सिर्फ दलितों के भरोसे नहीं, ब्राह्मण-ठाकुरों के बगैर मायावती की दाल नहीं गलने वाली

-Social Engineeringके समीकरण से सुलझेगा गणित
 
-जाटव वोटबैंक एकमुश्त जुडऩे के मूड में नहीं दिखा
 
– वर्ष 1993 के बाद पार्टी की वोट शेयरिंग सबसे खराब
 
-वर्ष 1989 के बाद सीटों की संख्या भी सबसे कम हुई
लखनऊ। बगैर सहारा ‘हाथी’ की चाल नहीं सुधरेगी! बहुजन समाज पार्टी (BSP) को जीवनदान देने के लिए पार्टी मुखिया Mayawati ने भले ही अप्रत्याशित कदम उठाते हुए राज्यसभा से इस्तीफा देकर देश को चौंका दिया है, लेकिन सिर्फ दलित बिरादरी की बात करने से पार्टी की बिगड़ी हालत को दुरुस्त करना दूर की कौड़ी लगता है। Lok Sabha Election और यूपी विधानसभा चुनावों के नतीजों की समीक्षा और दलित बिरादरी के बीच सर्वे बताता है कि बसपा को यूपी में पुराना रुतबा हासिल करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग पर दुबारा भरोसा करना होगा। पार्टी को हिंदू बिरादरी में दलितों के साथ-साथ ब्राह्मणों और ठाकुरों को जोडऩा पड़ेगा। सिर्फ इसी समीकरण से पार्टी के वोट प्रतिशत में इजाफा मुमकिन है। दूसरा रास्ता सपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन है, लेकिन सर्वे में यह भी सामने आया है कि SP- Congress से जुड़ा वर्ग मायावती को बतौर नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मतलब यह हुआ कि गठबंधन में मायावती और बसपा को दोयम दर्जे की भूमिका में रहना होगा, नेता बनेंगे सपा के सुल्तान अखिलेश यादव। यह स्थिति बसपा के भविष्य के लिए ज्यादा खराब होगी, जोकि मायावती को मंजूर भी नहीं होगी।
दस साल में पार्टी की ताकत हुई कमजोर, सीट भी हुईं कम
राज्यसभा से इस्तीफा और यूपी में रैलियों का ऐलान करने के बाद चुनाव नतीजों की समीक्षा और सर्वे करने वाली एक मीडिया एजेंसी ने सर्वे कराया तो बसपा को परेशान करने वाले तथ्य सामने आए। UP Vidhan Sabha Election के पिछले नतीजों की समीक्षा करने पर यह जाहिर है कि वर्ष 2017 के चुनावों में सीटों और वोट शेयरिंग के अनुपात में BSP को तगड़ा झटका लगा है। वर्ष 1989 में यूपी विधानसभा का पहला चुनाव लडऩे पर बसपा को उस दौर में सिर्फ 13 सीट मिली थीं, लेकिन उसे १५.८७ प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। पार्टी की ताकत बढ़ी वर्ष 1993 के चुनाव में, जब बसपा-सपा गठबंधन की सरकार प्रदेश में बनी थी। इस दौर में बसपा ने कुल 164 सीट पर चुनाव लडक़र 67 सीट जीती थीं। पार्टी को 11.12 फीसदी। इस मुकाबले देखा जाए तो वर्ष 2017 में बसपा ने सबी 403 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन जीत सिर्फ 19 को नसीब हुई। पार्टी का वोट प्रतिशत भी पिछले चुनाव के मुकाबले करीब 4 फीसदी गिरकर 22.24 रह गया। यूं तो प्रत्यक्ष तौर पर वोट शेयरिंग अच्छी है, लेकिन वर्ष 2007 (जब बसपा ने अकेले दम पर सरकार बनाई थी) से लगातार पार्टी का वोट शेयर गिर रहा है। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 30.43 फीसदी वोट शेयर मिला था।
सिर्फ रैलियों और Dalit के भरोसे ताकत हासिल करना मुश्किल
सर्वे के दौरान दलित बिरादरी, खासकर जाटव वोटरों का मूड टटोला गया तो बसपा के लिए चिंताजनक स्थिति सामने आई। पिछले एक दशक में जाटव वोटों का 90 फीसदी हासिल करने वाली BSP को सिर्फ 42 फीसदी जाटवों ने खुलेतौर पर स्वीकार किया। शेष वोटरों मौजूदा वक्त में मोदी मैजिक से सम्मोहित नजर आए। Note Bandi और GST जैसे फैसले के बावजूद भी दलित बिरादरी भाजपा से दूर नहीं हुई है। सवर्णों के बीच बसपा की स्वीकार्यता ज्यादा तो नहीं दिखी, लेकिन भाजपा के प्रति गुस्सा झलकता दिखा। ऐसे में सर्वे रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ दलितों की बात करने के बजाय वर्ष 2007 की तर्ज पर Mayawati सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लेंगी तो बसपा की ताकत बढऩा तय है। सवर्ण बिरादरी के गुस्से को उबालकर पार्टी वर्ष 2019 के आम चुनावों में करिश्मा कर सकती है। इस मोर्चे पर सवाल यह है कि Social Engineering के लिए पार्टी किस चेहरे को आगे करेगी।
सपा के साथ जाने में मुश्किल, कांग्रेस का थाम सकती हैं हाथ
सर्वे रिपोर्ट में बसपा की संजीवनी के रूप में दूसरा विकल्प गठबंधन बताया गया है। राजनीतिक चर्चा के अनुसार आम चुनाव-2019 में यूपी में सपा, कांग्रेस और बसपा में महागठबंधन संभव है। गठबंधन के नेता के तौर पर कौन आगे होगा, इस सवाल का जवाब नहीं आया है। यही मुश्किल पेंच है। विधानसभा और लोकसभा में मौजूदा स्थिति को देखते हुए सपा के सुल्तान Akhilesh Yadav स्वाभाविक तौर पर नेता बनने के उपयुक्त हैं, लेकिन यूपी के सामाजिक ताने-बाने में दलितों और यादवों के मतभेद-मनभेद जगजाहिर हैं। ऐसे में यादव बिरादरी को गठबंधन का नेता स्वीकार करने की स्थिति में मायावती के सामने भविष्य की चुनौतियां ज्यादा बढ़ी होंगी। दलित बिरादरी का हमेशा के लिए पार्टी से दूर होने का खतरा है। इसके अतिरिक्त मायावती स्वयं भी गठबंधन में दोयम भूमिका में रहना पसंद नहीं करेंगी।
 

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