सारे नेताओं को जनता की नहीं, अपनी चिंता

राजेश श्रीवास्तव
एक वह दौर था जब नेता मन में कुछ भी हो पर वह ऐसा कोई कर्तव्य प्रत्यक्ष में प्रस्तुत नहीं करते थ्ो कि उनके आचार-व्यवहार का सच जनता के बीच जा सके। लेकिन अब वह भी स्तर गिर चुका है। बीते दिनों जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संगठित अपराध पर नकेल कसने के लिए विधानसभा में यूपीकोका विधेयक रखा तो विपक्षी दलों ने आसमान सिर पर उठा लिया और ऐसा लगा कि वह सब जनता के लिए इतने चिंतित हैं कि उनके लिए ही दिन-रात एक किये हुए हैं।
हंगामे के बीच सदन चलना मुश्किल कर दिया और अंत में उसे सत्ताधारी दल को प्रवर समिति को सौंपना ही पड़ा। लेकिन जब दूसरे ही दिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजनीतिक मुकदमे वापस लेने के लिए ऐलान किया तो सभी दलों के नेताओं ने एक सुर में उनके सुर में सुर मिलाया। कहीं से भी विरोध के स्वर सुगबुगाए भी नहीं। तब किसी ने नहीं कहा कि राजनीतिक मुकदमे खत्म करने का औचित्य क्या है। दिलचस्प तो यह है कि कानून की भाषा में कोई राजनीतिक मुकदमा तो होता नहीं फिर कैसे तय होगा कि अमुक मुकदमा राजनीतिक है या नहीं।
क्योंकि मुकदमे तो सभी आपराधिक ही होते हैं, इस बात को भी किसी ने सदन में उठाना उचित नहीं समझा। कोई उठाता भी कैसे, इस विधेयक में सभी सियासी दलों के नेताओं को अपना-अपना हित सधता दिख रहा था। दिलचस्प तो यह है कि भाजपा के इस विधेयक को रखने वाले कानून मंत्री ब्रृजेश पाठक पर भी कई राजनीतिक मुकदमे दर्ज हैं। डिप्टी सीएम केशव मौर्य और खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी राजनीतिक मुकदमे दर्ज हैं।
केवल सत्ताधारी दल ही नहीं चाहे समाजवादी पार्टी हो या फिर बहुजन समाज पार्टी या फिर कांग्रेस सभी दलों के नेताओं पर किसी न किसी रूप में कोई न कोई मुकदमा पंजीकृत है। और तो और जब इनमें से हर एक दल के नेता ने सदन से बाहर निकलकर मीडिया को अपनी टिप्पणी दी तो साफ कहा कि हमने इसका समर्थन इसलिए किया ताकि न्यायपालिका के भारी बोझ को कम किया जा सके। यानि बेचारों ने इतना ज्यादा उपकार न्यायपालिका पर कर दिया कि अदालतें उनके ऊपर दर्ज मुकदमों के बजाय आम जनता के मुकदमे जल्दी निपटायें और नेताओं की चिंता न करें।
नेता तो अपनी गर्दन वैसे ही इस नियम के तहत बचा लेंगे और उनको मुकदमे के तहत अदालत का चक्कर लगाने की क्या जरूरत। अदालत तो आम आदमी के लिए बनी है माननीयों के लिए नहीं। अब जनता बेचारी नेताओं से जानना चाह रही है कि आखिर नेता बतायें कि क्या धरना-प्रदर्शन के दौरान सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, बसों को जलाना, रोड जाम करना, तोड़फोड़ करना ऐसे अपराध हैं जिनको माफ कर देना चाहिए। क्या नेताओं के इस कारनामों से आम जनता को तकलीफ नहीं होती है। लेकिन उनसे कौन पूछे आखिर माननीय जो हैं।
ऐसे में हर किसी को इस नियम के तहत अपना-अपना फायदा नजर आ रहा है। इन दोनों विध्ोयकों के एक के बाद विधानसभा में रखे जाने के बाद हुए घटनाक्रम और नेताओं के आचरण से आम जनता को तो इस बात की समझ आ ही गयी कि नेताओं का आचरण और व्यवहार किस तरह का है। अब जनता समझ गयी होगी कि उनका नेता अपने लिए पहले चिंतित रहता है बाद में अपनी जनता के लिए। बात भी सही है जब खुद सुरक्षित रहेंगे तभी तो दूसरों का हित कर सकेंगे, आखिर इस बात पर नेता क्यों न अमल करे।

 

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