सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया से डरे हुए क्यों हैं शाहीन बाग के सफेदपोश?

भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता के इतिहास में 27 जनवरी की तारीख को याद रखा जाएगा। आने वाले समय में यह तारीख पत्रकारिता के शोधार्थियों के लिए अध्ययन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होगा कि कैसे सामाजिक सरोकार के लिए राष्ट्रीय खबरिया चैनलों के दो बड़े पत्रकार आपसी प्रतिद्वंद्विता भूल एक साथ मैदान में उतरे।

एक तरफ शाहीन बाग के कथित प्रदर्शनकारी कह रहे थे कि हमारी आवाज सुनी नहीं जा रही। वे कह रहे थे कि हमारा प्रोटेस्ट लोकतांत्रिक है। उसी कथित विरोध को कवर करने के लिए दीपक चौरसिया और सुधीर चौधरी जब शाहीन बाग पहुँचे तो उन्हें कवर करने से रोका गया। ऐसा कौन सा लोकतांत्रिक प्रदर्शन होगा जिसमें शामिल होने वालों को रोका जाता हो?

चौधरी ने लिखा, “आज मैं और दीपक चौरसिया शाहीन बाग गए। प्रदर्शनकारियों ने कहा कि हम शाहीन बाग में ‘अलाउड’ नहीं हैं। रोकने के लिए पहली पंक्ति में महिलाओं को खड़ा कर दिया। पुरुष पीछे खड़े हो गए। नारेबाज़ी हुई। राजधानी में ये वो जगह है जहाँ पुलिस भी नहीं जा सकती। लोकतंत्र का मज़ाक़ है ये।”

देश की राजधानी दिल्ली में जब मुट्ठी भर समुदाय विशेष के गुंडा तत्वों ने ऐसा माहौल बना दिया है, सोचिए छोटे शहरों में समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों ने जो घेटोज बनाए हैं, वहाँ क्या हाल होता होगा? इसी का परिणाम है कि धीरे-धीरे दिल्ली वालों की सहानुभूति जामिया नगर और शाहीन बाग के प्रति कम होती जा रही है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन के पक्ष में समाज हो सकता है, लेकिन गुंडा तत्व जब आंदोलन में घुल-मिल जाए तो ऐसे कथित आंदोलनों को खत्म ही कर देना चाहिए। इस कथित आंदोलन की वजह से लाखों लोगों की जिन्दगी प्रतिदिन ऐसी उलझी हुई है कि बच्चे ना स्कूल जा पा रहे है और ना बच्चे के पापा समय पर दफ्तर पहुँच पा रहे हैं।

24 जनवरी को शाहीन बाग के आयोजकों से बातचीत करके दीपक चौरसिया अपनी टीम के साथ प्रदर्शन स्थल पर कवरेज के लिए पहुँचे। वहा उनके साथ मारपीट हुई। इसमें उन्हें चोट आई। उनका एक कैमरा प्रदर्शनकारियों ने गायब कर दिया। इसकी शिकायत उन्होंने पुलिस के पास की। दीपक शाहीन बाग के लोगों की आवाज पूरे देश में पहुँचाना चाहते थे और वे खुद मॉब लिंचिंग के शिकार हो गए।

दीपक ने हार नहीं मानी। उन्होंने एक प्रयास और किया। इसमें उनका साथ वरिष्ठ पत्रकार सुधीर चौधरी ने दिया। इस बार भी शाहीन बाग के आयोजक खुद को ‘सच्चा मुसलमान’ साबित करने में चूक कर गए। जबकि दीपक चौरसिया का किरदार इस मामले में पूरे देश ने देखा और लेफ्ट लिबरल पत्रकारों को छोड़कर हर तरफ उनकी तारीफ हुई।

