शिकारा: कश्मीरी पंडितों की कहानी के वो हिस्से जो अब तक छुपाए गए हैं!

नेहा चौधरी

पहली बार ऐसा है, जब एक महीने का इंतज़ार काफी लंबा लग रहा है। पहली बार लग रहा है कि हर एक दिन गिनना पड़ेगा शायद, या दिन मुश्किल से कटे। वो भी किसलिए? एक मूवी के लिए। मूवी, एक ऐसे सब्जेक्ट पर है जिस पर कभी किसी ने मुँह खोला तो आस-पास से सबने होंठों पर उंगलियाँ रखवाईं। ऐसा सब्जेक्ट जिस पर देश की सरकारों ने अपना मुँह तो सिला ही साथ ही उस समय की मीडिया ने भी मुँह सिल लिया था और तथाकथित सेक्युलरों, बुद्धिजीवियों ने तो हमेशा ही इस विषय को लेकर गाँधी जी के तीन बंदरों की तरह आँख, कान और मुँह ढँक लिया। बस उनका संदेश उन बंदरों से अलग था।

उन तथाकथित सेक्युलरों, बुद्धिजीवियों का संदेश था कि, देश में अगर कहीं बहुसंख्यकों पर अत्याचार हो रहा है तो चुप रहो, उधर मत देखो, उनकी मत सुनो फिर भले ही वो दर्द से चीख-चिल्ला रहे हों; उनका सब लुट चुका हो, वो अपने ही मकानों से उजाड़े जा रहे हों; कोई उनके ही घर में घुस कर उनके घरों को जला दे, उनकी बहु-बेटियों का बलात्कार करे लेकिन उधर मत देखो, इस पर मत बोलो, उनकी चीखें मत सुनो।

आखिर क्यों? क्योंकि इस देश में वो बहुसंख्यक हैं। इनके लिए बोलने पर देश की धर्मनिरपेक्षता खतरे में आ जाएगी, इनका साथ दे देने पर ‘बुद्धिजीवी’ नाम का तमगा हाथ से छीन जाएगा। क्योंकि ये कभी न तो बुद्धिजीवी रहे न ही धर्मनिरपेक्ष। क्यों इस देश में धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब सिर्फ ’एंटी मेजोरिटी’ बन कर रह गया? ये सवाल उन तथाकथित सेक्युलरों और बुद्धिजीवियों के तबके के मुँह पर ऐसा सवाल है, जिसका जवाब शायद उन्हें कहीं और कभी नहीं मिलेगा।

लेकिन आज उस घटना के 29 सालों के बाद कुछ लोगों ने हिम्मत जुटाई है। जब जनता इन तथाकथित सेक्युलरों और बुद्धिजीवियों के साज़िश से निकल रही है। आज इनका घिनौना सच सामने आ रहा है क्योंकि आज जनता के सामने सोशल मीडिया से लेकर कई तरह के अन्य साधन हैं, जहाँ से वो सटीक जानकारियों तक पहुँच सकते हैं। आज जनता को सूचनाओं के लिए बिके हुए मीडिया संस्थान के आसरे नहीं रहना पड़ रहा है।

आज जब ऐसी सरकार है, जो वाकई धर्मनिरपेक्षता को धर्मनिरपेक्षता के रूप में ही देखती है न कि बहुसंख्यकों के बेवज़ह विरोध को या मुस्लिमों के तुष्टिकरण को धर्मनिरपेक्षता कहती है, तब किसी ने इस विषय को छुआ है और इस पर एक फिल्म बनाई है। वो फिल्म है ‘शिकारा’ और इसका विषय है वर्ष 1990 में कश्मीर से निकाले गए कश्मीरी पंडित।

