सरकारी अनुकंपा है साहब! मजदूर और पत्रकार वोट बैंक थोड़ी हैं

राजेश श्रीवास्तव

शुक्रवार की सुबह आम दिनों की तरह नहीं थी जब लोगों की आंख खुली तो मध्य प्रदेश के औरंगाबाद की एक ट्रेन की पटरी पर बिखरे मांस के लोथड़े, सीत्कारें, चीख्ों, रोटियां, फटे कपड़े, कुछ चप्पल और छोटा-मोटा सामान सब कुछ मानो कह रहा था कि जिन 16 मजदूरों पर सोते समय ट्रेन जिस तरह से उन्हें अनंत यात्रा पर सुला कर चली गयी उसने उनके परिवारों को अंतहीन दर्द भी दे दिया। एक परिवार का तो कोई बचा ही नहीं, कई परिवार अब इस स्थिति में नहीं हैं कि अपने आपको समझा सकें कि उनके लिए जिंदगी नाम की कोई चीज बची भी है। इन सबने बातचीत में अपने परिवारों को बताया था कि उनके पास खाने को कुछ नहीं है जो थोड़े-बहुत पैसे है वह 4० रुपये किलो चावल खरीद कर खा रहे हैं इसीलिए घर लौट रहे हैं। सड़कों पर कानून-व्यवस्था थी लेकिन जेब की अर्थव्यवस्था बिगड़ी तो उन्हें रेल व्यवस्था ही सुरक्षित जान पड़ी और वह उसी सुरक्षित राह पर यह सोचकर चले थ्ो कि अब घर जाएंगे और फिर कभी कहीं बाहर काम करने नहीं जाएंगे। यह हादसा तो बस एक बानगी है इस तरह के हादसे दोबारा न हों।
यह हादसा बहुत कुछ कह रहा है सरकारों के दावों की कलई भी खोल रहा है। जब से कोरोना महामारी का प्रकोप फैला है और लॉक डाउन शुरू हुआ है तब से हर रोज कमोवेश ऐसी ही तस्वीरें देख रहा है कि अमुक सड़क से 1००० किमी पैदल चल कर मजदूर आ रहे हैं। अमुक टàक में बैठकर मजदूर आ रहे हैं। अमुक टैंकर में छिपकर मजदूर आ रहे हैं। दिल दहलाने वाला सच तो यह भी है कि सभी प्रदेशों और केद्र की सरकारें दावा कर रही हैं कि सबको राशन, किट, खाना, भोजन, पैसा सब कुछ बांटा जा रहा है उसके बावजूद सारे मजदूर यही बता रहे हैं कि उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा। कोई बिस्किट के सहारे सैकड़ों किमी पैदल चल रहा है तो कोई पानी के सहारे। उत्तर प्रदेश में तो सवा लाख मजदूर बाहर से लाये गये और फिर जो पैदल चल कर आये उनकी तो गिनती ही नहीं। यही हाल लगभग हर प्रदेश का है। फिर जब सारी सरकारें दावा कर रही हैं कि मजदूर पैदल न चलें हम सबको घर लेकर आएंगे तो फिर मजदूर क्यों विवश हैं पैदल चलने को। इन्हें सरकारों से नाराजगी तो नहीं कि वह राजनीति करें और दिखायें कि सब कुछ मिल रहा है फिर भी भूख्ो-प्यासे पैदल चलने को विवश हैं। ऐसा नहीं है कि असलियत की तस्वीर दिखावे की तस्वीर से कहीं ज्यादा भयावह है।
अब तो सरकारें श्रम कानूनों में भी बदलाव कर रही हैं। यानि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की राज्य सरकारों ने उद्योगपतियों को उन ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है जो अब तक क़ानूनन उन्हें माननी पड़ती थीं। कुछ प्रावधानों पर नज़र डालें जब अगले तीन साल तक के लिए निरस्त कर दिए गए हैं, मसलन – काम की जगह या फैक्ट्री में गंदगी पर कार्रवाई से राहत। वेंटिलेशन या हवादार इलाक़े में काम करने की जगह नहीं होने पर कोई कार्रवाई नहीं। किसी मजदूर की अगर काम की वजह