मोहम्मद साहब और क्रोधी स्वभाव वाली बुढ़िया की कहानी दुहराता तो हर मुसलमान है, लेकिन मानो इस कहानी से प्रेरणा दीपक ने ली और पूरा शाहीन बाग उस कर्कश बुढ़िया की भूमिका में था जो नमाज पढ़ने के लिए जब मोहम्मद साहब जाते तो वह घर की सारी गंदगी उनके ऊपर उड़ेल देती थी। मोहम्मद साहब कभी बुढ़िया पर नाराज नहीं हुए। दीपक भी बातचीत में शाहीन बाग में नाराज नहीं दिखे। वे बार-बार यही निवेदन करते रहे कि मैं आपसे बात करना चाहता हूँ। इसके बावजूद उनकी बात को अनसुना करने वाला मोहम्मद साहब का अनुयायी तो नहीं हो सकता।

बूढ़ी औरत और मोहम्मद साहब की कहानी कूड़ा फेंकने पर खत्म नहीं होती। एक दिन जब उस राह से मोहम्मद गुजरे तो उन पर कूड़ा आकर नहीं गिरा। वे थोड़े हैरान हुए। फिर आगे बढ़ गए। अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ। मोहम्मद साहेब को कुछ अंदेशा हुआ। वे उस बूढ़ी महिला के घर चले गए। दरवाजा खोलकर जब अंदर गए तो देखते हैं कि बूढ़ी महिला दो दिनों की बीमारी में ही बेहद कमजोर हो गई है। इस हालत में देखकर मोहम्मद साहब दुखी हुए। उन्होंने डॉक्टर बुलाया। उस बूढ़ी महिला की सेवा सुश्रुषा तब तक की जब तक वह स्वस्थ नहीं हो गई।

अब जो लोग खुद को मोहम्मद साहब का अनुयायी कहते हैं और उनके किरदार में इतना छिछोरापन नजर आए कि देश के दो पत्रकार आपके दरवाजे पर खड़े हों और आप दरवाजा बंद कर दें। ऐसे में दरवाजा बंद करने वाले किस मुँह से खुद को मुसलमान कहलाने का दावा पेश करेंगे?

इसी तरह का अपने मित्र अहमद सुल्तान से जुड़ा एक वाकया इस्लाम के बड़े जानकार मौलाना वहिदुद्दीन खान साहब सुनाते हैं- एक मोहल्ले में फसाद होने वाला था। मानों दोनों तरफ से इसकी तैयारी पूरी हो चुकी थी। एक जुलूस निकल कर आने वाला था, उससे मुसलमानों का टकराव होता और फिर फसाद होता। अहमद सुल्तान साहब को जब इस पूरे मामले की जानकारी हुई तो वे मोहल्ले की मस्जिद में गए और इमाम साहब से मिले।

सुल्तान साहब ने कहा- जब उनका जुलूस आए तो आप रोक-टोक मत कीजिए। आप सिर्फ इतना कीजिए कि बाजार से दस हार मँगवा लीजिए। जब जुलूस आए उस वक्त ट्रे में हार लेकर आप सड़क पर खड़े हो जाइए और जो भी आगे चलकर आ रहे हों। जुलूस के नेता हों, उन्हें हार पहना दीजिए और उनका स्वागत कीजिए। इमाम ने ऐसा किया और जो साम्प्रदायिक दंगा होना तय था, वह ना सिर्फ टला बल्कि दोनों समुदायों के बीच एक मजबूत रिश्ते की उस दिन नींव पड़ी।

वैसे सच यह भी है कि शाहीन बाग का आंदोलन सिर्फ शाहीन बाग के लोगों से नहीं चल रहा। इसके कुछ स्टेक होल्डर बाहर भी हैं। जिस तरह इस पूरे मामले में एनडीटीवी रूचि ले रहा है, ऐसा लगता है कि वह भी इस कथित आंदोलन में एक स्टेक होल्डर है। संभव है इसलिए एनडीटीवी के एक स्टार एंकर ने चौरसिया के साथ शाहीन बाग में पिछले दिनों जो गलत व्यवहार हुआ उसकी सुध लिए बिना उलटा उनकी पत्रकारिता को लेकर सवाल पूछा। एनडीटीवी के एंकर के बयान की आईसा-एसएफआई की वैचारिक पत्रकारिता स्कूल से निकले पत्रकारों को छोड़कर हर तरफ आलोचना हुई और यह सवाल भी सामने आया कि एनडीटीवी का इतना महत्वपूर्ण चेहरा जब कोई बात लिख रहा है तो उसे निजी राय नहीं माना जा सकता।