जनवरी 1990 में अलगाववादियों और आतंकियों ने मिलकर कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को उन्हीं के घर से उन्हें निकाल दिया, उन्हीं की ज़मीन से उन्हें बेदखल किया, कश्मीरी पंडितों की औरतों से नृशंसतापूर्वक बलात्कार किया, उनकी हत्याएँ की। ऐसा न केवल साधारण कश्मीरी पंडित बल्कि, ऐसे कश्मीरी पंडितों के भी साथ हुआ, जो सरकारी ओहदे पर थे। उन दिनों में चरमपंथी, अलगाववादी इश्तिहारों, पोस्टरों के ज़रिए कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए धमकाते थे, फिर सामने आकर लोग डराने लगे तब भी उन्हें आशा थी कि ये 7-8 लाख लोगों का मामला है, सरकार जल्द ही कुछ करेगी।

सरकार जल्द ही कोई भरोसेमंद कदम उठाएगी, बुद्धिजीवी कुछ तो बोलेंगे, मीडिया लोगों तक उनकी बात पहुँचाएगी। यह सोचकर वो कश्मीरी पंडित कश्मीर में रुके रहे किंतु कहीं से कोई मदद नहीं आई और अंततः 19 जनवरी 1990 की रात को लाखों कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भागना पड़ा।

जाइए जम्मू के जगती कैंप में और देखिए अपने ही देश में अपने ही घर, अपनी जमीन से भगा दिए गए लोग कैसे रह रहे हैं! जाइए दिल्ली के मजनू का टीला और देखिए वहाँ के कश्मीरी पंडितों के कुछ परिवारों की हालत। देखिए उनकी महिलाएँ क्या काम करने को मजबूर हैं! इनके लिए संविधान क्या कहता था 1990 में? इनके लिए संविधान अब क्या कहता है? इसके लिए न्यायपालिका क्या कह रही थी 1990 में? इनके लिए न्यायपालिका अब क्या कह रही है? इनको फिर से बसाने के लिए क्या किया जा रहा है?

ऐसा नहीं कि विस्थापित कश्मीरी पंडित अपने-अपने घरों को नहीं लौटना चाहते, लेकिन उनका सवाल है और जायज सवाल है, “हमारी सुरक्षा की गारंटी कौन देगा और वापस लौटकर हम अपनी रोज़ी रोटी कैसे कमाएँगे? वो लोग इस समय कहीं नहीं हैं, उनका अपना कुछ नहीं है। उनका रेजिडेंस प्रूफ रोज बदलता है, जिनके अपने ढेर सारे कमरों वाला मकान था।

कहाँ हैं वो धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी? कहाँ है वो प्रगतिशील मुसलमानों का झुंड, जो तब तो हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई की माला जपने लगते हैं जब कम संख्या में होते हैं और संख्या में बढ़ते ही उस जगह को हिन्दुओं या अन्य धर्म के लोगों के लिए नरक बना देते हैं? क्यों नहीं उस वक़्त उन्होंने वो एकता दिखाई? क्यों नहीं वो सड़कों पर आए? आखिर क्यों?

आखिर क्यों हर बार इस देश में बहुसंख्यकों से ही उम्मीद कि जाती है कि वही चुप रहे? क्यों बहुसंख्यक, बहुसंख्यक होने की कीमत चुका रहा? क्यों बहुसंख्यक को कहा जाता है कि वो अपनी रोटी का हिस्सा मुसलमानों को दे जबकि वही मुसलमान जैसे ही किसी जगह पर बहुसंख्यक की स्थिति में आते हैं, वैसे ही हिन्दुओं के हिस्से की रोटी तो छीन कर खा ही जाते हैं, साथ में उनकी बहू-बेटियों को भी नहीं बख्शते हैं।

आज भी उन सबके मुँह सिले हुए हैं, जिनके मुँह आज से 29 साल पहले सिले हुए थे। लेकिन आज एक सरकार है, जो अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने के लिए बहुसंख्यकों को सताती नहीं है कम से कम। मेजॉरिटी को मेजॉरिटी होने की कीमत चुकानी नहीं पड़ती है कम से कम। इसलिए किसी ने कोशिश की है इस विषय पर मूवी बनाने की और वाकई हर दिन उंगली पर गिना जाएगा अब तो। पहली बार किसी मूवी को पहले ही दिन देखना है। नोट किया जाए, 7 फरवरी, 2020 को ‘शिकारा’ रिलीज़ हो रही है।

 

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