुता भी रखते थे। लाल बहादुर शास्त्री उत्तर प्रदेश में थे तो वे गोविंद बल्लभ पंत और रफी अहमद किदवई के प्रति समान रूप से निष्ठा रखते थे।

पंत और किदवई परस्पर विरोधी थे।केंद्रीय राजनीति में आने के बाद शास्त्री जी ने जवाहर लाल नेहरू और पुरूषोत्तम दास टंडन के प्रति समान भक्ति भाव रखा।अनेक अवसरों पर शास्त्री जी ने टूटते संबंधों को जोड़ा।उनकी निष्पृह सलाह को स्वीकार करके सभी संतोष की सांस लेते थे। उन्होंने यह स्थापित कर दिया था कि भले ही उनके मस्तिष्क में महान विचारों का तूफान नहीं उठता हो ,लेकिन स्वीकृत सिद्धांत के अनुसार अपने कर्म को ढालने में उनकी समता पाना मुश्किल था। महावीर अधिकारी लिखते हैं कि नेहरू जी और पंत जी को छोड़कर किसी अन्य नेता में प्रशासन का इतना व्यापक ज्ञान नहीं था जितना शास्त्री जी में था।शास्त्री जी की ही सलाह पर शेख अब्दुला को जेल से रिहा किया गया था। भाषा को लेकर दक्षिण-उत्तर विवाद को शास्त्री जी ने सुलझाया।नेपाल के झुकाव को चीन की ओर बढ़ने से रोका।असम के भाषाई दंगों को समाप्त करने में शास्त्री फार्मूला काम आया।अकालियों के धार्मिक आंदोलन के विस्फोट का भी शास्त्री जी ने शमन किया,ऐसा अधिकारी जी ने लिखा है।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर की फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

 

 

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