यहाँ गौरतलब है कि एनडीटीवी के पत्रकारों को शाहीन बाग में आसानी से जाने का रास्ता मिल जाता है। जामिया में हुई हिंसा और आगजनी के दौरान सहायता के लिए जिन लोगों के मोबाइल नंबर छात्रों के बीच वाट्सएप पर शेयर किए जा रहे थे, उसमें भी एक एनडीटीवी का पत्रकार था और दूसरी पत्रकार का ताल्लुक वायर नाम की एक वेबसाइट से था। यह भी एक संयोग है कि देशद्रोह का आरोपी शरजील इमाम भी वायर नाम की वेबसाइट से जुड़ा रहा है।

एनडीटीवी और वायर की पूरे मामले में जो भूमिका दिखाई पड़ी, उसे देखकर उनपर संदेह होना स्वाभाविक है। एनडीटीवी और वायर दूसरे चैनलों के साथ वहाँ हो रहे दुर्व्यवहार के सवाल को क्यों नहीं उठाते? आज एनडीटीवी-वायर, शाहीन बाग में न्यूज नेशन और जी न्यूज को रोके जाने पर उत्सव मना रहे हैं। वह नहीं जानते कि अगला नंबर उनका भी हो सकता है और फिर उनके पत्रकार किस मुँह से लोकतंत्र की दुहाई देंगे?

इस पूरे प्रकरण में एनडीटीवी और वायर ने अपने लिए यह मुसीबत जरूर मोल ले ली कि उनके पत्रकारों पर भी लोग इस तरह का दबाव बना सकते हैं। उनसे भी लोग सवाल पूछ सकते हैं- पहले बताओ कि तुमने पत्रकारिता के लिए क्या किया है? या फिर उनका माइक देखते ही कोई कह सकता है कि जो रिपोर्ट करना है सामने करो। मेरे मन का करो। अब सोचिए जब एनडीटीवी के पत्रकार के साथ यह हो रहा होगा तो वे किस मुँह से इसकी शिकायत कर पाएँगे। जबकि शाहीन बाग की अराजक भीड़ के पक्ष में वे लगातार रिपोर्ट कर रहे हैं।

इस संबंध में पत्रकारिता के पूर्व छात्र रहे चंदन श्रीवास्तव लिखते हैं, “एनडीटीवी के एक पत्रकार शाहीन बाग में दीपक चौरसिया पर हुए हमले की निन्दा करते हुए, उसे जस्टिफाई कर रहे हैं। वह पूछते हैं कि दीपक चौरसिया का पत्रकारिता में क्या योगदान है? इसमें कोई शक नहीं कि दीपक चौरसिया अपनी महात्वाकांक्षा की वजह से वह दीपक चौरसिया नहीं रह गए जो वह कुछ सालों पहले तक होते थे। लेकिन उनके आज की वजह से उनके कल की उपेक्षा करना तो उनके साथ अन्याय होगा।

एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार जिनके पूरे पत्रकारिता के करियर में एक भी खोजी रिपोर्ट दर्ज नहीं है, वह दीपक चौरसिया के लिए पूछते हैं कि उनका पत्रकारिता में, इस देश के जनतंत्र में क्या योगदान है। जिस समय रवीश कुमार ‘रवीश की रिपोर्ट’ नाम से औसत डॉक्यूमेंट्री बनाया करते थे, उस समय शाहीन बाग में पिटने वाला यह पत्रकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पत्रकारिता का सिरमौर हुआ करता था और कई वर्षों तक रहा भी।