से तबीयत ख़राब होती है तो फैक्ट्री के मैनेजर को संबंधित अधिकारियों को सूचित नहीं करना होगा। शौचालयों की व्यवस्था नहीं होने पर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी। इकाइयां अपनी सुविधा के हिसाब से मज़दूरों को रख सकती हैं और निकाल सकती हैं वो भी अपनी ही शर्तों पर बदहाली में काम करने का न तो श्रमिक अदालत संज्ञान लेगी और ना ही दूसरी अदालत में इसको चुनौती दी जा सकती है। यानि अगर कहें कि मजदूरों, श्रमिकों कामगारों, नाम आप कोई भी दे सकते हैं, की स्थिति और दयनीय ही होनी है। सरकारों ने कभी इस पर विमर्श नहीं किया कि क्यों इन मजदूरों को घर और राज्य छोड़कर दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है।
सरकार में बैठे तथाकथित नीति नियंताओं में अगर सामान्य सूझबूझ भी नहीं है तो वे कैसे किसी प्रदेश के कर्णधार बने हुए हैं? और जो सरकार अपने आपको लोकतांत्रिक तरीके से चुना हुआ बताती हो, वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी तबके या समूह को बंधुआ बनाकर कैसे रख सकती है? खास तौर से तब, जब मजदूरों का सब्र पहले ही जवाब दे चुका है, वह भी इस हद तक कि उनमें से अनगिनत तो जान हथेली पर लेकर अपने घर के लिए निकल चुके हैं।
अब उत्तर प्रदेश सरकार रोज दावा कर रही है कि उनके यहां सबसे ज्यादा कामगार बाहर से आ रहे हैं। उन्हें यहीं रोजगार दिलाया जायेगा। सरकार लेबर रिफार्म अध्यादेश लाने जा रही है। प्रयास अच्छे हंै लेकिन अगर यह सब कुछ जमीन पर उतरे तो। दिलचस्प यह भी है कि लॉक डाउन के बाद जब रियायत मिली तो इन्हीं मजदूरों के सहारे ही अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लाने की कोशिश शुरू हो गयी। सड़कों का निर्माण, गन्ना कताई, गन्ना मिल, शुगर मिल, आटा मिल, तेल मिल, मनरेगा के काम, एक्सप्रेस वे का काम सब कुछ मजदूरों के कांध्ो पर डाल दिया गया है। अब देखना है कि मजदूरों के लिए जिस तरह सरकारें दावा कर रही हैं क्या उनके लिए होगा। यह कोई वोट बैंक नहीं हैं अगर होते तो इन 16 मजदूरों के परिवारों को भी चालीस लाख रुपये और नौकरी मिलती लेकिन यह बेचारे श्रमिक हैं इनके परिवार के लिए तो पांच लाख रुपये देकर सरकार ने बड़ी अनुकंपा की है। इनके लिए यह धनराशि देकर सरकार ने बड़ा काम किया है। आगरा में पत्रकारिता के लिए कोरोना के बीच जूझते-जूझते पंकज कुलश्रेष्ठ ने दम तोड़ दिया लेकिन सरकार की झोली से उनके लिए भी कुछ नहीं निकला। पत्रकारों के संगठनों ने मांग उठायी तो रोज-ब-रोज होने वाली प्रमुख सचिव गृह की प्रेसवार्ता ही एजेंसी के मार्फत होने लगी और पत्रकारों से हाथ जोड़ लिये गये। शुक्रवार को ही पत्रकार संगठन ने मांग की थी कि पत्रकारों को कोरोना वारियर्स घोषित किया जाए। पचास लाख का बीमा कराया जाये। पंकज के परिवार को पचास लाख रुपये दिये जाएं। लेकिन सरकार ने प्रेसवार्ता रद कर यह बता दिया कि पत्रकारों के बिना भी काम चल सकता है। आखिर पत्रकार और मजदूर वोट बैंक थोड़ी हैं।

 

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