पत्रकारिता की पढाई करने वाले हर छात्र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाने का सपना पालते थे, तब वे दीपक चौरसिया बनने का ही ख्वाब देखते थे, रवीश बनने का नहीं। 2004-06 में हिन्दी पत्रकारिता एवं जनसंचार की पढ़ाई के दौरान हमने भी देखा कि गेस्ट लेक्चर के लिए आने वाले सक्रिय बड़े पत्रकार हमें दीपक चौरसिया के पत्रकारिता की बारीकियाँ सिखाया करते थे। मुझे याद है कि 26/11 के वक्त मुम्बई से लाइव करते हुए, दीपक चौरसिया बताते कि अभी-अभी मुझे दिल्ली में हुए अमुक डेवलपमेंट का पता चला है। हम लोग आश्चर्यचकित होते कि ये शख्स एक-दो मिनट के ब्रेक में कैसे दिल्ली की इतनी महत्वपूर्ण सूचनाएँ मुम्बई में रहकर संकलित कर रहा है। ये उनके सूत्रों के मजबूत तंत्र का कमाल था।

पत्रकारिता में सूत्रों का महत्व होता है न कि एजेन्डा सेट करने की आपकी काबिलियत का। आखिर रवीश कुमार पत्रकारिता कहते किसे हैं? ढकी, लुकी-छिपी जानकारियों को निकाल कर जनता के सामने रख देने को या वह जो वे करते हैं, एजेन्डा पत्रकारिता। पत्रकार अपने सीवी में अपने खोजी रिपोर्ट्स को प्रमुखता से स्थान देता है। क्या रवीश की सीवी में ऐसी एक भी रिपोर्ट है, जिसे खोजी कहा जा सके? इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट्स का हिन्दी अनुवाद करके एक घंटे लेक्चर छाँटना, कुछ भी हो पत्रकारिता तो नहीं है ना!

एनडीटीवी और वायर की श्रृंखला में एक नाम कॉमरेड भाषा सिंह का भी जुड़ता है। शाहीन बाग में दीपक चौरसिया के साथ जब हाथापाई हो रही थी, उस वक्त वहाँ खड़ी तमाशबीनों में शामिल थी। यह बात उन्होंने अपने एक वीडियो में स्वीकार किया है। सिंह वीडियो में कहती हैं, “आखिर दीपक क्या दिखाना चाह रहे हैं? जो शाहीन बाग से रिकॉर्ड करेंगे वह या ये कुछ और दिखाएँगे? उसी वक्त मंच से दरख्वास्त होती है कि दीपक चौरसिया शाहीन बाग से लाइव शो करें। इसके पीछे आयोजकों की चिन्ता यह है कि उनका टीवी चैनल शाहीन बाग को जेहादियों के अड्डे के तौर पर पेश कर रहा है, इससे उन्हें गहरी नाराजगी थी।”

10 साल पुरानी बात है। जिसे मुख्यधारा का मीडिया कहते हैं, वहाँ आरएसएस के कामों की बहुत कम सकारात्मक रिपोर्टिंग मिलेगी। लेकिन क्या आरएसएस ने किसी पत्रकार को रिपोर्टिंग से रोका। देशभर के मीडिया संस्थानों का बड़ा हिस्सा आइसा और एसएफआई से निकले कैडर और वामपंथी रूझान वाले पत्रकारों के हिस्से था। यदि आरएसएस यही व्यवहार लेफ्ट के पत्रकारों के साथ करता, भाषा सिंह को लिखने से पहले बंधक बना लेता और कहता कि भाषा तुम ‘आउटलुक’ में जो लिखने वाली हो यहाँ लिखकर ‘आउटलुक’ भेजो क्योंकि तुम यहाँ कुछ और कहती हो और छापती कुछ और हो। क्या भाषा को यह स्वीकार होता?

वामपंथी जहर ने इनके दिमाग के एक हिस्से को मानो पक्षाघात का शिकार बना दिया है। यह बोलती हुए समझ नहीं पा रहीं कि इनकी यह सोच पत्रकारिता के लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहा है। फिर रवीश, बरखा और राजदीप को अब कोई भी घेर के कह सकता है कि भैया तुम चैनल पर जाकर बकवास करते हो, अब जो रिपोर्ट करना है, हमारे सामने करो। फिर कहने के अधिकार का क्या होगा? फिर जिस आजादी की बात शाहीन बाग में हो रही है, वह झूठी और बेमानी ही साबित होगी, क्योंकि जब तक आप दूसरों की आजादी का सम्मान नहीं कर पाएँगे तब तक आपकी आजादी की डिमांड तो धोखा ही है।

हम सबने ‘न्यूज नेशन’ और ‘जी न्यूज’ की संयुक्त प्रस्तुति में देखा कि कैसे दोनों पत्रकारों ने मिलकर कथित आंदोलन का हिस्सा बने लोगों से संवाद स्थापित करने की कोशिश की। वास्तव में वहाँ मौजूद भीड़ को यह पता तक नहीं है कि वे एक झूठ के सहारे पर वहाँ खड़े किए गए हैं। दीपक चौरसिया और सुधीर चौधरी जैसे पत्रकारों के वहाँ मौजूद रहने से आयोजकों को डर रहा होगा कि उनका खेल खुल ना जाए। उनका झूठ बेपर्दा ना हो जाए।

शाहीन बाग में मीडिया रिपोर्टिग की जगह झूठ का कारोबार ही चल रहा है। साँच को आँच नहीं होता। लेकिन जिस तरह न्यूज नेशन और जी न्यूज के कैमरों से शाहीन बाग के कथित आंदोलनकर्मी भागते हुए नजर आए, उससे यही पता चल रहा था कि कोई सच है जिस पर वे पर्दा डालना चाहते हैं।

यूँ तो शाहीन बाग के मंच से एक नहीं दर्जनों झूठ बोले जा रहे थे। हो सकता है कि दीपक और सुधीर की मौजूदगी में वह झूठ बोलना मंच पर चढ़े लोगों के लिए सहज नहीं रह जाता। यह भेद देश के सामने जाहिर हो जाता। वहाँ गाँधी जी की तस्वीर लगाकर बोली जाने वाली हिंसक बातों से पर्दा हट जाता। उनके झूठ पर पर्दा पड़ा रहे इसलिए जरूरी था कि दीपक चौरसिया और सुधीर चौधरी उनके कथित आंदोलन से दूर रहे।

शाहीन बाग के मंच से एक झूठ डिटेंशन सेन्टर को लेकर भी लगातार बोला जा रहा है। यह भय फैलाया जा रहा है कि असम में जैसे डिटेंशन सेन्टर बनाया गया है, वैसा सेन्टर पूरे देश में बनाकर मुसलमानों को उसमें कैद किया जाएगा। यह उतना ही बड़ा झूठ है, जैसे इस्लाम में कोई मोहम्मद साहब को खुदा कह दे। मोहम्मद साहब मुसलमानों के पैगम्बर तो हैं, लेकिन वे खुदा नहीं।

वास्तव में वर्ष 2011 का साल एनआरसी के खिलाफ सड़क पर उतरे लोगों के लिए महत्वपूर्ण है। लेफ्ट यूनिटी की मीडिया किस तरह झूठ फैलाती है इस बात से जुड़ा है यह संदर्भ। 2011 वह साल था जब देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे और असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई। मतलब केन्द्र और असम दोनों जगह कॉन्ग्रेसी डबल इंजन सरकार थी। भाजपा सरकार एनआरसी 24 मई 2016 को सर्बानंद सोनोवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद लाई। इसके पाँच साल पहले ही असम में तीन डिटेंशन सेन्टर कॉन्ग्रेस की सरकार बनवा चुकी थी। इससे यह साबित होता है कि डिटेंशन सेन्टर में घुसपैठिए रखे जरूर गए हैं, लेकिन उन सभी घुसपैठियों की पहचान कॉन्ग्रेस सरकार में हुई थी। जबकि एनआरसी में जिन लोगों का नाम नहीं आया है, वे लोग वहाँ नहीं डाले गए। प्रधानमंत्री मोदी ने जब डिटेंशन सेन्टर ना बनने की बात की तो उसका सीधा सा मतलब था कि उनकी सरकार ने ऐसा कोई सेन्टर नहीं बनवाया। या फिर यह मतलब था कि एनआरसी में जिन 19 लाख लोगों का नाम नहीं आया वे लोग वहाँ नहीं डाले गए हैं। अब डिटेंशन सेन्टर पर ‘चंदा मीडिया’ ने क्या रिपोर्ट किया है, वह पढ़िए और चंदे पर केन्द्रित इनकी निष्पक्षता को समझिए।

 

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